दलित पैंथर का
दस्तावेजी इतिहास
(कँवल भारती)
महाराष्ट्र के
दलित आन्दोलन और साहित्य में जे. वी. पवार एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं.
उनकी महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि डा. आनन्द तेलतुमड़े उन्हें
उत्तर-आंबेडकर दलित आन्दोलन का ‘इनसाइक्लोपेडिया’ (विश्वकोश) और भाऊ तोरसेकर आंबेडकर-आन्दोलन
का ‘गूगल’ कहते हैं. इसलिए
ऐसे महत्वपूर्ण लेखक की ‘दलित
पैंथर के दस्तावेजी इतिहास’ पर
लिखी गई पुस्तक को पढ़ा जाना निश्चित ही एक नए अनुभव से गुजरना है. यह जे. वी. पवार
की मराठी पुस्तक ‘दलित
पैंथर’ का
अंग्रेजी अनुवाद है, जो ‘Dalit Panthers : An Authoritative History’ नाम से रक्षित
सोनावणे ने किया है. इस जरूरी इतिहास का प्रकाशन ‘फारवर्ड प्रेस बुक्स’ और ‘दि
मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन’ नई
दिल्ली ने मिलकर किया है.
‘दलित पैंथर’ अस्सी के दशक
का वह क्रांतिकारी आन्दोलन था, जिसने महाराष्ट्र के दलितों को ही नहीं, बल्कि वहां की
राजनीति को भी प्रभावित किया था. इसी दलित पैंथर के गर्भ से मराठी दलित साहित्य का
जन्म हुआ था. इससे पहले दलित शब्द का अस्तित्व तो था, पर वह प्रचलन
में नहीं आया था. इस क्रांतिकारी संगठन का निर्माण 29 मई 1972 को हुआ था. किन्तु
इसने लम्बी उमर नहीं पाई. और पांच साल बाद 7 मार्च 1977 को ही उसे भंग कर दिया
गया.
दलित पैंथर किन
परिस्थितियों में अस्तित्व में आया, और उसकी क्या गतिविधियाँ रही थीं, यह जानना बेहद
दिलचस्प होगा. जे. वी. पवार दलित पैंथर के संस्थापकों में हैं. उन्होंने अपनी
किताब में ‘दलित
पैंथर’ की
पृष्ठभूमि पर जो अध्याय लिखा है, उसके अनुसार सत्तर का दशक महाराष्ट्र में दलितों
पर बेहद अमानवीय अत्याचारों का दौर था. रिपब्लिकन पार्टी (रि.पा.) के नेता आपस में
लड़ रहे थे. जुल्म करने वालों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हो रही थी, जिससे उनके
हौसले बुलंद होते जा रहे थे. जुल्म हदें पार कर रहा था. दलित औरतों के साथ
बलात्कार,
उन्हें नंगा घुमाने, दलितों
का सामाजिक बहिष्कार करने, उनके
कुओं में मानव मल डालने,
पीट-पीटकर मारने, हत्या
करने,
जिन्दा जलाने, घरों
को जलाने, उनकी जमीनों
पर कब्जा करने, और
श्मशान की भूमि पर उनके मृतकों की चिता न जलाने देने की घटनाएँ बढ़ती जा ही रही
थीं. ये घटनाएँ दलितों के रोष को बढ़ा रही थीं.
मुम्बई में 14 अप्रैल
1972 को दलित बस्ती चिंचवाड़ी (बांद्रा) में डा. आंबेडकर जयंती के कार्यक्रम में लाउडस्पीकर
की आवाज़ को लेकर वहाँ के सवर्णों ने पुलिस में शिकायत की, जिससे पुलिस
को दलितों पर हमला करने का मौका मिल गया. पीएसआई नानावारे की पुलिस टीम ने न सिर्फ
वहां जाकर दलितों को मारा-पीटा, बल्कि बाबासाहेब डा. आंबेडकर और बुद्ध के फोटो
भी फाड़ दिए. यह खबर जंगल की आग की तरह पूरे मुम्बई शहर में फ़ैल गई. शीघ्र ही भारी
संख्या में लोग विरोध करने के लिए बांद्रा पुलिस स्टेशन पहुँच गए. पूरे मुम्बई शहर
में दलितों के प्रदर्शन हुए. 16 अप्रैल 1972 को डा. आंबेडकर के पुत्र भैयासाहेब
आंबेडकर ने मंत्रालय के सामने प्रदर्शन का नेतृत्व किया. प्रदर्शनकारियों ने
बांद्रा घटना की जांच और दोषी पुलिस अधिकारी को निलम्बित करने की मांग की.
