रविवार, 22 जुलाई 2018


प्रोफेसर श्यामलाल की कृति ‘Ambedkar and The Bhangis’ की समीक्षा
डा. आंबेडकर और वाल्मीकि समुदाय
कँवल भारती
      भारतीय समाज में मानव-मल उठाने वाली और शौचालय साफ़ करने वाली जाति को सभी लोग अच्छी तरह जानते हैं. भारत में ऐसे सभी लोगों को आमतौर पर ‘भंगी’ कहा जाता है. इसके बावजूद कि यह शब्द असंसदीय है, प्रोफेसर श्याम लाल ने अपनी नई पुस्तक ‘Ambedkar and The Bhangis’ में इसी शब्द का प्रयोग किया है. पर मैं अपने आलेख में वाल्मीकि शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ.
      पटना और जोधपुर विश्वविद्यालयों के कुलपति रह चुके प्रोफेसर श्याम लाल प्रख्यात समाजशास्त्री हैं, जिनकी ‘An Untold Story of A Bhangi Vice-Chancellor’ अंग्रेजी में पहली दलित आत्मकथा मानी जाती है. पिछले 34 वर्षों से निरंतर साहित्य में सृजन-रत प्रोफेसर राजस्थान की अछूत और ट्राइब्स जातियों पर लगभग 21 पुस्तकें लिख चुके हैं. ‘Ambedkar and The Bhangis’ पुस्तक में उन्होंने वाल्मीकि जातियों के विकास में डा. आंबेडकर के योगदान को देखने की कोशिश की है. इस सम्बन्ध में उन्होंने प्रचलित कहानियों और मान्यताओं को सत्य की कसोटी पर कसा है. वह ‘Introduction’ में लिखते हैं, ‘उत्तर-स्वतंत्रता भारत में हमें डा. आंबेडकर पर प्रकाशित ऐसी कोई सामग्री नहीं मिलती, जो सम्पूर्ण देश में चल रहे वाल्मीकि समुदायों के आंदोलनों में उनकी भूमिका को रेखंकित करती हो. अनेक लेखकों और अकादमिक बुद्धिजीवियों ने राष्ट्र-निर्माण में डा. आंबेडकर के योगदान पर तमाम ग्रन्थ लिखे हैं, परन्तु आंबेडकर-वाल्मीकि सम्बन्धों पर किसी ने कुछ नहीं लिखा है.’ [पृष्ठ 1]
      निश्चित रूप ने इस विषय पर पहला काम भगवानदास की किताब ‘बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर और भंगी जातियां’ ही है. इसके बाद दूसरा काम श्याम लाल की ‘Ambedkar and The Bhangis’ किताब है, जिसमें उन्होंने इस तथ्य की पड़ताल की है कि वाल्मीकि समाज अम्बेडकर-विरोधी कैसे और क्यों बना? उन्होंने बड़ी मार्मिक बात लिखी है कि ‘राजस्थान में प्रभावशाली दलित जातियों ने जितना अर्जित कर लिया है, उसे वाल्मीकि समुदाय के लोग पिछले 68 वर्षों से पाने का प्रयास कर रहे हैं. यह जानना सचमुच हैरतअंगेज है कि 1985 से राजस्थान विधानसभा में वाल्मीकि समाज का एक भी विधायक नहीं है, जबकि प्रभावशाली दलित जातियों का प्रतिनिधित्व पर्याप्त संख्या में है. यही नहीं, 1952 से अब तक राजस्थान में वाल्मीकि समाज में नेताओं की कोई नई पीढ़ी भी पैदा नहीं हुई है.’ [पृष्ठ 3]
      प्रोफेसर लिखते हैं कि पिछले कुछ दशकों से सवर्ण हिन्दू और दलित बुद्धिजीवी भी अजीबोगरीब वक्तव्य दे रहे हैं, जिसने वाल्मीकियों की मुक्ति में आंबेडकर के योगदान को लेकर सवाल खड़े कर दिए हैं. इन वक्तव्यों के अनुसार स्वतन्त्रता-पूर्व से स्वतन्त्रता-पश्चात तक वाल्मीकि समुदाय पूरे देश में गाँधी और कांग्रेस के साथ रहा है, जिसकी वजह से वाल्मीकियों पर सीधे कांग्रेस का ही नियन्त्रण रहा है. यह असर इतना अधिक रहा कि कांग्रेस और वाल्मीकि दोनों एक-दूसरे के समानार्थी हो गए. इसी ने 1930 की शुरुआत में वाल्मीकियों में अम्बेडकर-विरोधी प्रचार को हवा दी. इधर गाँधी-कांग्रेस और उसके समर्थकों ने भी अम्बेडकर की चुनौती को अनुभव करते हुए वाल्मीकियों में अम्बेडकर के विरोध की मुहिम चलाई.
      कहते हैं, दलितों को लेकर गाँधी-अम्बेडकर विवाद भारतीय मनीषा में तब शुरू हुआ, जब 1930 में कांग्रेस ने गाँधी को दलितों का एकमात्र मसीहा घोषित का दिया था. लेकिन बहुत से अम्बेडकरवादी, दलित नेता, जिनमें भगवान दास भी शामिल हैं, अपनी रचनाओं में यह तर्क देते हैं कि वाल्मीकियों में अम्बेडकर के प्रभाव को खत्म करने के लिए कांग्रेस का  अम्बेडकर-विरोधी प्रचार पहला कदम था.
      किन्तु, आंबेडकर और वाल्मीकि गुत्थी का संज्ञान 1930 के बाद ज्यादा लिया गया, जब कांग्रेसियों, सवर्ण हिन्दुओं और गाँधी के कट्टर समर्थकों ने यह प्रतिप्रश्न उछाला कि आंबेडकर ने वाल्मीकियों के लिए क्या ख़ास काम किया है? इसी समय यह मत भी सामने आया कि 1932 में जब अम्बेडकर गोलमेज सम्मेलन लन्दन में दलितों के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने गए थे, तो कांग्रेसियों और आर्य समाजियों ने वाल्मीकियों के हस्ताक्षर वाले टेलीग्राम भिजवाए थे, जिनमें लिखा था कि आंबेडकर हमारे नेता नहीं हैं, और आंबेडकर को हमारी ओर से बोलने का कोई अधिकार नहीं है. उन टेलीग्रामों में यह भी कहा गया था कि हमारे नेता गाँधी जी हैं. इस घटना ने अम्बेडकर नेतृत्व और अम्बेडकरवादियों को गाँधी का कटु आलोचक बना दिया. असल में अम्बेडकर और वाल्मीकि-सम्बंधों पर असल विवाद यहीं से आरम्भ हुआ. [पृष्ठ 4-5]
      स्वाधीनता के बाद पैदा हुए इस विवाद ने आंबेडकर-समर्थकों और वाल्मीकियों के बीच विभाजन की रेखा और भी गहरी कर दी. आंबेडकर-समर्थकों ने इस सम्बन्ध में अनेक तथ्य रखे. उनका सबका वर्णन प्रोफेसर ने इस किताब में किया है. मिसाल के तौर पर भगवानदास ने लिखा कि कांग्रेस और भाजपा से जुड़े लोग ही वाल्मीकियों में आंबेडकर के खिलाफ प्रचार कर रहे हैं. प्रोफेसर अंगने लाल ने कानपुर की एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा कि एक बार आंबेडकर अपने सैलून से कानपुर होकर यात्रा कर रहे थे, तो वहां वाल्मीकियों ने विरोध-प्रदर्शन किया और आरोप लगाया कि उन्होंने सफाई कर्मचारियों के लिए कुछ नहीं किया है. तब आंबेडकर ने उनको सैलून में बुलाया और दिखाया कि उनके सैलून के दफ्तर में अधिकांशत:  कर्मचारी वाल्मीकि ही थे. इसी तरह की एक घटना का जिक्र सोहनलाल शास्त्री ने अपनी किताब में किया कि 1932 में लाहौरी गेट के बाहर आर्यसमाजी और कांग्रेसी हिन्दू वाल्मीकि भाइयों के हाथों से हिन्दुओं में चपातियाँ बँटवा रहे थे. और लाहौर के वाल्मीकियों की ओर से लन्दन तार भिजवाए जा रहे थे कि हमारे नेता महात्मा गाँधी हैं. इसी तरह की एक घटना का अनुभव प्रोफेसर श्याम लाल ने भी दर्ज किया है. यह वाकया उन्हें कुछ दशक पहले जोधपुर में हरिजन सेवक संघ के कांग्रेसी वाल्मीकि कार्यकर्ता एन. डी. गुजराती ने सुनाया था. उन्होंने बताया था कि एक बार जोधपुर में कांग्रेस का दलित सम्मेलन था, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री को बोलना था. एक दिन पहले कार्यक्रम की रूपरेखा तय हुई. गुजराती को आश्चर्य हुआ, कि कांग्रेस मुखिया ने उन पर आंबेडकर के खिलाफ बोलने का दबाव बनाया. उसने उन्हें यहाँ तक बताया कि अगर वह कुछ ज्यादा कहेगा, तो कांग्रेसी उसे मार डालेंगे. एक दृष्टान्त उन्होंने सुलभ इन्टरनेशनल के संस्थापक बिन्देश्वर पाठक का भी दिया है, जिन्होंने ‘सरिता’ में प्रकशित अपने एक लेख में लिखा था कि स्कैंजरों की तरफ अम्बेडकर का ध्यान गया ही नहीं था. उन्होंने 2001 में अमृतसर में हुए बामसेफ के वाल्मीकि जाति मुक्ति सम्मेलन का भी जिक्र किया है, जिसमें मुख्य वक्ता डी.डी. कल्याणी के भाषण के बीच में कुछ शिक्षित वाल्मीकि युवकों ने खड़े होकर सवाल पूछे थे. उनके प्रश्न इसी बात को लेकर थे कि वाल्मीकियों के लिए डा. आंबेडकर का क्या विशेष योगदान था? [पृष्ठ 6-9]
