हमारे मिथक हमारी ऊर्जा
[कँवल भारती]
यह विडम्बना ही है कि अभी तक इस बात को
नहीं समझा जा रहा है कि आलोचना और विमर्श की दक्षिण और वाम धाराओं के अलावा कोई
तीसरी धारा भी है, जिसे बहुजन की धारा कह सकते हैं. वाम
धारा तो अत्याधुनिक धारा है, जबकि भौतिक
और अभौतिक दो धाराएं भारत में प्राचीन काल से रही हैं. इसे हम वैदिक और अवैदिक
चिन्तन धाराएं भी कह सकते हैं. इस दृष्टि से देखा जाये तो वाम धारा तीसरी धारा है.
परन्तु आज जिस तरह दक्षिण और वाम दो धाराएं सर्वमान्य बन गई हैं, उनके समानांतर बहुजन धारा तीसरी धारा बन गई है. यह
तीसरी धारा न धर्मविरोधी है, और न
धर्मभीरु है; न यह दक्षिण विरोधी है और न वाम
विरोधी है. इसलिए इस धारा को ठीक से न समझने के कारण ही वाम धारा के लोग, जो खुद बंगाल में दुर्गा पूजा में बढ़चढ़कर हिस्सा
लेते हैं, बहुजन मिथकों को न सिर्फ खारिज कर देते
हैं, बल्कि उसका उपहास भी उड़ाते हैं. इसके
विपरीत दक्षिण पंथ के हिन्दूवादी लोग बहुजन मिथकों से बौखला जाते हैं. यह कितना
दिलचस्प है कि बहुजन मिथकों का वाम चिंतक उपहास उड़ाते हैं, और हिन्दू चिंतक परेशान हो जाते हैं. पिछले साल जब बहुजन समाज ने
महिषासुर बलिदान दिवस मनाया था, तो
भारत की संसद में भी भूकम्प आ गया था. हिन्दुत्ववादियों का बहुजन मिथकों से
उत्तेजित होना अकारण नहीं है. वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि मिथकों में बहुजन नायक
ब्राह्मणवाद और वैदिक संस्कृति के विरोधी हैं. वे शूद्रों के विद्रोह की जमीन
तैयार करते हैं. इसलिए उन्हें अगर रोका न गया तो वे हिंदुत्व के लिए खतरा बन
जायेंगे.
‘रिडिल्स
इन हिन्दुइज्म’ में डा. आंबेडकर ने एक बड़ा
महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि क्यों वैदिक स्त्रियाँ ने एक भी युद्ध नहीं लड़ा? और क्यों सारे युद्ध पुराणों की स्त्रियों ने ही
लड़े? इसी में वे यह भी पूछते हैं कि
पुराणों ने उसी स्त्री को देवी का दर्जा क्यों दिया, जिसने असुरों का संहार किया? ये
प्रश्न एक बड़े संघर्ष को प्रमाणित करते हैं. अत: जो लोग यह कहते हैं कि मिथक केवल
कल्पनाएँ हैं, वास्तविक पात्र नहीं हैं, उनसे आंशिक सहमति है. वे वास्तविक पात्र नहीं
हैं, यह सच है. फिल्मों, उपन्यासों और कहानियों में भी पात्र वास्तविक
नहीं होते हैं, वहां भी पात्र गढ़े जाते हैं, परन्तु उनमें वर्णित घटनाएँ सत्य पर आधारित होती
हैं. क्या हम प्रेमचन्द की कहानियों में चित्रित यथार्थ को झुठला सकते हैं? इसलिए मिथक भले ही ऐतिहासिक नहीं हैं, पर उनमें इतिहास के यथार्थ की अनदेखी नहीं की जा
सकती. भारत में हिन्दू संस्कृति का आधार क्या है? हिन्दू तीज- त्यौहारों का आधार क्या है? ये सारी संस्कृति और तीज-त्यौहार मिथकों पर ही टिके हुए हैं. हम
मानते हैं कि महाभारत एक महाकाव्य है और उसमें वर्णित सारे पात्र अवास्तविक हैं.
