उत्तर प्रदेश के आंबेडकर छात्रावास
(कँवल भारती)
हिन्दू समाज की
अस्पृश्यता की वजह से गांवों से शहरों में पढ़ने आने वाले दलित को किराये पर कमरा न
मिलने की समस्या को हल करने के लिए आठवें दशक में उत्तर प्रदेश सरकार ने दलितों के
लिए छात्रावासों का निर्माण कराया था. ये छात्रावास डा. अम्बेडकर छात्रावास कहलाते
हैं. मैं 1983 से 2013 तक पांच अम्बेडकर छात्रावासों में अधीक्षक रहा. चूँकि, मेरी
पैदाईश और शिक्षा-दीक्षा सब शहर में हुई थी, इसलिए गाँव-देहात के दलितों की
समस्याओं का अनुभव करने का मुझे इससे पहले कभी अवसर नहीं मिला था. मैंने पहली दफा इन
छात्रावासों में रहकर ही गाँवों में दलितों के जीवन की व्यथा-कथा को जाना. जिन
भारतीय गांवों को डा. आंबेडकर ने दलितों के लिए घेटो कहा है, उनकी कठोर वास्तविकता
का अहसास इन छात्रावासों के छात्रों ने ही मुझे कराया.
पहली तैनाती के
तौर पर, मैंने 7 मई 1983 को राजकीय अनुसूचित जाति छात्रावास (तब यही नाम हुआ करता
था), प्रतापगढ़ में ज्वाइन किया. जिला हरिजन तथा समाज कल्याण अधिकारी (तब यही नाम
हुआ करता था) प्रतापगढ़ के कार्यालय में ज्वाइन करने के बाद, पता चला कि छात्रावास शहर
में न होकर, शहर से बीस किलोमीटर दूर, लालगंज अझारा में है, और मुझे वहीँ जाकर
रहना होगा. मैं ज्वाइन करने के बाद रोडवेज की बस से, लालगंज अझारा चला गया. वहाँ
उतर कर देखा, तो दिमाग भन्ना गया. जिसने कभी गांव न देखा हो, वह पहली बार ऐसे कसबे
में पैर रख रहा था, जहाँ न शहर जैसा बाज़ार था और न शहर जैसी सड़कें थी. मुझे अपनी
नानी का गाँव याद आ गया, जहां मैं बचपन में गया था, होश संभालने के बाद कभी नहीं
गया. यहाँ लालगंज अझारा में एक इंटर कालेज था, जिसका नाम ‘राम अंझोर मिश्र इंटर
कालेज’. शायद इसी नाम से डिग्री कालेज भी था. पता चला कि यह कालेज यहाँ के दबंग और
प्रभावशाली विधायक राम अंझोर मिश्र के नाम से है, या उन्हीं का बनाया हुआ है. उन्हीं
की जमीन पर आंबेडकर छात्रावास बनाया गया था, जिसका भवन दो मंजिला था. उसकी चारदीवारी
नही बनाई गई थी. कहा जाता है कि इंजीनियरों को चारदीवारी बनाने से रोक दिया गया
था. उसका कारण यह था कि वह मैदान में विधायक जी के जानवर चरा करते थे. मैं भी पहले
दिन से ही उस मैदान में गायों और भैसों को ही चरते हुए देख रहा था. छात्रावास तक
जाने के लिए भी अलग से कोई रोड नहीं बनाया गया था, मैदान से होकर ही छात्रावास पहुंचा
जाता था. वहाँ गेट के बाहर एक हैण्डपम्प लगा हुआ था, जिसके कारण उसके आसपास की
जमीन दलदली हो गई थी, क्योंकि हैण्डपम्प के पानी के निकास के लिए कोई नाली नहीं बनाई
गई थी. मुझे बताया गया कि उस कसबे का वह पहला भवन था, जिसकी छत पर लिंटर डाला गया था.
वास्तव में छतों पर लिंटर डालने की शुरुआत उस समय तक शहरों में भी नहीं हुई थी. भवन में ऑफिस और
स्टोर को छोड़कर आठ कमरे थे, चार नीचे और चार ऊपर. शौचालय और स्नानागार भी हर मंजिल
पर अलग-अलग थे. प्रत्येक कमरे में छह छात्रों के रहने की व्यस्था थी. इस प्रकार उस
आंबेडकर छात्रावास की आवासीय क्षमता 48 छात्रों की थी. मेस के लिए रसोई और भोजनालय
कक्ष अलग से बने हुए थे. लेकिन अधीक्षक के रहने के लिए उसमें कोई आवास नहीं था. इसलिए
सबसे बड़ी समस्या मेरे लिए यही थी कि मैं रहूँ कहाँ? पर मैंने गाँव में मकान ढूँढने
की कोशिश बिलकुल नहीं की और मैंने भोजनालय कक्ष में ही, क्योंकि मेस नहीं चलता था,
अपना सामान जमा लिया. दो कर्मचारी मिले थे, एक चपरासी और दूसरा चौकीदार, जो क्रमशः
दलित और पिछड़ी जाति से थे. चौकीदार सुबह की चाय और दोनों वक्त का खाना बना देता
था. यह एक बड़ी सुविधा थी, जिसके सहारे मैं रह सकता था. छात्रावास में हर कमरे में
पंखे और बल्ब लगे हुए थे, भवन के बाहर भी बल्ब लगे हुए थे, पर बिजली का कनेक्शन न
होने के कारण वे सब शोपीस बने हुए थे. ऐसा नहीं था कि लालगंज अझारा में बिजली नहीं
थी, वहाँ बिजली भी थी, और उप-बिजली घर भी था, पर समाज कल्याण विभाग ने छात्रावास
के लिए बिजली का कनेक्शन नहीं लिया था. शायद यह सोच रही हो कि दलित हैं, उनके घरों
में कौन बिजली है, जो उन्हें यहाँ बिजली चाहिए. खैर, शाम होते ही घना अन्धकार पूरे
भवन को अपने आगोश में ले लेता था. कमरों में लड़के मिटटी के तेल की ढिबरी और लालटेन
जलाकर रौशनी कर लेते थे. मैंने भी एक लेम्प खरीद लिया था. रात में मैं वही लेम्प जलाकर
खाना खाता, लिखता पढ़ता और आठ बजे तक मच्छरदानी लगाकर सो जाता था.