      इस पूरे प्रकरण के संदर्भ में प्रोफेसर श्याम लाल लिखते हैं कि  आंबेडकर बनाम वाल्मीकि का यह विवाद तथ्यों की अपेक्षा मिथकों पर ज्यादा टिका हुआ है. हजारों लोगों को चुप कराना आसान है, परन्तु एक सम्पूर्ण पीढ़ी को कैसे चुप कराया जा सकता है? यह किताब प्रोफेसर ने मिथक और सत्य को उजागर करने के लिए ही लिखी है. तीन भागों में विभक्त 11 अध्यायों में लेखक ने उन तमाम सवालों की आलोचनात्मक पड़ताल की है, जो आंबेडकर और वाल्मीकि समाज के सम्बन्ध में पक्ष-विपक्ष में उठाए जाते रहे हैं. मसलन, डा. आंबेडकर के नेतृत्व में विभिन्न तरीक़ों से सफाई कर्मियों को मिलने वाले लाभ, जैसे- अंग्रेजी राज में वाल्मीकियों के लिए बनाया गया पहला सफाई कर्मचारी आयोग, वाल्मीकियों के लिए आंबेडकर की पीड़ा, प्रेम और अनुराग, शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन में उनकी भागीदारी, नौकरियों में शिक्षित वाल्मीकियों की भर्ती और उनकी शिक्षा की रणनीति, 1937 में मातंग समाज से आंबेडकर की भेंट, 1938 का मातंग सम्मेलन, श्रम मंत्री द्वारा वाल्मीकि आदि निम्न वर्गों के लिए प्रस्तुत किए गए उपाय, वाल्मीकि सहित दलितों की उच्च शिक्षा के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों में प्रवेश की व्यवस्था, 1947 में पाकिस्तान से भारत में वाल्मीकियों के पलायन पर रोक का सवाल, और आंबेडकर के विरुद्ध कांग्रेस का वाल्मीकियों को भड़काना तथा बौद्धधर्म के वाल्मीकि प्रचारक का उद्भव आदि आंबेडकर से संबंधित विषयों पर इस किताब में गहरा अध्ययन किया गया है, और यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि इस विषय पर प्रोफेसर श्याम लाल का यह विचारोत्तेजक कार्य हिंदी में ही नहीं, अंग्रेजी में भी पहला प्रयास है.
      इस पुस्तक के दो महत्वपूर्ण अध्यायों पर चर्चा करना जरूरी है. इनमे पहला अध्याय भंगी समुदाय की उत्पत्ति के विषय में है, और दूसरे अध्याय में बाबासाहेब डा. आंबेडकर के उन कार्यों का वर्णन है, जो उन्होंने सफाई कर्मचारियों के कल्याण के लिए किए थे.
2
भंगी समुदाय का उद्भव
     
      The Bhangi : The Lowest of the Low Untouchable Castes’ शीर्षक पहले अध्याय में प्रोफेसर श्याम लाल ने भारत के अलग-अलग प्रान्तों में मैला उठाने वाले लोगों को किन-किन नामों से जाना जाता है, इसका वर्णन करते हुए यह पता लगाने की कोशिश की है कि वे भंगी कैसे बने? एक तरह से यह अध्याय भंगी शब्द की उत्पत्ति पर प्रकाश डालता है. वे यह मानते हैं कि सफाई करने वाले लोग हर सभ्यता में थे. प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में भी पुलकस, श्वपच और चंडाल के नाम मिलते हैं, जो सफाई का गंदा काम करते थे. हर सभ्यता में नगरों में रहने वाले लोगों को न केवल शौच के लिए एक ख़ास स्थान की जरूरत पड़ती थी, बल्कि मल को उठाकर फेंकने वालों की भी जरूरत पड़ती थी. इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि प्राचीन भारत के लोग सफाई कर्मचारी के नाम से परिचित नहीं थे. हालाँकि उस काल में भी इस कार्य को एक ख़ास वर्ग या समुदाय के लोग ही करते थे. किन्तु वे भंगी कहलाते थे या नहीं, यह जानने के लिए लेखक ने कुछ रोचक अध्ययन किए हैं. उसने बी. एन. श्रीवास्तव, एन. आर. मलकानी और बिन्देश्वर पाठक के मुस्लिम मत का भी विश्लेषण किया है, जो कहते हैं कि स्वच्छकार का औपचारिक पेशा मुस्लिम काल में आया. उनके अनुसार, मुसलमान अपने साथ कुछ स्त्रियों को लेकर आए थे, जो बुरका पहिनती थीं. अत: उनके लिए परदे वाले ख़ास किस्म के शौचालय बनवाए गए थे, जिन्हें साफ़ करने और मल को उठाकर फेंकने के लिए भी आदमी नियुक्त किए गए थे. यह काम उन्होंने युद्ध-बंदियों से कराया, क्योंकि उनके सजातीय आदमी यह काम नहीं कर सकते थे. इस तरह उन्होंने एक अलग भंगी जाति का निर्माण किया, जिसे बाद ने बादशाह अकबर ने मेहतर का नाम दिया था. श्रीवास्तव के अनुसार ब्रिटिश काल में सेना की छावनियों और नगरपालिकाओं का गठन हुआ, जहाँ दैनिक आधार पर बड़ी संख्या में स्वच्छकारों को रखा गया. उनकी जातियों के नामों से पता चलता है कि उन्हें विभिन्न जातियों और विभिन्न सामाजिक वर्गों से भर्ती किया गया था. पाठक के अनुसार, इनमें न केवल क्षत्रिय, बल्कि पुल्कस और चंडाल जैसे लोग भी थे, जो प्राचीन काल से मानव-मल उठाने का काम कर रहे थे, और वे भी शामिल थे, जो युद्धबंदी बनाए गए थे. उनके अनुसार वे लोग ही आज के भंगी और मेहतर हैं. 1931 की जनगणना में इन स्वच्छकारों की संख्या 19,57,460 थी, जिनमें 10,38,678 पुरुष और 9,18,782 स्त्रियाँ थीं. यही वर्ग आगे चलकर भारतीय समाज में स्वच्छकारों का पुश्तैनी वर्ग बन गया. चूँकि मानव-मल उठाना बहुत ही गंदा काम था, इसलिए समाज में इनको सम्मानित स्थान नहीं मिला और वे सबसे निम्न वर्ग बन गए. [पृष्ठ 18]
यहाँ प्रोफेसर श्याम लाल ठीक ही सवाल उठाते हैं कि ये लोग भंगी के रूप में कैसे माने गए? क्या उन्हें पहले जाति-बहिष्कृत किया गया, और बाद में उन्हें गंदा काम करने के लिए बाध्य किया गया, या वे शुरू से यही काम कर रहे थे और इसी आधार पर सबसे नीच कहलाए? अगर इस सवाल का जवाब यह है कि वे शुरू से गन्दा काम नहीं कर रहे थे, बल्कि बाद में उन्हें यह काम करने के लिए बाध्य किया गया था, तो यहाँ एक दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि फिर इसके कारण क्या हो सकते हैं? लेखक ने इसके कुछ संभावित कारणों को कुछ सिद्धांतों में तलाश करने की कोशिश की है.