बैरिस्टर बी. डी. काम्बले और भाऊसाहेब केलशीकर ने भी अलग से एक प्रदर्शन-मार्च का
नेतृत्व किया और पुलिस अधिकारी के निलम्बन की मांग की. दोनों प्रदर्शनों के नेताओं
ने तत्कालीन राज्य मंत्री डी. टी. रूपावटे को ज्ञापन दिया. पर, जे. वी. पवार
के अनुसार, कोई
कार्यवाही नहीं हुई.
वे आगे लिखते
हैं कि इसी समय आरपीआई अनेक गुटों में विभाजित हो गई थी. कारण कुछ भी हो, पर सत्ता में
जाने का लोभ इसके केंद्र में था. 14 अप्रैल 1972 को चैत्यभूमि मुम्बई में आंबेडकर
जयंती पर बोलते हुए कहा कि वे आरपीआई के कुछ नेताओं को सत्ता के लोभ में पार्टी
छोड़कर कांग्रेस में जाने से नहीं रोक पाए.
इसी समय
शिवसेना के विधायक वामन राव महादिक ने बांद्रा की घटना पर एक सभा आयोजित की, जिसमें मनोहर
जोशी और अभिनेत्री वैजयंतीमाला के पति डा. चमनलाल बाली भी शामिल हुए थे. इस सभा
में आरपीआई की आलोचना हुई, जिसने
कुछ उन दलित युवकों को ज्यादा प्रभावित किया, जो शिवसेना के समर्थक थे. उन्होंने मुम्बई के
कमाठीपुरा इलाके में शिवसेना की तर्ज पर ‘भीमसेना’ का गठन किया. इसकी पहली बैठक पद्मशाली कम्युनिटी
हाल में हुई,
जिसमें शांताराम अधंगले, कमलेश
संतोजी गायकवाड़,
नारायण गायकवाड़,
सीताराम मिसाल, बी.
आर. काम्बले,
विष्णु गायकवाड़, वी.
एस. अस्वारे, एस.
आर. जाधव और टी. डी. यादव आदि कुछ प्रमुख लोगों ने भीमसेना पर चर्चा की. वे इसके
नाम से तो सहमत थे,
परन्तु इस नाम से एक संगठन पहले से ही हैदराबाद में था. अंतत: उन्होंने भीमसेना के
स्थान पर आरपीआई के दलित नेताओं को सबक सिखाने के लिए ‘रिपब्लिकन
क्रांति दल’ नाम
रख दिया. लेखक लिखता है कि दलितों को शिवसेना में जाने से रोकने के लिए यह संगठन
भी उद्देश्य को पूरा नहीं कर रहा था. इसलिए उसका फिर से नाम बदलकर ‘रिपब्लिकन एक्य
क्रान्ति दल’ किया
गया. लेखक के अनुसार इस नये दल के कुछ नेता भी लालच में आकर अपने उद्देश्य से अलग
हो गए.
लेखक लिखता है
कि यही वह समय है, जब
दलित लेखकों ने दादर में विचार-विमर्श के लिए बैठकें करना शुरू कीं. दलित लेखकों
की ये बैठकें दादर में ईरानी रेस्टोरेंट में होती थीं. ये लेखक थे दया पवार, अर्जुन डांगले, नामदेव ढसाल, प्रह्लाद
चेंदवानकर और स्वयं लेखक जे. वी. पवार. यह इन्दिरा गाँधी की निरंकुशता, कांग्रेस
नेताओं की गुंडागर्दी और दलितों पर बढ़ते अत्याचारों का दौर था. साथ ही युवक
क्रान्ति दल,
रिपब्लिकन क्रान्ति दल, युवक
अघाडी,
समाजवादी युवक सभा और मुस्लिम सत्यशोधक समिति का भी दौर था. ‘दलित पैंथर’ का जन्म इसी
पृष्ठभूमि में हुआ था.