अचानक आधी रात
के बाद मेरी नींद उचटने लगी. पहले दिन से ही मुझे लगा कि कोई देर रात को गेट बजाकर
दरवाजा खुलवाता था. वह अंदर आता था. और सुबह तड़के ही चला जाता था. यह कौन था या कौन
थी, यह मेरे लिए रहस्य बन गया था. दबंगों का इलाका था, इसलिए भयभीत भी था. कुछ दिन
तक मैंने ध्यान नहीं दिया. पर एक दिन मैंने चौकीदार से पूछा, ‘यह देर रात को तुम
किसके लिए गेट खोलते हो? कुछ बताओगे?’ वह कुछ नही बोला, मौन खड़ा रहा. मैंने उसे
समझाया, ‘देखो, खामोश रहने से कोई फायदा नहीं है. मुझे भी तो पता रहना चाहिए कि
छात्रावास में क्या हो रहा है? अगर कुछ गलत-सलत हो रहा है, और कोई घटना घट गयी, तो
जवाब तो मुझे ही देना होगा. अगर नहीं बताओगे, तो हम अपना बचाव कैसे करेंगे?’ काफी
जोर देने पर आखिर उसने हकीकत बयान की. उसका बयान सुनकर मैंने पूछा, ‘वह रात में
आता है, तो दिन में कहाँ रहता है?’ चौकीदार बोला, यह नहीं पता. पर वह कभी-कभी कई-कई
दिन के बाद भी आता है.’ मैंने कहा, ‘ठीक है.’ अपना ख्याल रखना, साथ में मेरा भी.’
वह एक 24-25
साल का नौजवान था, बहुत ही खूबसूरत और आकर्षक व्यक्तित्व वाला. वह उस इलाके के एक
दबंग बाहुबली का संबंधी था, और खुद भी उसी रास्ते पर चल रहा था. इलाके में उसका
इतना खौफ था कि पुलिस भी डरती थी. आफिस या अस्पताल में अगर कोई उसका नाम ले देता,
तो अधिकारी या डाक्टर की क्या मजाल, जो उसका काम न करे. क़ानून-व्यवस्था पर सवाल
खड़े करने का दौर अभी दूर था. टेलीविजन आया नहीं था, और जुल्म के खिलाफ मजलूम की
आवाज थाने तक पहुँचने से पहले ही दबा देने का वह दौर भी था और इलाका भी. ऐसी
स्थिति में मुझ नाचीज की क्या हस्ती थी, जो उससे टकराता.
एक दिन मैं
छात्रावास में ही सख्त बीमार पड़ गया. मच्छरदानी में सोने के बावजूद मलेरिया ने
मुझे बुरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया था. मैं उन दिनों ‘धम्मचक्क पवत्तन सुत्त’
की टीका लिख रहा था. 9 दिसंबर 1983 की रात बारह बजे तक ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ पर कुछ
पेज लिखकर सोया था. उसके बाद, दूसरे दिन से मुझे जाड़ा-बुखार हो गया, और 11 दिसम्बर
को जब मैं तेज ज्वर में बेहोश सा पड़ा था, पता नहीं कैसे, मुझे डिस्पेंसरी ले जाया
गया. वहाँ बोतल चढ़ाई गयी, ब्लड टेस्ट हुआ और दवाईयां दी गयीं. मैंने देखा कि
डिस्पेंसरी में मेरे बेड के आस-पास चपरासी-चौकीदार और कुछ छात्रों के अलावा एक
खूबसूरत नौजवान और उसके कुछ साथी भी खड़े हुए थे. वे मेरे लिए अपरिचित थे. डाक्टर
उससे डरे हुए से लग रहे थे और उसके साथ बड़ी इज्जत से पेश आ रहे थे. अब मैं सब समझ
गया था कि हो न हो, यह वही नौजवान है, जो देर रात में छात्रावास में आता है. और जिसके
बारे में चौकीदार ने बताया था. उस दिन अगर उस नौजवान ने मुझे डिस्पेंसरी ले जाने
का इंतजाम नहीं किया होता, तो मेरी जान भी जा सकती थी. उसके बाद से तो उस नौजवान के
लिए मेरे दिल में इज्जत बढ़ गई. फिर तो उससे मेरी कई मुलाकातें हुईं. वह मन का भी
बहुत खूबसूरत था. वह मुझे जब भी मिलता, बहुत इज्जत से बात करता था. एक दिन मैं
मुख्यालय जाने के लिए बस की प्रतीक्षा में सड़क पर खड़ा था कि अचानक वह प्रकट हो
गया, बोला, ‘अरे गुरु जी, कहाँ जा रहे हैं.’ वह मुझे गुरूजी कहता था. मैंने कहा,
प्रतापगढ़ जाना है, बस का इंतज़ार कर रहा हूँ.’ यह सुनते ही उसने तुरंत एक जीप को
हाथ देकर रोका, और मुझे प्रतापगढ़ भिजवाया. वह जीप वाला भी बड़े आदर से मुझे
मुख्यालय तक छोड़ कर आया. मैंने गरीबों की मदद करने वाले डाकुओं दरियादिली की
कहानियां बहुत सुनी और पढ़ी हैं. पर एक कथित अपराधी की दरियादिली और शिष्टता की
स्व-अनुभूति का यह मेरा पहला अवसर था, (और अंतिम भी.)