      इनमें पहला मिथकीय सिद्धांत है. वे लिखते हैं कि हिन्दू धर्म शास्त्रों और स्मृतियों से जिस जाति को भंगी के अर्थ में सबसे ज्यादा उद्धृत किया जाता है, वह चंडाल जाति है. मनु के अनुसार, चंडाल ब्राह्मण माँ और शूद्र पिता की संतान है, जिसका काम लाशों को ढोना और वधिक का काम करना था. कुछ स्रोतों में उसकी और भी अपमानजनक उत्पत्ति मिलती है, जिनमें से एक के अनुसार वह मुसालिया पिता और धींवर स्त्री, जो रोज सुबह सड़क बुहारने, लाशें ढोने और मानव-मल उठाने का काम करती थी, के संसर्ग से पैदा हुआ था. एक दूसरे स्रोत में उसे डोम की संतान कहा गया है, जिसका पिता निषाद और माँ सूद्र थी. प्रोफेसर लिखते हैं कि धर्मशास्त्रों के आधार पर कोई भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकता. यहाँ यह सवाल उठता है कि क्या चंडाल शब्द से उसी जाति का बोध होता है, जो भंगी जाति से होता है? दूसरे शब्दों में क्या ये एक ही वर्ग के लोगों के अलग-अलग नाम हैं? वे कहते हैं कि धर्मशास्त्र इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते. [पृष्ठ 16-19]
इसके बाद लेखक अपने अभीष्ट के लिए इतिहास में प्रवेश करता है. वह 400 ईसवी में चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में भारत आए चीनी यात्री फाह्यान (Fa-Hien) के यात्रा विवरण को देखता है, जिसे डा. आंबेडकर ने भी अपने ग्रन्थ ‘The Untouchables’ में उद्धृत किया है. फाह्यान ने अपने नगर-वृतांत में चंडाल का जिक्र किया है, भंगी का नहीं. इसका अर्थ है फाह्यान के समय में भारत में भंगी शब्द नहीं था. आंबेडकर के अनुसार उस समय तक अस्पृश्यता भी अस्तित्व में नहीं आई थी. फाह्यान के बाद 629 ईसवी में दूसरा चीनी यात्री युआन च्वांग (Yuan Chwang) भारत आया और यहाँ सोलह साल तक रहा. उसने नगरों का वर्णन करते हुए लिखा है कि कसाई, धोबी, मछुआरे, नट-नर्तक, वधिक, और स्वच्छकार की बस्तियों को एक ख़ास चिन्ह से पृथक किया गया है. उन्हें नगर के बाहर बसने के लिए बाध्य किया गया है, और जब कभी उन्हें किसी के घर के पास से गुजरना होता है, तो वे बायीं ओर झुककर निकलते हैं.
      श्यामलाल जी कहते हैं कि इस विवरण में गौर करने लायक बात यह है कि युआन च्वांग ने चांडालों के सिवा कुछ अन्य समुदायों का भी जिक्र किया है. इसमें यही एक महत्वपूर्ण बिंदु है, जो यह बताता है कि युआन च्वांग के समय भारत में अछूत वर्गों और छुआछूत का विकास हो चुका था. इसी के आधार पर डा. आंबेडकर ने भी यह निष्कर्ष निकाला था कि 200 ईसवी तक अस्पृश्यता का अस्तित्व नहीं था, परन्तु 600 ईसवी तक इसका जन्म हो गया था. डा. आंबेडकर का अध्ययन इस विषय पर था कि अछूत कौन थे और वे अछूत कैसे बने? उन्होंने किसी विशेष अछूत जाति के संदर्भ में शोध नहीं किया था. किन्तु श्यामलाल जी के समक्ष प्रश्न यह है कि अछूतों में भी अछूत भंगी कौम कैसे बनी? वे इसे एक जटिल समस्या मानते हैं. उनके अनुसार नस्ल, आक्रमण, और भारतीय इतिहास में विभिन्न काल-खंडों की संस्थाओं और सरकारों ने जाति पर अपनी छाप छोड़ी है. इसलिए वे समझते हैं कि भारत में भंगियों के उद्गम को समझने के लिए ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता है. पर वे ‘अनार्य’ या ‘द्रविड़ियन’ सिद्धांत पर भी सवाल करते हैं कि आज जाति इतनी विशाल बन गई है कि सिर्फ इस आधार पर कि आर्यों ने मूलनिवासियों को दास बनाया और उनसे स्वच्छता के गंदे काम कराए गये, कोई सही निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता.
      इसके बाद वे मानव-विज्ञान (Anthrological) और आचार-विज्ञान (Ethological) के सिद्धांतों को कसौटी पर कसते हैं. इस सम्बन्ध में उन्होंने जी. एस. घुर्ये के मत को उद्धृत किया है, जो उन्होंने अपनी किताब  ‘कास्ट एंड क्लास इन इंडिया’ (1957) में दिया है कि संयुक्त प्रान्तों का ब्राह्मण शारीरिक रूप से पंजाब के चूहड़ा और खत्री के ज्यादा करीब है. श्यामलाल जी लिखते हैं कि निसंदेह यह हो सकता है कि किसी समय ब्राह्मण और चूहड़ा (भंगी) दोनों एक ही लोग रहे हों. विजेता लोग पराजितों को अपनी अधीनता में रखते थे, और उनसे नीच काम कराते थे, और अवश्य ही वह नीच काम केवल मल उठाने का ही हो सकता था. स्टैनली राइस ने भी बहिष्कृत लोगों (अछूतों) को विजेताओं का ही अधीनस्थ माना है. लेखक के अनुसार उत्तर भारत की भंगी जाति से इन बदलावों की पुष्टि की जा सकती है. वे क्रूक के हवाले से कहते हैं कि कुछ भंगियों का रंग गहरा काला और चमकीली ऑंखें डोम से मिलती हैं. कुछ मानव-विज्ञानी विद्वान् यह मानते हैं कि कुछ वर्ग, सामाजिक व्यवस्था के बदलाव के साथ अपनी अस्मिता और प्रतिष्ठा को बनाए रखने में असमर्थ थे, जिसके परिणामस्वरूप वे निम्नतम स्तर पर चले गए. शायद इसलिए उनमें बहुत से गोत्र समान पाए जाते हैं. उदाहरण के लिए चौहान, सोलंकी, गहलोत, परिहार, राठोड़, पंडित और कल्ला राजपूत और ब्राह्मण गोत्र हैं, जबकि ये गोत्र भंगियों में भी मिलते हैं. [पृष्ठ 22]
      लेखक ने बताया है कि 1911 में चंडाल जाति ने जनगणना अधिकारी से यह अपील की थी कि उनकी गणना ब्राह्मण में की जाए, क्योंकि वे ब्राह्मण माँ से जन्मे हैं. वे कहते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं कि चंडाल गंदगी साफ़ करने का काम करते थे, लेकिन उन्होंने स्वयं को ब्राह्मण के रूप में दर्ज कराने की कोशिश समृद्ध होने के बाद की. स्पष्ट है कि मानव-मल साफ करने वाले लोग सिर्फ एक जाति के नहीं थे. इन समानताओं के संदर्भ में लेखक कहता है कि अगर ये सही हैं, तो यह कहना तर्कसंगत होगा कि किसी समय भंगियों का सामाजिक स्तर ऊँचा रहा होगा. [पृष्ठ 22]
      लेखक के अनुसार उत्तर भारत के भंगियों के उच्च जातीय होने के कुछ प्रमाण धर्मांतरण और धर्म-बहिष्कार के सिद्धांतों में भी मिलते हैं. इस तरह के काफी साक्ष्य हैं कि सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने वाले लोगों का धर्म से बहिष्कार कर दिया जाता था, और वे अछूत घोषित कर दिए जाते थे. ऐसे बहिष्कृत लोगों के पास जीविका का कोई साधन नहीं रह जाने के कारण एक ही रास्ता बचता था, कि वे या तो भूखे मर जाएँ, या फिर गंदे कामों से अपनी जीविका चलायें. उन्होंने दूसरा रास्ता ही विवश होकर अपनाया होगा. वे एन. प्रसाद को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि बंगाल में हिन्दू शासन के पतन के बाद जो लोग न ब्राह्मणधर्म को स्वीकारते थे, और न इस्लाम को, और अपने पुराने धर्म में ही बने रहते थे, वे ही आज के अछूत हैं. इसलिए भंगियों के संदर्भ में वे मलकानी के इस मत से सहमत हैं कि भंगी आवश्यक रूप से नगरीय जीवन का आधुनिक उत्पाद है. जिसे पहले मुसलमानों ने और बाद में अंग्रेजों ने निर्मित किया था, जो बाद में आनुवंशिक बन गया. [पृष्ठ 23-24]