हम यह भी मानते हैं कि उसके पात्रों के जन्मस्थान और घटना-स्थल भी निर्मित किए गए
हैं. पर हम इस सबको नकारकर भी पूरी हिन्दू संस्कृति को उखाड़ नहीं सकते हैं? किन्तु, यदि
हम इस कालखंड में से एकलव्य को निकाल कर,
द्रोपदी को निकाल कर व्यवस्था के प्रति उनके भीतर के विद्रोह को उभारते हैं, तो इससे हिंदुत्व की शक्तियां विचलित हो जाती
हैं. अगर हम रामायण से शम्बूक को निकालकर उसके अंदर के विद्रोह को उभारते हैं, तो शम्बूक उनके लिए मिथक हो जाता है, और उनकी भावनाएं आहत हो जाती हैं. अगर एकलव्य
मिथक हैं, शम्बूक मिथक हैं, तो क्या कृष्ण, द्रोणाचार्य और राम मिथक भी नहीं हैं? वे ऐतिहासिक और वास्तविक कैसे हो गए? एकलव्य और शम्बूक के विद्रोह महाभारत और रामायण में नहीं हैं, क्योंकि उनमें प्रतिपक्ष आया ही नहीं है. तब क्या
जनता को प्रतिपक्ष बताने की जरूरत नहीं है? क्या घटनाएँ
चुपचाप हो जाती हैं? क्या संघर्ष में दूसरा पक्ष समपर्ण
कर देता है— ‘कि मैं तुम्हारे हाथों अपमानित होने, अपना अंग भंग कराने और मरने को तैयार हूँ. आओ
मुझे मारो, तुम्हारे हाथों मरकर मुझे स्वर्ग
मिलेगा?’ क्या यह एक विजेता का पक्ष नहीं है? बहुजन नायकों का पक्ष उनमें नहींआया है. यह काम बहुजनों
को करना है कि वे अपने नायकों के पक्ष को सामने लायें. यह उन्हें करना ही होगा.
बहुजन नायक कायर नहीं थे, वे
समर्पण नहीं कर सकते थे, वे अपनी मृत्यु की याचना नहीं कर
सकते थे. उनके साथ धोखा, छल, अधर्म, अन्याय और अपराध हुआ है.
दो बातें विशेष ध्यान देने की हैं. एक यह
कि हिन्दू अपने मिथकों पर ज्यादा जोर क्यों देते हैं? जब वे कहते हैं कि प्लास्टिक सर्जरी भारत में ही पैदा हुई, जब वे कहते हैं कि विमान बनाने की तकनीक हमारे
वेदों में मौजूद है, जब वे कहते हैं कि राम के नाम में इतनी
महिमा है कि वानरों ने पत्थरों पर राम लिखकर समुद्र में डाले और वे तैरने लगे और इस
तरह एक विशाल पुल हनुमान जी ने बनाया, जब वे
कहते हैं कि उनके ऋषि-मुनि सर्वज्ञ थे, उन्हें
वर्तमान, भूत और भविष्य सब पता रहता था, तो इसके पीछे उनका लक्ष्य हिन्दुओं को ऊर्जावान
बनाने का होता है. उन्होंने मिथक के बल पर ही अयोध्या में रामलला के जन्म की कथा
गढ़ी, और इतना बड़ा मन्दिर आन्दोलन खड़ा
किया कि वे सत्ता में आ गये. वे समय-समय पर तमाम तरह के मिथक गढ़ते रहते हैं, कभी गणेश की प्रतिमा को दूध पिलवाते हैं, और रातोरात पूरा हिंदुत्व गणेश को दूध को पिलाने
के लिए लाइन में खड़ा हो जाता है. वे पागल नहीं हैं, जो दुर्गा और पद्मावती के मिथकों को जिन्दा रखने के लिए हिंसक
आन्दोलन खड़े करते हैं. वे इस तरह अपने विरोधियों—बहुजनों और मुस्लिमों के प्रति
अपनी नफरत को जिन्दा रखते हैं.
दूसरी जो बात बहुजनों को समझनी है, जिसे अक्सर दलित बुद्धिजीवी समझना नहीं चाहते, वह यह है कि भारत में पूरे दलित आन्दोलन ने अपनी ऊर्जा मिथकों से
ग्रहण की है. यह एक ऐसी सच्चाई है, जिसे
नकारना दलित विमर्श के उद्भव और इतिहास को नकारना है. पहले मैं बाबासाहेब डा.