विधायक रामअंजोर
मिश्र ने छात्रावास के लिए अपनी जमीन देकर अपनी उदार छवि बनाने की कोशिश की थी.
किन्तु वह कितने दलित-हितैषी थे, इसका पता मुझे छात्रावास में रहकर ही चला. छात्रावास
में छात्रों के प्रवेश की कार्यवाही मेरे जाने से पहले ही समाजकल्याण अधिकारी
द्वारा की जा चुकी थी. उस सूची में दलित जातियों के छात्र आठ-दस ही थे, शेष में
कुछ ओबीसी के और कुछ लड़के सवर्ण जातियों के थे. हालाँकि, गैर-दलित जातियों के
छात्रों का प्रवेश नियम-विरुद्ध था, पर, फिर भी मैं परस्पर प्रेम बढ़ने की दृष्टि
से दलित, ओबीसी और सवर्ण छात्रों के साथ-साथ रहने के पक्ष में था. लेकिन यह प्रयोग
कभी सफल नहीं हुआ. ऊँचनीच की मानसिकता से न ओबीसी बाहर निकला और न सवर्ण.
छात्रावास में दलित छात्र बहुत कम संख्या में तो थे ही, वे लगातार रहते भी बहुत कम
थे. दलित छात्रों में एक धोबी जाति का छात्र था, जिसकी उपस्थिति भी कम रहती थी. पर जब
वह होस्टल में होता था, तो उसके चेहरे पर उदासी छायी रहती थी. एक दिन मैंने उसे अपने
ऑफिस में बुलाकर पूछा, तुम इतने दिन
कहाँ गायब रहते हो? अगर घर पर रहते हो, तो फिर एडमिशन क्यों लिया है?’ पहले तो वह थोड़ा
घबराया. फिर अपनापन जताते हुए जब उससे मैंने दुबारा पूछा, तो उसने जो बताया, उसने
मुझे विचलित कर दिया था. उसने कहा, ‘मैं दिन में बाऊ साहेब के जानवर चराता हूँ, और
शाम में गाँव में माँ के साथ गुहार पर जाता हूँ.’
मैंने पूछा,
‘कौन बाऊ?’
उसने जवाब
दिया, ‘रामअंजोर मिश्र.’
‘और यह गुहार
क्या है?’ मैंने कहा.
उसने नीचे सिर
करके कहा, ‘रोटी के लिए आवाज लगते हैं.’
‘रोटी के लिए
आवाज !! क्या मतलब? क्यों लगाते हो आवाज? क्या तुम्हारे घर में रोटी नहीं बनती
है?’ मैंने पूछा.
इसके जवाब में
उसने बहुत सारी बातें बताई थीं, जो अब याद भी नहीं हैं. पर सारांश यह था कि उसका
समुदाय गांव भर के कपड़े धोता था. और मेहनताने में उन्हें कुछ फसली मिलती थी. बाकी
दिनों में वे लोग घर-घर जाकर रोटी मांगते थे. इसी को वे गुहार कहते थे. मैंने
पूछा, ‘गुहार में क्या बोलते हो?’
‘माई रोटी
दिहा’, उसने बताया. यह गुहार वे समवेत स्वर में रुदन की लय में लगाते थे, मेरे लिए
यह बहुत ही मार्मिक और उद्वेलित कर देने वाला अनुभव था, हालांकि, मैं अपने शहर में
मोहल्ले में मेहतरों को रोटी मांगते देख चुका था, पर वे रोटी के साथ पैसे भी लेते
थे, और न देने पर लड़ते-झगड़ते भी थे. मैंने नोट किया कि जिस वक्त वह छात्र मुझे यह
सब बता रहा था, उसके चेहरे पर कोई भी आत्मग्लानि का भाव मैं नहीं देख रहा था, जबकि
मुझे उसकी बातें विचलित कर गयीं थीं. शायद यह उनकी मानसिकता बन गयी थी--- ऐसी
मानसिकता, जिसका निर्माण उनमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी हुआ था. इससे मुक्ति का रास्ता शिक्षा
के दरवाजे से ही जाता था. यह दरवाजा उनके लिए लोकतंत्र ने खोल तो दिया था, पर गाँवों
में उस दरवाजे को बंद करने वाली शक्तियां भी कम नहीं थीं. इसका सबसे बड़ा हथियार था
दलितों की आर्थिक नाकेबंदी, जो अप्रत्यक्ष रूप से उनका सामाजिक बहिष्कार था.