      लेकिन इस सम्बन्ध में वे यह भी स्वीकार करते हैं कि भंगियों के बारे में किसी प्रामाणिक और लिखित साक्ष्य के अभाव में शोधकर्ता को मौखिक परम्पराओं और किंवदन्तियों से ही काम चलाना होगा. इसलिए आगे वे इस अध्याय में मौखिक परम्पराओं का विश्लेषण करते हैं, जिसमें पहली मौखिक परम्परा वाल्मीकि ऋषि का वंशज होने की है. इस परम्परा पर लेखक ने ठीक ही विमर्श किया है, क्योंकि आज वाल्मीकि ही भंगी जाति की मुख्य पहिचान बन गई है और सत्तर के दशक में जन्मा एक ‘वाल्मीकि धर्म’ भी उनके बीच स्थापित हो गया है, जिसके जनक स्वामी रत्नाकर थे. इन पंक्तियों के लेखक ने उनके साथ पत्राचार किया था. उन्होंने एक पत्र में मुझे लिखा था कि वह पहले बौद्ध भिक्षु थे, और अब उनका लक्ष्य वाल्मीकि धर्म स्थापित करना है. श्याम लाल जी ने वाल्मीकि धर्म की घटना को नजरअंदाज किया है, उनका जोर वाल्मीकि ऋषि पर रहा है, जिसकी कहानी उन्हें एक नीच जाति का बताती है, और यह भी कि वह डाकू थे. संभवतः वाल्मीकि के इस घृणित कर्म की वजह से ही उन्हें स्वच्छकार का दर्जा दे दिया गया. पौराणिक कथा का यह अवशेष अभी भी भंगियों में प्रचलित है. भंगी के उद्गम की एक कथा वे 1891 की मारवाड़ जनगणना से उद्धृत करते हैं. उसके अनुसार, एक दिन ब्रह्मा ने मिटटी को रगड़कर आदमी बनाया, और महिथर नाम दिया. यह महिथर ही मेहतर हुआ. बाद में उन्हें भंगी कहा जाने लगा, क्योंकि उनके बच्चे मृतक पशुओं का मांस खाते थे, और मातंगी देवी के मन्दिर में बिना नहाए जाते थे. इससे कुपित होकर देवी ने उन्हें हमेशा सफाई का काम करने और मानव-मल उठाने का शाप दे दिया. उसी समय से वे भंगी हो गए. [पृष्ठ 25]
      भंगी-उद्गम पर आगे बढ़ते हुए प्रोफेसर ने क्रूक के हवाले से एक किंवदंती का जिक्र किया है, जिसके अनुसार एक बार हज़रत पैगम्बर और मेहतर (Saint) एलियास ख़ुदा (Almighty God) के दरबार में हाजिर हुए. एलियास को खांसी आई, पर उन्हें वहाँ थूकने के लिए कोई जगह नहीं मिली. उन्होंने ऊपर को मुंह करके थूका, तो वह पैगम्बरों के ऊपर गिरा. उन्होंने इसे अपमान महसूस किया, और खुदा से शिकायत की. खुदा ने तुरंत एलियास को हुक्म दिया कि अब वह दुनिया में स्वीपर के रूप में काम करेंगे. इलियास ने खुदा के हुकुम को तो क़ुबूल कर लिया, पर प्रार्थना की कि उनकी हिफाजत के लिए कुछ पैगम्बर और पैदा कर दिए जाएँ. खुदा ने एक पैगम्बर ‘लाल बेग’ को पैदा कर दिया.
किन्तु, श्यामलाल जी इन कथाओं के बारे में लिखते हैं कि ये किंवदन्तियाँ भंगियों के उद्गम को नहीं बताती हैं, बल्कि सिर्फ यह बताती हैं कि कैसे कुछ लोग स्वीपर वर्ग में धकेल दिए गए.
अंत में लेखक की भंगी जाति के उद्गम की यात्रा व्युत्पत्ति सिद्धांत में समाप्त होती है. वह संस्कृत के शब्द ‘भांग’ से भंगी का उद्गम मानते हैं. भांग का नशा करने वाले— भंगेड़ी को भंगी कहा गया. किन्तु भांग के सेवन के आदी लोग मानव-मल उठाने वाले भंगी कैसे हो गए, यह गुत्थी अभी भी बनी हुई है, और लेखक ने भी इसे सुलझाया नहीं है. उनके अनुसार भंगी का अर्थ हत्या करना भी है, और समाज से भंग किया हुआ अलग वर्ग भी है. वे भंग और बहिष्कृत लोग हैं, जिनका मुख्य काम मानव-मल उठाकर फेंकना है.

3
भंगी आन्दोलन में डा. आंबेडकर का योगदान

       
      डा. श्यामलाल की किताब ‘‘Ambedkar and The Bhangis’ में पांचवां अध्याय ‘Ambedkar : Mobilization and Bhangi Solidarity Movement’ भंगी आन्दोलन में डा. आंबेडकर के योगदान के सम्बन्ध में है. वह लिखते हैं, 1942 में वायसराय लिनलिथगो ने जब अपने मंत्री परिषद का विस्तार करते हुए डा. बाबासाहेब आंबेडकर को श्रम सदस्य के रूप में नियुक्त किया था, तो उन्होंने सफाई कर्मचारियों की समस्याओं को अच्छी तरह से समझने के लिए एक पृथक आयोग का गठन किया था, जिसके सदस्य पी. टी. बोरले और आर. आर. भोले बनाए गए थे. लेखक के अनुसार, उन सदस्यों ने पूरे देश में अनेक प्रान्तों में घूम-घूमकर  सफाई कर्मचारियों की स्थिति और उनके सामाजिक स्तर का अध्ययन किया और अपनी रिपोर्ट श्रम विभाग को सौंपी. इतने कम समय में आयोग की उपलब्धियां अविश्वसनीय थीं. लेकिन यह बाबासाहेब की सक्रियता का परिणाम था. लेखक यहाँ इस तथ्य को रेखांकित करता है कि 1945 में डा. आंबेडकर ने आर. आर. भोले को फ़िलाडेल्फ़िया में होने वाली अंतर्राष्ट्रीय मजदूर कांग्रेस में सफाई कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा था, जहाँ उन्होंने सफाई कर्मचारियों के हालात और उनकी समस्याओं को बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया था. वे लिखते हैं कि यह सब इसलिए हो सका क्योंकि इसमें बाबासाहेब ने व्यक्तिगत रूप से रूचि ली थी. वह  लिखते हैं कि बाद में भोले हाईकोर्ट के जज बने, और सेवानिवृत्त होने के बाद लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए. [पृष्ठ 69-70]
      इस विषय पर आगे बढ़ते हुए लेखक ने लिखा है कि बाबासाहेब के आवास पर विभिन्न प्रान्तों से दलित आकर उन्हें अपने कष्ट और समस्याएं बताते थे. ऐसे लोग भी आते थे. वे सबकी शिकायतें सुनते थे, और उनके निवारण के लिए कलेक्टर, कमिश्नर और वायसराय तक को पत्र लिखते थे. वह देवी दयाल के हवाले से, जो बाबासाहेब के बंगले पर लाइब्रेरी का काम करते थे, एक बहुत ही मार्मिक घटना का उदाहरण देते हैं—
’14 सितम्बर : आज चार मेहतर अपनी दुखभरी कहानी सुनाने आए. एक मेहतर के शरीर की खाल चटकी हुई थी और उससे थोड़ा-थोड़ा खून छलक रहा था. उसे देखकर बाबासाहेब ने पूछा, यह क्या हुआ है? मेहतर ने जवाब दिया, हुजूर, अफसरों के हुकुम से मैं कल एक गंदे नाले में उतरा था. मल की गंदगी की गर्मी से मेरी खाल कट गई. इससे बड़ी पीड़ा होती है.’