आंबेडकर का संदर्भ देता हूँ. हिन्दू मिथकों को गढ़ने, उनके बल पर पूरे देश को हिंसा की आग में झोंकने का जो सबसे बड़ा कारखाना
है, वह नागपुर में है. इस कारखाने का
प्रमुख प्रतिवर्ष नागपुर के रामलीला मैदान में दशहरे के दिन हिन्दुओं को दिशानिर्देश
जारी करता है, सारे हिन्दू मिथकों में उनकी आस्था
को मजबूत करता है, और हिंदुत्व की रक्षा के लिए उन्हें
उतिष्ठित-जागृत करता है. बाबासाहेब ने बौद्धधर्म की दीक्षा के लिए नागपुर को ही
चुना, और दशहरे का ही दिन चुना. उन्होंने
इसे सम्राट अशोक के ‘धम्म-विजय’ से जोड़ा और ‘विजय
दशमी’ का नाम दिया. उन्होंने भारत में
बौद्धधर्म के पुनरुद्धार का प्रवर्तन ही नहीं किया, बल्कि नये बौद्धों को 22 प्रतिज्ञाएँ भी करायीं, जो हिन्दू मिथकों में उनकी आस्था को खत्म करती
हैं. यह तो बाबासाहेब के अंतिम समय की घटना है. लेकिन जब उन्होंने पिछली सदी के
तीसवें दशक में ‘डायरेक्ट एक्शन मूवमेंट’ की शुरुआत की, जिसमें महाद और नासिक के सत्याग्रह शामिल थे, तो, उन्होंने गीता को अपना आधार बनाया
था. उन्होंने कहा था कि जब अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि रणभूमि में मेरे सामने मेरे
ही भाई-बन्धु खड़े हैं, तो मैं इनसे कैसे लड़ सकता हूँ, तो कृष्ण ने कहा कि इन्हें इस दृष्टि से देखो कि
‘ये अन्यायी हैं, इन्होंने तुम्हारे अधिकारों को हड़पा है. न्याय
के लिए इनसे युद्ध करना जरूरी है.’
बाबासाहेब ने कहा कि ‘अछूतों को भी हिन्दुओं से लड़ना होगा, क्योंकि उन्होंने भी अछूतों के साथ अन्याय किया
है, उनके अधिकारों का दमन किया है.’ इस प्रकार बाबासाहेब ने हिन्दुओं के विरुद्ध
हिन्दू मिथक को ही अपना हथियार बनाया.
यहाँ महात्मा फुले की ‘गुलामगिरी’ को भी ध्यान में रखना जरूरी है, जिसमें उन्होंने मिथकों को ही हथियार बनाया है.
ब्राह्मणों ने अवतारवाद के जितने भी मिथक गढ़े थे, महात्मा फुले ने ‘गुलामगिरी’ में उन सबका वैज्ञानिक विश्लेषण किया है, जिसने बहुजन समाज को नये विमर्श की नई ऊर्जा दी
है. हालाँकि बाबासाहेब ने आर्य थियरी का खंडन किया है, पर सवाल यह है कि ब्राह्मणवाद तो उसी पर टिका है. उसी के बल पर
हिन्दू संस्कृति में ब्राह्मण सबका पूज्य और माईबाप बना हुआ है. इसलिए उसके
प्रतिरोध में ‘गुलामगिरी’ महत्वपूर्ण है.
हिंदी क्षेत्र में, ख़ास
तौर से उत्तरप्रदेश में दलित आन्दोलन को खड़ा करने वाले उद्भावकों में स्वामी
अछूतानन्द, चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु और ललई
सिंह सबसे प्रमुख थे. इनके द्वारा शम्बूक,
एकलव्य और नाग यज्ञ पर नाटक लिखे गये नाटकों को पढ़कर ही ब्राह्मणवाद के खिलाफ
दलितों में जागरण हुआ था. जिज्ञासु जी की किताबें— ‘ईश्वर और उनके गुड्डे’, ‘शिव तत्व प्रकाश’ तथा ‘रावण और उसकी लंका’ को पढ़कर ही मेरे जैसे व्यक्ति दलित लेखन में आए
थे. उस दौर के बहुजन लेखकों ने हिन्दू मिथकों का जिस तरह प्रतिपक्ष रखा था, और जिस तरह उन्हें बहुजन आन्दोलन का हथियार
बनाया था, हमने उसी से ऊर्जा ग्रहण की थी. उसी
ने हमें चिंतक और लेखक बनाया था. हम मार्क्स को पढ़कर लेखक नहीं बने थे, मार्क्स उस समय तक हम तक पहुंचे भी नहीं थे. जब
पहुंचे, तब भी वह हमारे लिए बहुत जटिल थे.
भला हो, राहुल सांकृत्यायन का, जिनकी एक किताब ‘भागो नहीं, बदलो’ उसी दौर में पढ़ने को मिली, जिसने
हमें वर्ग-संघर्ष से परिचित कराया. पर यह वह दौर था, जिसमें गरीबी नहीं,
बेइज्जती अखरती थी. हम गरीब होने की वजह से नहीं, बल्कि, दलित होने की वजह से पीड़ित थे. क्या
एकलव्य का अंगूठा उसकी गरीबी के कारण काटा गया था? क्या शम्बूक का सिर इसलिए काटा गया था कि वह गरीब था? क्या कर्ण का अपमान उसकी गरीबी की वजह से किया
गया था? इनमें से किसी का भी जवाब हाँ में
नहीं दिया जा सकता. इसलिए हिंदी पट्टी का सारा दलित आन्दोलन मिथकों के पुनर्पाठ से
पैदा हुआ था. हिंदुत्व के विरुद्ध हमें इसी को प्रतिरोध का हथियार बनाना होगा.
[23/1/2018]
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