गाँवों का इतिहास गवाह है कि जिन लोगों ने भी इस नाकेबंदी को तोड़ा, या तोड़ने का
साहस किया, तो उसकी उन्होंने प्रत्यक्ष सामाजिक बहिष्कार के रूप में, तो कहीं,
हत्या के दंड से कीमत भी चुकानी पड़ी. लेकिन यह रामअंजोर मिश्र की दलितों पर अनुकम्पा
थी कि कम-से-कम उनके कालेज में दलित छात्रों का प्रवेश तो था.
2
मेरी दूसरी
तैनाती मार्च 1987 में आंबेडकर छात्रावास ललितपुर में हुई. यह छात्रावास वर्णी कालेज
से कुछ ही फर्लांग की दूरी पर है. जब मैं ललितपुर जा रहा था, तो लखनऊ में राजवैद्य माताप्रसाद सागर ने मुझे एक कहाबत सुनाई—‘झाँसी गले की फांसी दतिया गले का हार, ललितपुर न छोड़ना जब तक मिले उधार.’ खैर, यह हंसी की बात
थी. पर ललितपुर में रहने के बाद उधार की कुछ हकीकत भी सामने आई. झाँसी और दतिया के
बारे में तो नहीं पता, पर ललितपुर के
बारे में कहाबत गलत नहीं थी. वह जैन साहूकारों का इलाका था/है, जो किसानों को उधार देकर उनसे मनचाहा ब्याज और फसल वसूल करते थे.
उधारी के एवज में उनके पास किसानों की जमीनें बंधक रहती थीं. किसान सिर्फ बीज और
खाद के लिए ही नहीं, बल्कि, शादी-ब्याह और हारी-बीमारी के लिए भी उनसे उधार लेते थे. मौसम की
मार किसान पर पड़ती थी, साहूकारों पर
नहीं.
छात्रावास का भवन
जिस जगह बनाया गया था, वहाँ काछियों की
बस्ती थी. उस बस्ती के लगभग सभी घर कच्चे थे, और उनमें रहने वाले मेहनत-मजदूरी करने वाले गरीब लोग थे.
बाउंड्रीवाल इस छात्रावास भवन की भी नहीं बनी थी. कारण, उसकी जमीन के एक हिस्से पर मन्दिर का विवाद चल रहा था, और उस पर डिस्ट्रिक्ट कोर्ट का स्टे था, जिसके कारण भी बाउंड्रीवाल नहीं बनने दी गयी थी. बाउंड्रीवाल न
होने से छात्रावास परिसर में न केवल पालतू जानवर और आवारा कुत्ते डेरा डाले रहते
थे, बल्कि सुबह के समय में वह आसपास के
लोग-लुगाइयों का सुलभ शौचालय भी बन जाता था. काछी औरतें उसी परिसर में गोबर का ढेर
लगातीं, और कंडे पाथती थीं. बरसात में वह
ढेर बदबू फैलाता था, क्योंकि बरसात
में कंडे नहीं पाथे जाते थे. पर इससे भी सबसे ज्यादा परेशानी थी, अराजक तत्वों का रातबिरात बेरोकटोक छात्रावास में घुसना. इसने मेरी
नाक में दम कर रक्खा था. शहर के एक नामी-गिरामी दबंग सांसद (सुजानसिंह बुंदेला) का
दबंग रिश्तेदार लड़का (कोई राजा) कभी भी चार-छह लौंडों के साथ आ धमकता और किसी भी
कमरे का दरवाजा खुलवाकर छात्रों को बाहर निकाल देता और अपने साथियों संग अंदर
घुसकर दरवाजा बंद कर लेता था. जो छात्र कमरे से निकलने में नानुकुर करते, उनके गालों पर वह थप्पड़ जड़ देता था. इस वजह से उससे टकराने की
हिम्मत किसी में नहीं थी. वे सब घंटा-दो घंटा अंदर रहते थे, शायद नशा-पानी करते थे. पर जब तक भीतर रहते, भयभीत छात्र या तो अपने साथियों के कमरे में जाकर बैठ जाते थे, या बाहर निकल जाते थे. वहाँ चौकीदार था नन्दलाल, दुबला-पतला, और दब्बू इतना कि राजा के नाम से ही उसकी घिग्गी बंध जाती थी. सो, उससे रात में अजनबियों के लिए मेन गेट न खोलने की उम्मीद भी नहीं
की जा सकती थी. चपरासी बलवान सिंह यादव था. उसके पिता डीएम के यहाँ अर्दली थे. एक
बार उनकी मदद से डीएम साहब से भी इस बाबत बात की थी, पर कोई फायदा नहीं हुआ था. बलवान ने मुझे सलाह दी कि राजा से कुछ
भी कहना ठीक नहीं होगा. वह बहुत ही बदतमीज है. आप पर हाथ छोड़ सकता है. उसके
रिश्तेदार (शायद मामा) सांसद की धाक थी. सरकारी ठेकों में उनके खिलाफ कोई भी टेंडर
नहीं डाल सकता था, क्योंकि वहाँ वह
अपने चार-पांच सौ हथियार बंद आदमियों के साथ मौजूद रहते थे. उनके खिलाफ जो भी
टेंडर डालने की हिम्मत करता, वह सहीसलामत नहीं रहता था, कोई-कोई तो ऊपर ही पहुँच जाता था. उस समय उनके खिलाफ एक विधायक
देवेन्द्र सिंह जंगी ऐलान का मोर्चा खोले हुए थे. लेकिन वह अकेले ही चट्टान से
टकराना था.