      यह सुनकर और उसकी दयनीय स्थिति को देखकर बाबासाहेब ने नाराज होकर अपना गुस्सा इन तीखे शब्दों में व्यक्त किया था—
‘मैं इन मेहतरों से इतनी घृणा करता हूँ कि तुम कल्पना नहीं कर सकते. मैंने वर्षों तक सुधार का काम किया, मैं सबको समझा सका, कि उन्हें मनुष्य की भांति रहना चाहिए. किन्तु मैं इस कौम को नहीं समझ सका. वे इतना नारकीय जीवन व्यतीत करते हैं कि उससे बचने का कोई उपाय न तो स्वयं करते हैं और न दूसरों की सुनते हैं, ये मूर्ख अपना मूल्य कभी नहीं समझेंगे.’ [पृष्ठ 71]
      वाल्मीकि समुदाय के प्रति यह बाबासाहेब के प्रेम और सम्वेदना को दर्शाता है. वे उनकी मुक्ति के लिए सदैव चिंतित रहते थे. लेकिन वाल्मीकियों की स्थिति में कोई ख़ास बदलाव अभी भी नहीं आया है. उन्हें अपनी गुलामी का बोध आज भी नहीं हुआ है.
      प्रोफेसर श्यामलाल लिखते हैं, सफाई कर्मचारियों की अपनी अलग तरह की समस्याएं होती हैं. एक तरफ, लोग यह मानते हैं की वे बहुत ताकतवर हैं. अगर उन्होंने कुछ दिनों के लिए भी सफाई का काम बंद कर दिया, तो कोई भी सरकार गंदगी बढ़ने के भय से, तुरंत उनकी मांगों को मान लेगी. किन्तु दूसरी तरफ, अधिकांश सफाई कर्मचारी घोर गरीबी, अज्ञान और असहाय अवस्था में जी रहे हैं. उनके बहुत सारे नेता हैं, पर वे उनका शोषण करते हैं. इन कारणों से उनके लिए संगठित होना और अपने संघर्ष को व्यापक बनाना बहुत मुश्किल होता है.
शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन में वाल्मीकियों की भागीदारी :
     1936 में गठित इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी को भंग करने के बाद बाबासाहेब ने 1942 में पुनः शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन को कायम किया था. श्यामलाल जी भगवानदास के हवाले से लिखते हैं कि इसके द्वारा बाबासाहेब ने वाल्मीकियों को एक बड़ा अवसर प्रदान किया था. 1942 से पूर्व शिमला में शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की शाखा राजनीतिक रूप से सक्रिय थी. बाबासाहेब ने इस शाखा का अध्यक्ष बालमुकुन्द और महासचिव तेलूराम बैदवान को बनाया था, जो मेहतर समुदाय से थे. उन्होंने शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन का अपने क्षेत्र के दलित वर्गों में, खासकर सफाई कर्मचारियों में इतना जबर्दस्त काम किया कि कांग्रेस पार्टी के लोग उनसे कुढने लगे और उनको चिढ़कर बैदवान की जगह बेडमेन (बुरा आदमी) कहने लगे थे. इसके बाद बाबासाहेब ने ‘रिपब्लिक पार्टी ऑफ़ इंडिया (आरपीआई) बनाई, जो विधिवत रूप से उनके निधन के बाद अस्तित्व में आई. भगवानदास के अनुसार आरपीआई के नेताओं ने सफाई और खेत मजदूरों  को संगठित करने का काम नहीं किया होता, जिसकी वजह से उसकी शक्ति में वृद्धि नहीं हुई. [पृष्ठ 73]
      डा. श्यामलाल ने उल्लेख किया है कि अंग्रेजी शासन में अछूतों, खासकर भंगियों को छुआछूत के कारण सरकारी नौकरियों में भर्ती नहीं किया जाता था. किन्तु 1942 में जब बाबासाहेब श्रम सदस्य बने, तो उन्होंने इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनके प्रयासों से सभी अछूतों के लिए सरकारी नौकरियों के दरवाजे खुले.
      बाबासाहेब ने अछूतों को संगठित करने का काम शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के माध्यम से किया था, जिसका उद्देश्य दलित समस्याओं के लिए लड़ना था. प्रोफेसर लिखते हैं, शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की सबसे बड़ी शक्ति भंगी और चमार थे. बाबासाहेब जहाँ भी जाते थे, वहां भंगी और चमार ही मिलकर दलितों की सभा का आयोजन करते थे. इससे जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ता था. 27 अक्टूबर 1951 को, जब बाबासाहेब जालन्धर गए, तो शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के अध्यक्ष सेठ किशन दास ने जनसभा का आयोजन किया, और प्रचार मंत्री भागमल ने सभा का संचालन किया था. इनमें किशन दास चमार थे और भागमल भंगी.
      लेखक ने एक और घटना का उल्लेख किया है. 1943 में श्रम सदस्य के रूप में जब बाबासाहेब पहली बार शिमला गये थे, तो वहाँ वे खान बहादुर मुश्ताक अहमद गुर्मानी के आवास पर ठहरे थे. वहां पर शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के सदस्य और अन्य समाजसेवी अपनी समस्याओं को लेकर बाबासाहेब से मिले थे. मिलने वालों में वाल्मीकि समाज के नवयुवक भगवानदास भी थे. इस नवयुवक ने उनके सहायक के मार्फत उनसे मिलने की प्रार्थना की. कुछ घंटों की प्रतीक्षा के बाद बाबासाहेब ने उसे अंदर बुलवाया. उन्होंने उसका नाम और पिता के बारे में पूछा कि वह क्या करते हैं? नवयुवक ने बताया कि उनके पिता का इसी वर्ष 14 मई को निधन हो गया और उसके एक महीने बाद उनके घर को जला दिया गया था. उसने आगे बताया कि वह मेट्रिक तक पढ़ा है, और वर्तमान में सीपीडब्लूडी के लेखा विभाग में काम करता है. बाबासाहेब ने उस युवक से पूछा, ‘मुझसे क्या चाहते हो?’ युवक ने उत्तर दिया, ‘मैं आपके विभाग में काम करना चाहता हूँ. कुछ दिन पहले मैंने आपको एक पत्र भेजा था, पर कोई उत्तर नहीं मिला.’ बाबासाहेब ने उससे उसका पता लेकर रख लिया. युवक जब अपना पता देकर वापस आया, तो उसे यकीन नहीं था किउसकी इच्छा पूरी होने वाली है. किन्तु पन्द्रह दिन बाद ही युवक को श्रम विभाग में बी-ग्रेड क्लर्क के पद पर नियुक्ति का आदेश मिल गया.
      एक और भंगी क्लर्क का उल्लेख उन्होंने भगवानदास के हवाले से किया है. शिमला के श्रम विभाग में प्रीतम लाल क्लर्क थे, जिससे टाइपिंग का काम लिया जाता था. पर उसकी अंग्रेजी कमजोर थी, जिसकी वजह से उसे हमेशा नौकरी से निकाले जाने का डर लगा रहता था. उसने अपने चाचा मोहन सिंह से मदद मांगी कि वह उसे ऐसी जगह शिफ्ट करा दें, जहाँ अंग्रेजी की समस्या न हो. उन्होंने इस बाबत कई कांग्रेसी नेताओं से प्रार्थना की, पर कोई नतीजा नहीं निकला. अंत में वह दिल्ली जाकर बाबासाहेब से मिले, और उन्हें प्रीतम लाल की समस्या से अवगत कराकर प्रार्थना की. बाबासाहेब ने तुरंत शिमला ऑफिस के प्रमुख को फोन करके कहा कि ‘प्रीतम लाल को नौकरी से हटाया न जाय, बल्कि उसे कोई दूसरा काम दे दिया जाये.’ परिणामत: प्रीतम लाल को दूसरे विभाग में भेज दिया गया, जहाँ एक हिन्दू अधीक्षक ने उसे अंग्रेजी सिखाई और बाद में उसकी प्रोन्नति भी हुई.
भंगियों के बीच आन्दोलन :
     1937 में बाबासाहेब ने सम्पूर्ण महाराष्ट्र का दौरा किया. 30 दिसम्बर 1937 को वह एक दलित सम्मेलन में भाग लेने के लिए पंढरपुर गए. रास्ते में वे कुर्दुवाड़ी स्टेशन पर उतरे. वहाँ उनका स्वागत मातंग समाज के लोगों ने किया. बाद में उन्होंने करकम गाँव में मातंगों की सभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस से सावधान रहने को कहा, जिसके नेता सफेद वस्त्रों में गरीब के कल्याण की सिर्फ बातें करते हैं, जबकि असल में वे उनके सबसे बड़े शोषक और खून चूसने वाले हैं.
      इसी प्रकार उन्होंने शोलापुर में मातंग सम्मेलन को संबोधित किया. वहां 4 जनवरी 1938 को नगरपालिका के सफाई कर्मचारियों ने उनका नागरिक अभिनंदन किया. वहां उन्होंने भंगी समाज को सामाजिक भेदभाव और विकास में उपेक्षा के विरुद्ध आन्दोलन को हथियार बनाने की सलाह दी.
      प्रोफेसर श्यामलाल डी. डी. कल्याणी के हवाले से नासिक की एक घटना का जिक्र करते हैं, जहाँ बाबासाहेब ने चमार और भंगी समुदाय के बीच भोज और विवाह को प्रोत्साहित किया था. इसके कारण वहां दलितों में अनेक अंतरजातीय विवाह संपन्न हुए थे. वह लिखते हैं कि जब बाबासाहेब नासिक गए, तो कुछ सवर्ण हिन्दुओं ने उन्हें भोजन पर निमंत्रित किया था, परन्तु वे अपने मित्र रामभाऊ पलाजीमारो के घर पर जाकर ठहरे थे, जो भंगी समुदाय से थे. उन्होंने हिन्दुओं का भोजन छोड़कर अपने मित्र के साथ भोजन किया था.
      लेखक के अनुसार, कांग्रेस को डा. आंबेडकर के साथ वाल्मीकियों की नजदीकियां पसंद नहीं थीं. उसके नेताओं ने वाल्मीकियों को उनसे अलग करने के लिए डा. आंबेडकर के खिलाफ अनर्गल दुष्प्रचार करना शुरू किया, जिसके जाल में अशिक्षित और गरीब वाल्मीकि जल्दी फंस गए और उन्होंने गाँधी तथा कांग्रेस को अपना मसीहा मान लिया. यद्यपि कांग्रेस अपने इस मिशन में पूरे देश में सफल हो गई थी, फिर भी, वाल्मीकि बाबासाहेब के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं हुए थे. अनेक वाल्मीकि सामाजिक भेदभाव के खिलाफ उनके आन्दोलन को पसंद करते थे और कुछ भंगी कार्यकर्ताओं ने उनकी किताबें भी पढ़ी थीं.
नगरपालिका कामगार संघ का निर्माण :
     लेखक के अनुसार, बाबासाहेब ने बम्बई में सफाई कर्मचारियों की दयनीय स्थिति को सुधारने में विशेष रूचि ली थी. इसी के परिणामस्वरूप 1936 में बम्बई नगरपालिका कामगार संघ अस्तित्व में आया था, जिसके प्रमुख स्वयं बाबासाहेब थे. उस काल में भंगी समुदाय के साथ सबसे ज्यादा तिरस्कार किया जाता था. बाबासाहेब ने उन्हें इस तिरस्कार के खिलाफ लड़ने और अपने अधिकारों के लिए संगठित किया. उन्होंने 4 जून 1943 को अपने आवास पर दिल्ली और बम्बई के भंगियों की एक संयुक्त सभा आयोजित की थी. उन्होंने उनको नगरपालिका कर्मचारियों की एक अखिल भारतीय यूनियन बनाने के लिए प्रेरित किया. यह सफाई कर्मियों के हित में पहली महत्वपूर्ण घटना थी. डा. आंबेडकर ने उनसे कहा कि जब तक आप अपनी खुद की यूनियन नहीं बनाओगे, तब तक भेदभाव के खिलाफ ठीक से नहीं लड़ पाओगे. इस प्रकार 1944 में दिल्ली में एक केन्द्रीय नगरपालिका कामगार यूनियन का निर्माण हुआ. इसके अध्यक्ष रमेश जाधव नियुक्त किए गए. यह पहली घटना थी, जिसने जन-आन्दोलन की नींव रखी. रमेश जाधव महाराष्ट्रियन वाल्मीकी थे, और नासिक में पी.डब्लू.डी. में ठेकेदार थे.
आंबेडकर और भंगियों का उत्थान : 
     प्रोफेसर श्यामलाल जी ने विभिन्न स्रोतों से देश में भंगियों की दयनीय स्थिति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि ब्रिटिश काल में भंगियों का उत्पीडन करने के मकसद से नगरपालिकाओं ने कड़े कानून बनाए गए थे. उनके अनुसार सफाई कर्मी का काम छोड़ना या काम पर न आना, अपराध माना जाता था. बम्बई नगरपालिका सेवा अधिनियम 1890, उत्तरप्रदेश नगरपालिका अधिनियम 1920, मद्रास नगरपालिका अधिनियम 1920, राजस्थान नगरपालिका अधिनियम 1923 और बंगाल नगरपालिका अधिनियम 1923 में सेवा से अनुपस्थित रहने पर सफाई कर्मियों के लिए पचास रुपये जुर्माना और एक महीने की जेल का प्राविधान था. इन कठोर प्राविधानों को डा. आंबेडकर ने ही अपने प्रयासों से खत्म कराया था. उन्होंने कोयला खदानों, मिलों, फेक्ट्रियों, कारखानों, छापाखानों, अस्पतालों और बंदरगाहों के ट्रस्टी अधिनियमों को, जो भंगियों के खिलाफ थे, अवैध घोषित कराया था. इसके लिए गरीब भंगियों ने न केवल प्रसन्नता व्यक्त की थी, बल्कि डा. आंबेडकर के प्रति कृतिज्ञता भी प्रकट की थी. [पृष्ठ 79-80]
गंदे पेशों से मुक्ति : 
     प्रोफेसर लिखते हैं, चूँकि सफाई और मैला उठाने का काम जाति से जुड़ गया था, इसलिए डा. आंबेडकर इस पक्ष में थे कि भंगी समुदाय यह गंदा पेशा छोड़ दे. वे सफाई कर्मियों से मुक्त भारत चाहते थे, इसलिए सफाई कर्मियों को दूसरे सम्मानित व्यवसाय अपनाने और व्यापार तथा अन्य उद्यमों में जाने के लिए निरंतर प्रोत्साहित करते थे. वे उनकी सामाजिक मुक्ति का एकमात्र आधार शिक्षा और रोजगार को मानते थे. वे यकीन के साथ कहते थे कि गंदे पेशों को छोड़े बिना वे असमानता और उत्पीडन से नहीं लड़ सकते. लेखक ने भगवानदास की किताब ‘सफाई कर्मचारी दिवस, 31 जुलाई’ के हवाले से लिखा है कि भगवान दास ने ‘आंबेडकर मिशन ऑफ़ इंडिया’ के पदाधिकारियों को बाबासाहेब के 1930 के ‘स्वच्छकार-मुक्त भारत आन्दोलन को सफल बनाने के लिए इन तीन कार्यों को पूरा करने की सलाह दी थी :
1.  सामाजिक स्तर को नीच बनाने वाले गंदे पेशों को अपने बच्चों को नहीं करने देना,
2.  उन लोगों को आर्थिक मदद देना, जो दूसरे सम्मानित व्यवसाय करना चाहते हैं, और
3.  अपने बच्चों को सफाई के गंदे पेशों में लगाने वाले मातापिताओं का सामाजिक बहिष्कार करना और उन पर जुर्माना डालना.
निस्संदेह, जब तक वाल्मीकि समुदाय अपनी दासता की बेड़ियों को स्वयं तोड़कर नहीं फेंकेगा, तब तक उसकी मुक्ति संभव नहीं है. स्वच्छकार-मुक्त भारत तभी हो सकता है, जब स्वच्छकार समाज इस पेशों को छोड़ेगा. यहाँ लेखक ने यह भी टिप्पणी की है कि श्रम मंत्री के रूप में बाबासाहेब ने नगरपालिकाओं के पुराने कानूनों को अनावश्यक मानते हुए नगरपालिकाओं में स्वच्छकारों के पदों पर सीधी भर्ती के लिए सरल और समान नियम बनवाए थे. नगरपालिकाओं में कर्मचारियों को विलम्ब से वेतन दिए जाने की बुरी व्यवस्था को भी, जो सफाई कर्मचारियों के लिए बेहद कष्टदायी थी, बाबासाहेब ने सुधारने और समय पर वेतन देने के सख्त निर्देश दिए थे.