मैंने बलवान से
कहा, ‘तुम तो डरा रहे हो.’ वह बोला, ‘साहब, आपके लाने हम जो
के रए कि नेता जी से बात क्यों न करके देखें. शायद बात बन जाये.’
मुझे यह सुझाव
पसंद आया. एक दिन सुबह हम माननीय सांसद जी के दरबार में पहुँच गए. वह जहां रहते थे, उसे उनकी गढ़ी कहा जाता था. शायद वह गढ़ी स्टेशन के आसपास कहीं थी.
मैं अपने जीवन में पहली बार इस तरह की गढ़ी को देख रहा था. ऐसी खौफनाक जगहें मैं
देखना भी पसंद नहीं करता. पर, वहाँ हमने जिस दयनीयता और दीनता के साथ बात की, वह तो और भी मेरे स्वभाव के खिलाफ थी. पर क्या करते? थोड़ी जी-हजूरी करके शांति मिलने की मजबूरी थी. सांसद जी से
ज्यादातर बात बलवान ने ही की थी. मैंने सिर्फ इतना कहा था, ‘आप ही के भरोसे आये हैं, गरीब बच्चे हैं. आपकी छत्रछाया रहेगी, तो कुछ पढ़ लेंगे.’ हम पूरी बात बताकर चले आये थे. वे हमसे बहुत अच्छे से पेश आये थे. ‘ठीक है, वह अब वहाँ नहीं जायेगा, आप जाएँ’, यह उनका आश्वासन था.
तीर सही जगह लग
गया था. सांप मर गया था और लाठी भी नहीं टूटी थी. वह गुंडा फिर कभी छात्रावास में
नहीं आया. पर रात-बिरात में वह कभी भी अपने लौंडों के साथ गालियां बकते हुए, और पत्थर फेंकते हुए निकल जाता था. उनके पत्थरों से कई कमरों की
खिड़कियों के शीशे टूट गए थे. एक पत्थर हमारे कमरे में भी आया था, जिससे हम बालबाल बच गए थे, क्योंकि खिड़की खुली हुई थी. वे अपनी दहशत कायम रखने के लिए ये सब
करते थे.
ललितपुर
छात्रावास में दो दलित जातियां वर्चस्व में थीं, और यही दो जातियां शिक्षा और विकास में भी एक-दूसरे से स्पर्धा में
थीं. इनमें एक अहिरवार (चमार) थी, और दूसरी रजक (धोबी). उस काल में रजक समुदाय में सामाजिक गतिशीलता
ज्यादा थी, जबकि अहिरवारों में कम थी. आंबेडकर
के प्रति भी अहिरवारों का लगाव था, रजक का नहीं. संयोग से मेरा उठना-बैठना भी काफी हद तक रजक लोगों के
साथ ही था, अहिरवारों के साथ कम था. अहिरवार
समुदाय में सोशल मूवमेंट शुरु तो हो गया था, पर उसमें तेजी नहीं आई थी. छात्रों पर भी किसी सोशल मूवमेंट का
प्रभाव नहीं था. मुझे याद है, 1988 में ललितपुर में आंबेडकर जयंती के कार्यक्रम में मुश्किल से तीस
लोग मौजूद थे, जबकि मैदान में दो सौ कुर्सियां
डाली गयी थीं.
मैंने छात्रावास
में रहकर एक काम यह किया कि छात्रों के बीच सामाजिक विषयों पर विमर्श के कुछ
कार्यक्रम आयोजित किये. दो कार्यक्रमों की मुझे याद आ रही है. एक रामशरण जाटव के
ललितपुर आगमन पर उनके स्वागत में रखा गया था, जो 5 दिसम्बर 1987 को हुआ था. दूसरा कार्यक्रम 5 अप्रेल 1988 को बाबू जगजीवन राम के जन्मदिवस पर एक विचारगोष्ठी के रूप में किया
गया था. इन दोनों कार्यक्रमों में मैंने मुख्य अतिथि के रूप में उस समय के चर्चित
रजक समुदाय के नेता हरी किशन बाबा को बुलाया था, जिनकी सनीचर चौराहे पर ‘जैमिनी’ नाम से फोटो स्टुडियो की दुकान थी. उनकी दुकान सामाजिक गतिविधियों
का केन्द्र ज्यादा थी. वह उस समय धोबी समुदाय के उभरते हुए नेता थे, जो अनेक राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों से जुड़े हुए थे. उन दिनों
उन्होंने धोबियों के बीच गंदे कपड़े न धोने और बच्चों को पढ़ाने-लिखाने का अभियान
चलाया हुआ था. ऐसे कई कार्यक्रमों में, जो गांवों में होते थे, मुझे भी वह अपने साथ ले जाते थे. ललितपुर से आने के बाद फिर उनसे
कभी मिलना नहीं हो सका था. पर उनके साथ बिताया गया समय आज भी मेरी स्मृतियों में
जीवित हैं. अभी मेरे फेसबुक मित्र राकेश नारायण द्वेदी से जानकारी मिली है कि उनका
अभी हाल ही में दो साल पहले देहांत हो गया है.