कांग्रेस के कारनामे :
     प्रोफेसर श्याम लाल जी एक बहुत ही महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन करते हैं कि जिस दिल्ली नगरपालिका कामगार संघ की स्थापना बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने की थी, उनकी मृत्यु के बाद, कांग्रेस ने 1957 में उस संघ के लेटरहेड से संस्थापक के रूप में बाबासाहेब का नाम हटा दिया था. वह लिखते हैं कि यह केंद्र की कांग्रेस सरकार का सबसे गंदा कारनामा था. कांग्रेस के प्रभावशाली नेताओं ने अपने लोगों को सम्मेलनों और जनसभाओं में कांग्रेस की विचारधारा को अपनाने और आंबेडकर का खंडन करने को कहा. इस प्रकार, लेखक के अनुसार, भंगी एसोसिएशन गाँधी विचारधारा का केंद्र बन गई. इसका कारण उत्तर भारत के भंगियों में आंबेडकर के प्रति उत्साह और लगाव का अभाव था. यह अभाव क्यों था? इस सम्बन्ध में लेखक ने तीन महत्वपूर्ण कारणों को स्पष्ट किया है :
1.  गाँधी और उनके अनुयायियों ने हिन्दू धर्म के ढांचे में अधिक संतोषप्रद जीवन शैली और भारतीय दृष्टिकोण प्रस्तुत किया. यही वह चीज थी, जिसने भंगियों का बड़े पैमाने पर कांग्रेसीकरण करने का काम किया. इसमें बड़ी भूमिका, जैसा कि भगवानदास ने अनुभव किया था, गाँधी जी की थी, जिन्होंने इस समुदाय को आंबेडकर के प्रभाव में जाने से रोका था.
2.  भंगी समुदाय गाँधी और कांग्रेस की शाब्दिक सहानुभूति और उसके कागजी सुधारों से ज्यादा प्रभावित थे, जबकि वे अपने सामाजिक स्तर को सुधारने में रूचि नहीं रखते थे. इसने भंगियों को कांग्रेस का दास बना दिया.
3.  यह केवल गाँधी के प्रभाव का ही परिणाम था कि भंगियों की एक बड़ी संख्या कांग्रेस की अंधी समर्थक बन गई, और कुछ थोड़े से भंगी ही आंबेडकर के समर्थक बने. [पृष्ठ 82]
धर्मांतरण का प्रश्न :
     धर्मांतरण का विषय भी दलित मुक्ति से सीधे जुड़ा हुआ है. क्योंकि सम्मान के लिए धर्म-परिवर्तन की जरूरत केवल उन्हीं लोगों को थी, जो हिन्दूधर्म में पददलित और तिरस्कृत थे. वे अछूतों के सिवा और कौन हो सकते थे? डा. श्यामलाल लिखते हैं कि दलितों में धर्मांतरण का प्रश्न पहली बार 1935 में उठा था. इसके परिणामस्वरूप बारह अछूतों ने इस्लाम धर्म अपना लिया था, जिसने हिंदुत्व के साम्राज्य में हंगामा मचा दिया था. डा. आंबेडकर ने बड़ी आशा के साथ मन्दिर-प्रवेश आन्दोलन शुरू किया था, किन्तु सवर्ण हिन्दुओं के असहयोग के कारण वह सफल नहीं हुआ. लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बाबासाहेब का लक्ष्य विश्व के लोगों को, खासकर अंग्रेजों को दलित जातियों के साथ हिन्दुओं के अलगाव के यथार्थ को दिखाना था, जिसमें वे सफल हुए थे. उनका लक्ष्य दलितों के लिए मंदिरों के दरवाजे खुलवाना नहीं था, बल्कि हिन्दुओं को यह बताना था कि भारत में दलित वर्ग एक गैर-हिन्दू वर्ग है. इसलिए, 1935 के कामठा काण्ड से बाबासाहेब बहुत दुखी हुए थे, जिसमें अछूत बच्चों के स्कूल जाने पर हिन्दुओं ने पूरे गाँव में अछूतों को बेरहमी से पीटा था. इसकी निंदा के लिए 13 अक्टूबर 1935 को येवला में जो सभा हुई थी, उसमें दस हजार अछूतों ने भाग लिया था. इसी सभा में बाबासाहेब ने प्रतिज्ञा की थी कि वे दुर्भाग्य से हिन्दू अछूत घर में पैदा हुए हैं, जिसे रोकना उनके बस में नहीं था, पर यह उनके बस में है कि वे हिन्दू के रूप में मरेंगे नहीं. और सचमुच बाबासाहेब इस दुनिया से हिन्दू के रूप में विदा नहीं हुए थे.
      उन्होंने लिखा है कि धर्मांतरण ने दलितों के विकास में क्रांतिकारी भूमिका निभाई थी. इस सम्बन्ध में उन्होंने कश्मीर के एक भंगी युवक का जिक्र किया है, जिसके बाप-दादे मानव-मल उठाने का पुश्तैनी पेशा करते थे. जाहिर है कि उस युवक को भी यह गंदा काम करना पड़ा था. पर बाद में वह युवक ईसाई बनकर जॉर्ज कोर्निलियुस हो गया. ईसाई के रूप में उसकी उच्चतम शिक्षा हुई, जिसके फलस्वरूप उस समय की सबसे उच्च सिविल सेवा पास करके वह आईसीएस ऑफिसर बना. 1947 में विभाजन के बाद वह पाकिस्तान चला गया, और वहां हाईकोर्ट का जज नियुक्त हुआ.
इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी
     प्रोफ़ेसर श्यामलाल जी ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के सम्बन्ध में, जिसे बाबासाहेब ने 1936 में बनाया था, लिखा है कि भले ही इसका क्षेत्र सिर्फ बम्बई तक सीमित था, पर 1937 के विधानसभा चुनावों में उसने कांग्रेस को जबर्दस्त टक्कर दी थी. बाबासाहेब ने महार, मातंग, मांग और चमार समुदाय से 17 लोगों को टिकट दिया था. कांग्रेस ने उनके विरुद्ध चमार जाति के मशहूर क्रिकेटर बालू को टिकट दिया था. उस समय कांग्रेस ने दलितों के  राजनीतिक प्रतिनिधित्व के विरुद्ध बहुत ही गंदा नारा था— ‘असेम्बलियों में कौन जायेगा, भंगी, तेली और चमार.’ किन्तु इसके बावजूद इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के 12 लोग जीते थे, जिनमें बाबासाहेब के विरुद्ध बालू की करारी हार हुई थी.
उच्च शिक्षा के लिए विदेश में दलित :
     लेखक ने रेखांकित किया है कि श्रम मंत्री के रूप में बाबासाहेब ने 16 दलित विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजा था. वे चाहते थे कि दलित अधिक से अधिक शिक्षित हों, और अपना भविष्य स्वयं बनाएं. लेखक ने उन दो दलित विद्यार्थियों का उल्लेख किया है, जिन्होंने बाबासाहेब के प्रयासों से उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला था. उनमें एक यशवंत रॉय थे, जो पंजाब में भंगी जाति में पैदा हुए थे. उन्हें शिक्षा के लिए यूनाइटेड किंगडम (ब्रिटेन) भेजा गया था. वह ‘प्रोफेसर यशवंत रॉय’ के रूप में विख्यात हुए, जो बाद में पंजाब विधानसभा के लिए मनोनीत किए गए, और मंत्री बनाए गए थे. दूसरे विद्यार्थी चमार जाति    के कोलटा थे. उन्हें भी ब्रिटेन भेजा गया था. वह बाद में हरियाणा सरकार में शिक्षा निदेशक नियुक्त हुए थे. सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने चंडीगढ़ में ‘अम्बेडकर कालेज स्थापित किया था. पर कुछ कारणों से वह कुछ सालों के बाद ही बंद हो गया था.