इनके अलावा
छात्रावास में और भी कुछ कार्यक्रम किये गए थे, कुछ अन्य संगठनों की बैठकें भी छात्रावास में हुआ करती थी. इन सबने
छात्रों में सामाजिक गतिशीलता पैदा करने में बड़ी भूमिका निभाई थी. असल में, नब्बे के उस दशक में ललितपुर जैसे शहर में सामंतशाही इस कदर हाबी
थी कि गरीब दलितों के मनों में विद्रोह के बीज भीतर ही भीतर न केवल जम रहे थे, बल्कि उनमें चुपके-चुपके अंकुर भी फूट रहे थे. इसी का नतीजा था कि
पीड़ित गरीबों ने शिक्षा के महत्व को समझ लिया था. यह 1988 की ही बात है, राजकीय डिग्री कालेज के दलित छात्र लक्ष्मीनारायण अहिरवार ने छात्र
संघ के अध्यक्ष पद का चुनाव जीता था. डिग्री कालेज में किसी दलित का अध्यक्ष बनना
ललितपुर के इतिहास की पहली घटना थी. इस घटना ने समाज में हो रहे परिवर्तन का एहसास
करा दिया था, परिणामत: ललितपुर के दलित समाज ने
जश्न मनाया था और सवर्ण वर्गों में भूचाल आ गया था. बड़ा खून-खराबा हुआ था. सैकड़ों
की संख्या में हथियारों से लैस सवर्णों ने लक्ष्मीनारायण अहिरवार के घर और बस्ती
पर धावा बोल दिया था. लक्ष्मीनारायण अहिरवार और उसके परिवार को इस हमले की खबर लग
गयी थी, इसलिए वे भूमिगत हो गए थे. पर बस्ती
में सवर्णों के तांडव ने कईयों को मारा और कई घरों में तोड़फोड़ कर दी थी.
यह वह दौर था, जब दलित छात्र अपने गांव जाते थे, तो साईकिल पर चढ़ कर गांव से नहीं गुजर सकते थे. वे गांव के मुहाने
पर ही साईकिल से उतर जाते थे, और उसे हाथ में थामकर पैदल ही घर तक जाते थे. गांवों में वह सारा
हिन्दू कोड लागू था, जिसका जिक्र डा.
अम्बेडकर ने अपनी रचनाओं में किया है. उनसे कभी भी जबरदस्ती बेगार कराई जा सकती थी, सवर्णों के सामने वे चारपाई पर बैठ नहीं सकते थे, और साफ़ कपड़े पहिन नहीं सकते थे. इसलिए शहर में जब दलित छात्र अच्छे
कपड़े पहिनकर निकलते थे, तो सवर्णों के लिए वह बेहद अपमानजनक होता था, और अक्सर वे उनके कोपभाजन बनते थे. ललितपुर में एक खास बात मैंने
यह देखी कि दलित-पिछड़ी जातियों की स्त्रियां मर्दों की तरह पीछे को लॉन्ग लगाकर
साड़ी पहिनती थीं, जिसे किसी भी तरह
से साड़ी नहीं कहा जा सकता था. क्योंकि साड़ी के साथ नीचे पेटीकोट पहिना जाता है, जबकि वे स्त्रियां बिना पेटीकोट के ही साड़ी पहिनती थीं, और उनकी आधी टांगें नंगी दिखाई देती थी. अपवाद छोड़ दें, तो ऐसी सभी स्त्रियों के चेहरे गुदे हुए होते थे, उनके पैरों में कांसी के मोटे खडुए होते थे. इस रिवाज का कितनी
सख्ती से पालन किया जाता था, इसकी एक घटना मुझे एक छात्र ने सुनाई. एक कृषि अधिकारी थे. जो उसी
बुन्देलखंड क्षेत्र के थे. वह अपनी शिक्षित पत्नी को जब अपने गांव लेकर जाते थे, तो रिवाज का पालन करते हुए, उसे बिना पेटीकोट के, लॉन्ग लगाकर साड़ी में ही ले जाते थे. इससे समझा जा सकता है कि
दलित-पिछड़े समाजों के लिए सामंतशाही का कोड कितना मायने रखता था.