      लेखक का यह कहना एक दम सही है कि दलित विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने का उद्देश्य उनमें बौद्धिक नेतृत्व उभारना था. वह लिखते हैं कि विदेश से लौटने के बाद ही उन लोगों को अन्य गरीब और असहाय लोगों की सहायता करने का अहसास हुआ. और उन्होंने डा. आंबेडकर के ‘शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो के नारे को मूर्त रूप देने का काम किया. डा. आंबेडकर ने यह नारा दलितों को आधुनिक शिक्षा और आर्थिक अवसरों तथा राजनीतिक शक्ति हासिल करने में उच्च जातीय हिन्दुओं की बराबरी करने के लिए दिया था. लेखक के अनुसार, डा. आंबेडकर के श्रम मंत्रालय में ब्रिगेडियर ए.डब्लू.एच. री और खान बहादुर मुश्ताक अहमद दो ऐसे अधिकारी थे, जिनके पास मंत्रालय में रिक्त पदों पर नियुक्तियां करने की शक्तियां थीं. उन्हीं के कारण शिमला कार्यालय में दलितों की नियुक्तियां हो पायीं थीं. इनमें अस्सिस्टेंट के रूप में भंगी समुदाय के कई युवकों की नियुक्तियां हुई थीं. 
आंबेडकर के विरुद्ध नारे :
     श्यामलाल जी ने लिखा है कि एक बार डा. आंबेडकर कानपुर गए, तो रेलवे स्टेशन पर बड़ी संख्या में भंगी प्रदर्शनकारियों ने पहुंचकर उनके विरुद्ध नारेबाजी की. उन्होंने डा. आंबेडकर पर आरोप लगाए कि उन्होंने सब कुछ महारों के लिए किया है, और सफाई कर्मचारियों के लिए कुछ नहीं किया है. डा. आंबेडकर को शीघ्र ही पता चल गया कि इसमें विरोधी दलों का हाथ है. अत: उन्होंने तुरंत प्रदर्शनकारी नेताओं को बातचीत के लिए बुलाया. वे उन्हें सच्चाई दिखाना चाहते थे. उन्होंने उनसे कहा कि वे उनके ट्रेन के केबिन-कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारियों के नाम और जाति नोट करके लायें. प्रदर्शनकारी नेता उनके केबिन में गए, और वहां काम करने वाले कर्मचारियों के नाम और जाति नोट करके लाये. उन्होंने देखा कि वहां 20 कर्मचारियों में 18 भंगी थे. सच्चाई जानने के बाद वे लज्जित हुए और उन्होंने बाबासाहेब के पैर छूकर  क्षमा मांगी. 
बौद्धधर्म के भंगी प्रचारक :
     प्रोफेसर श्यामलाल जी लिखते हैं कि जब 14 अक्टूबर 1956 को बाबासाहेब ने बौद्धधर्म की दीक्षा ली, तो राष्ट्रीय परिदृश्य में तीव्र परिवर्तन आया था. विभिन्न समुदायों में बौद्धधर्म का प्रसार करने के लिए अछूतों में प्रतिस्पर्धा पैदा हो गई थी. पंजाब, दिल्ली, राजस्थान और अन्य प्रदेशों में बौद्धधर्म का पुनर्जागरण आरम्भ हो गया था. पंजाब में आंबेडकर मिशन की इस कमान को एल. आर. बाली ने संभाली थी. उनके प्रभाव से पंजाब में बौद्धधर्म के अनेक प्रचारक हुए, जिनमें एक वाल्मीकि जाति में जन्मे विजय देसावर भी थे. विजय देसावर बाबासाहेब के मिशन से प्रेरणा लेकर बौद्ध बने, और उसके सक्रिय प्रचारक बने. उन्होंने लुधियाना में विशाल सम्मेलन किया, जिसमें हजारों दलितों ने भाग लिया था. उन्होंने बौद्धधर्म और अम्बेडकर मिशन पर जोशीला भाषण दिया, जिससे प्रभावित होकर बड़ी संख्या में दलितों ने बौद्धधर्म की दीक्षा ली. उन्होंने लिखा है कि बाबासाहेब की मृत्यु से पूर्व अक्टूबर में ही लगभग छह लाख दलितों ने बौद्धधर्म अपना लिया था. दलितों में धर्मांतरण की यह एक महान युगांतरकारी घटना थी.
      वह लिखते हैं कि राजस्थान में बौद्धधर्म में दलितों का पहला धर्मांतरण 1973 में हुआ था. सबसे पहले जिस व्यक्ति ने बौद्धधर्म ग्रहण किया था, वह भागर बस्ती के मेट्रिक पास वाल्मीकि भंवरलाल पंडित थे. उन्होंने 1973 में रामलीला मैदान, नई दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय बौद्ध महासम्मेलन में दीक्षा ली थी. यह सम्मेलन 11 मार्च को हुआ था, जिसमें तिब्बत के दलाई लामा के हाथों हजारों दलितों ने बौद्धधर्म ग्रहण किया था. श्यामलाल जी लिखते हैं कि इसके तुरंत बाद 1973 में ही अजमेर में राजस्थान बौद्ध सम्मेलन में तीन लोगों— हिम्मत राम जोधा (मेघवाल जाति), ओमप्रकाश जावा और चेनप्रसाद पंडित (दोनों वाल्मीकी) ने दीक्षा ली थी.
      वह आगे लिखते हैं कि 1948 और फिर 1974 में ईसाईयत में दलितों के धर्मांतरण की शुरूआत हुई थी. ईसाईयत और बौद्धधर्म दोनों में वाल्मीकियों ने उच्च जातीय हिन्दुओं के अत्याचारों से मुक्त होने की एक बड़ी आशा देखी थी.
पाकिस्तान से भारत में पलायन पर आंबेडकर :
     इस अध्याय के अंत में प्रोफेसर श्यामलाल जी ने पाकिस्तान से भंगियों के पलायन के महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा की है. वह लिखते हैं कि जब डा. आंबेडकर देश भर में भंगियों को उनके अधिकारों के लिए संगठित कर रहे थे, उसी समय वे अपनी जनसभाओं और सम्मेलनों में 1947 में भारत-विभाजन के बाद पाकिस्तान के भंगियों को भारत बुलाने के सवाल पर भी भंगियों के हमदर्द राष्ट्रीय नेताओं से बात कर रहे थे. उन्होंने इस सम्बन्ध में पंडित नेहरू से बात की थी, पर उसका कोई नतीजा नहीं निकला. लेखक ने राजेन्द्र मोहन भटनागर के हवाले से, जिन्होंने डा. अम्बेडकर का जीवन-परिचय लिखा था, डा. आंबेडकर के एक भाषण जिक्र किया है. राजेन्द्र मोहन भटनागर लिखते हैं— ’27 अक्टूबर 1951 को डा. आंबेडकर ने बूटा मंडी, जालन्धर में लाखों लोगों को संबोधित करते हुए कहा था कि पंडित नेहरू बराबर एक ही बात दोहराते हैं कि उनकी पार्टी कांग्रेस ने अछूतों के लिए बहुत काम किया है. उनका यह कहना गलत है. इसके लिए एक उदाहरण पर्याप्त है. पकिस्तान सरकार ने आदेश जारी करके अछूतों पर पाकिस्तान छोड़ने पर रोक लगा दी थी. अछूत पाकिस्तान नहीं छोड़ सकते थे. क्या अछूत हिन्दू नहीं हैं? अछूत चले गए, तो सफाई का काम कौन करेगा? उन्होंने पंडित नेहरू से इस सम्बन्ध में प्रार्थना की थी कि वे पाकिस्तान से बात करें. कई बार भारत ने पाकिस्तान से बात भी की थी, परन्तु उन्होंने यह मुद्दा उसके साथ नहीं उठाया. पकिस्तान अछूतों पर अमानुषिक अत्याचार कर रहा है. पर कांग्रेस चुप है, सरकार मौन है. यह कैसा सितम है?’ [पृष्ठ 90]
      अंत में श्यामलाल जी ने इस विषय पर गाँधी जी के प्रार्थना सभा में दिए गए प्रवचन का भी उल्लेख किया है, जिसमें उन्होंने सिर्फ पाकिस्तान में अछूतों को मुसलमान बनाए जाने की सम्भावना पर चिंता व्यक्त की है. श्यामलाल जी ने सही टिप्पणी की है कि गाँधी का प्रवचन निराशाजनक था. ‘भंगियों को उनसे यह आशा थी कि गाँधी जी पाकिस्तान के भंगियों का विषय उठाएंगे, और उनको भारत में लाने के लिए सरकार पर दबाव बनायेंगे. किन्तु उन्होंने इस सम्बन्ध में कोई राजनीतिक कोशिश नहीं की.’ [पृष्ठ 91]
(2 दिसम्बर 2017)
 
     
     




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