फिर भी, लालगंज अझारा जैसी स्थिति यहाँ नहीं थी. ललितपुर के दलित छात्रों
में मुर्दानगी नहीं थी, जीवन्तता थी. वे रात को खाना खा चुकने के बाद मस्त लोकगीतों की
स्वरलहरियों छेड़ते थे और गाते-बजाते थे. उनके कमरे में एक ढोलक भी रहती थी, और हारमोनियम भी कहीं से ले आते थे. लोकरंग को देखने-सुनने का शौक
मुझे बचपन से रहा है. अत: मैं भी उनके बीच बैठ जाता था. पर मेरी उपस्थिति में
उन्हें संकोच होता था, क्योंकि इससे वे
अपने मनोरंजन में पूरी आज़ादी नहीं ले पाते थे. वहाँ रहकर मैंने देखा कि बुन्देली
लोकरंग में दो ही धाराएं थीं, जो अब भी हैं--एक भजन की, और दूसरी धारा गारी की. दूसरी में भयंकर अश्लीलता है. वे भजन नहीं
गाते थे, ‘गारी’ गाते थे. एक छात्र गाँव कुआ घोसी का डमरू लाल अहिरवार था. वह
लोकगीतों का एलबम था. उससे कितने ही लोकगीत सुन लो, कभी खत्म नहीं होते थे. छात्रावास के छात्र उससे जो गीत बार-बार
सुनते थे, वह सुहागरात का गीत था. एक दिन
मैंने उससे कहा, ‘तुम ये सारे लोकगीत मुझे लिखकर दे
सकते हो?’ उसने पूछा, ‘काये के लाने सर?’ मैंने कहा, ‘मुझे शौक है, लोकगीतों को संग्रह करने का.’ वह तैयार नहीं हो रहा था. पर किसी तरह मैंने उसे मनाया. और कोई एक
हफ्ते के बाद उसने मुझे 60 लोकगीत दो कापियों पर लिखकर दिए. उनमें वह सुहागरात वाला गीत भी था, और मनचले शेर भी थे. अंत में उसने अपना नाम लिखा था, और उसके साथ अपना छात्र रजिस्ट्रेशन संख्या 86/614, और भारतीय स्टेट बैंक का खाता नम्बर 7952 तक लिखा था. वह बी. कॉम का छात्र था, पर यह सब नहीं लिखने की समझ उसमें नहीं थी. मैंने जिस मकसद से उससे
ये गीत लिखवाये थे, मैं स्वयं को
अपराधी मानता हूँ कि मैं उनका उपयोग नहीं कर सका, यहाँ तक कि उन पर कोई लेख भी नहीं लिख सका. खैर, उसके संग्रह से मैं एक-दो गीत यहाँ जरूर देना चाहता हूँ. पहले
सुहागरात का गीत ही दे रहा हूँ—
छक्के छूट गए
सैयां ने करो जब काम, छक्के छूट गए
होत हुईपे
सुहागरात सुनो हतो नाव,
सैयां के घोड़ा ने
टोर दई लगाम.
मची खलबल तमाम
मुश्किल मेदी मोय राम.
यह लम्बा गीत है.
कुछ गीत स्त्रियों की पीड़ा के भी हैं. जैसे यह गीत—
दई दई रे सजनवा
ने मोय मार दई.
मोय मार दई रे
लाला मोय मार दई.
दार नाई भात बनाओ
रोटी बनाई सई
तनक सी कच्ची रह
गयी बेलन की मार दई.
आगन झार दयो चौका
लगा दयो द्वारो झार दयो सई
तनक सी कूरा रह
गयो झाड़ू की मार दई.
पलका बिछा दयो
गद्दा बिछा दयो सेज लगाई सई
तनक सी गुड्डी
रही गयी तकियन की मार दई.
मोड़ा खिलाओ मोड़ी
खिलाई तेल लगाओ सई
तनक तो मोड़ा रोन
लागो डनडन की मार दई
एक भजन का भी मैं
जिक्र करना चाहूँगा, जो मुझे रैदास के
इस निर्गुण पद की याद दिलाता है—
राम मैं पूजा
कहाँ चढाऊं, फल अरु फूल अनूप न पाऊं
थनहर दूध जो बछरू
जुठारी, पहुप भंवर जल मीन बिगारी.
मन ही पूजा मन ही
धूप, मन ही सेऊं सहज सरूप.
रैदास के इस पद
की पूरी छाया इस लोकगीत में दिखती है, जिसमे राम की जगह हनुमान हैं. इसमें भैरव मंडल की छाप है, जो शायद इसके रचयिता हैं. डमरू लाल अहिरवार की कापी से ही यह गीत
यहाँ दे रहा हूँ—
जय महवीर जय
बजरंगी, मंडल में हमारे रहियो संगी.
जो तुम्हें
स्वामी फूल चढ़ावें, तो वह भौरों का
जूठा है.
तुम्हें कलियाँ
चढ़ावें कौन रंगी. मंडल में.....
जो तुम्हें दूध
चढ़ावें, वह बछड़े का जूठा है.
स्वामी वस्तु
मिलत सब अड़बंगी. मंडल में...
जिला हमारो
ललितपुर जानो, महरौनी में है वो थानो.
गुरू कहत हैं
मूरत दिखादो मनचंगी. मंडल में ....
भैरव मंडल विनय
करत है, गुरू चरनन में शीश धरत है.
कभी न होते
साजबाज बेढंगी. मंडल में....
आज तीस सालों के
बाद, इस संस्मरण में इन गीतों का उल्लेख
करके मैं डमरू लाल अहिरवार को दिए वचन का एक अंश पूरा करने की खुशी अनुभव कर रहा
हूँ.
नब्बे का वह दशक
राजनीतिक उथलपुथल का भी दौर था. कमंडल और मंडल की राजनीति ने भारतीय समाज के
तानेबाने को छिन्नभिन्न कर दिया था. पिछड़ी जातियों के नेता शिक्षा और नौकरियों में
आरक्षण के लिए मंडल आन्दोलन चला रहे थे, जिसके विरुद्ध सवर्णों की लामबंदी ललितपुर में भी सड़कों पर उतर आई
थी. इस जातीय-संघर्ष में सवर्णों के निशाने पर दलित थे. वे इसे दलितों के आरक्षण
के रूप में देख रहे थे. इसलिए दलितों के खिलाफ पिछड़ी जातियों के छात्र भी आक्रामक
सवर्णों की टोली में आगे-आगे चल रहे थे. वे
स्कूल-कालेजों में दलित छात्रों के साथ मार-पीट और सड़कों पर तोड़फोड़ करते हुए धड़ाधड़
आंबेडकर छात्रावास पर चढ़ आये. बिना बाउंड्रीवाल वाले भवन में उनका घुसना बिलकुल भी
मुश्किल नहीं था. वे आसानी से सब तरफ फैल गए. उस समय छात्रों में अफरातफरी मच गयी
थी. वे अपनी जान बचाने के लिए इधरउधर भाग रहे थे. कुछ ने अपने आप को कमरों में बंद
कर लिया था. कुछ ऊपर छत पर जाकर छुप गए थे. पर वे कहीं नहीं बच पाए थे. भीड़ ने
उन्हें बुरी तरह पीटा था. मैं परिवार के साथ ही दूसरी मंजिल पर रहता था. उस वक्त
हम अपने कमरे के बगल में आंगन में थे. मैंने विमला को तीनों बच्चों के साथ वहीँ
किबाड़ की आड़ में छिपे रहने को कहा. और मैं कमरे में से चिमटा उठाकर, हमलावरों को आंगन की तरफ जाने से रोकने के लिए दरवाजे पर खड़ा हो
गया था. सालभर का मिलिंद माँ की गोद में था, और कात्यायन और मोग्गल्लान दस और आठ साल के थे, जो माँ के साथ सहमे हुए बैठे थे. बीच-बीच में वह छोटे बच्चे के
मुंह पर हाथ भी रख देते, जब वह रोने की कोशिश करता. कुछ ही पल में उपद्रवी हमारे कमरे की
तरफ आ गए और उन्होंने मुझे घेर लिया. बदतमीजी करने लगे, फिर पता नहीं, भीड़ में से किस ने उन्हें क्या इशारा किया कि वे गालियाँ बकते और
नारे लगाते हुए, वापिस लौट गए. उनके जाने के बाद
मैंने डरे-सहमे बीवी-बच्चों को आंगन से कमरे में लाया. फिर अपने छात्रों को जाकर
देखा, तो पता चला कि वे दो छात्रों को ऊपर
की छत से नीचे फेंक गए थे. उनके सिर फटे पड़े थे. उन्हें तुरंत अस्पताल भिजवाया. वे
छात्रावास में चारों तरफ तोड़फोड़ कर गए थे. साइकिलें तोड़ गए थे, जिनमें बलवान की साइकिल भी थी. भवन की वायरिंग तोड़कर डाल गए थे, दरवाजे, कुर्सियां सब टूटी पड़ी थीं. मैंने तुरंत अपने उच्च अधिकारियों को
घटना की सूचना दी. मुझसे पुलिस में रिपोर्ट लिखाने को कहा गया. मैंने कोतवाली में
एफआईआर दर्ज कराई. मेरी रिपोर्ट पर मुकदमा दर्ज हुआ. कुछ बलवाइयों को ,अं जानता भी था, उनके नाम भी मैंने रिपोर्ट में लिखवाए. हमलावरों में सुजानसिंह
बुंदेला का वह भांजा और उसके सभी साथी शामिल थे, और आश्चर्य ! वे काछी भी शामिल थे, जो छात्रावास के सामने रहते थे. यह मेरे लिए अविश्वसनीय था, पर हकीकत थी. राजा ने अपने अपमान का बदला कायरों की तरह
आरक्षण-विरोध की राजनीति की आड़ में मुझसे लिया था. उन दिनों बी. राम साहेब एसडीएम
शहर थे. उन्होंने छात्रावास की सुरक्षा के लिए पुलिस तैनात करा दी थी, जो कुछ दिनों तक रही थी.
कुछ नामजद लोगों
को पुलिस ने गिरफ्तार करके जेल भेज दिया था, पर असली मुजरिम को पुलिस ने हाथ भी नहीं लगाया था. इस घटना के कुछ
समय बाद मैंने अपना ट्रांसफर करा लिया था. वह कई साल मुकदमा चला. पर किसी को भी
सजा नहीं हुई थी. कारण, किसी भी छात्र ने उनके खिलाफ गवाही नहीं दी थी. जख्मी छात्र भी इस
बात से मुकर गया था कि उसे किसी ने फेंका था. उसने बयान दिया था कि वह खुद ही जान
बचाने के लिए नीचे कूद गया था.
(31 मार्च 2017)
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