2
दलित
पैंथर का निर्माण
दलित पैंथर के
गठन के पीछे ‘इलायापेरुमल
समिति’ की
रिपोर्ट का भी बड़ा हाथ था. इस बारे में जे. वी. पवार बताते हैं कि 1965 में
सम्पूर्ण देश में दलित जातियों पर हो रहे अत्याचारों के मामलों का अध्ययन करके
उन्हें दूर करने के उपाय सुझाने के लिए सांसद एल. इलायापेरुमल की अध्यक्षता में एक
समिति का गठन किया गया था. इस समिति ने दलित उत्पीड़न के लगभग 11 हजार मामलों का
अध्ययन करके 30 जनवरी 1970 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी. उसने अपनी रिपोर्ट
में कहा था कि दलितों को न्याय मुहैया कराने में इन्दिरा सरकार की पूरी तरह विफलता
सामने आई है. किन्तु सरकार ने इस रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखने में कोई रूचि नहीं
ली. इसका कारण यह था कि दलितों पर अत्याचार करने वाले अपराधी मुख्य रूप से
कांग्रेसी, ब्राह्मण
और गैरब्राह्मण ही थे. इस रिपोर्ट ने युवाओं के दिमागों में सामाजिक परिवर्तन की
चिंगारी सुलगा दी थी. हालाँकि विभिन्न गुटों में विभाजित रिपब्लिकन नेता इस मुद्दे
पर शांत पड़े हुए थे. किन्तु युवा लेखक और कवि चाहते थे कि सरकार इस मामले में कार्यवाही
करे. उस समय दादर के एक ईरानी रेस्टोरेंट में दया पवार, अर्जुन डांगले, नामदेव ढसाल, प्रह्लाद
चेंदवानकर और जे. वी. पवार आदि कुछ दलित लेखक बैठकर बातचीत किया करते थे. यह उनके
बैठने का नियमित अड्डा था. एक दिन उन सबने तय किया कि ‘इलायापेरुमल
समिति’ की
रिपोर्ट पर सरकार को चेतावनी देने के लिए एक सार्वजनिक वक्तव्य जारी करना चाहिए.
इस प्रस्ताव पर 12 दलित लेखकों ने हस्ताक्षर किए. बाबुराव बागुल ने हस्ताक्षर करने
से इनकार कर दिया था. दया पवार सरकारी कर्मचारी होने के नाते सेवाशर्तों से बंधे
हुए थे. प्रह्लाद चेंदवानकर, जैसा कि जे. वी. पवार ने लिखा है, ढुलमुल किस्म
के थे, और
भरोसेमंद नहीं थे. आखिरकार, राजा
ढाले,
नामदेव ढसाल,
अर्जुन डांगले, भीमराव
शिर्वले,
उमाकांत रंधीर,
गंगाधर पांत़ावने, वामन
निम्बालकर,
मोरेश्वर वाहने और जे. वी. पवार के हस्ताक्षरों से एक सार्वजनिक वक्तव्य प्रेस को
जारी किया गया. लेखक ने खुलासा किया है कि जिस वजह से बाबुराव बागुल और दया पवार
हस्ताक्षर करने से डर रहे थे, वह वक्तव्य की ये पंक्तियाँ थीं—‘यदि सरकार
दलितों पर अन्याय और अत्याचार रोकने में असफल होती है, तो हम कानून
को अपने हाथों में ले लेंगे,’ उन्हें लगता था कि पुलिस यह पढ़कर पता लगा लेगी कि
वक्तव्य लेखकों की ओर से आया है, और वह उनको पकड़ लेगी. उनके हस्ताक्षर न करने का यही
एक कारण था.
इसी समय
महाराष्ट्र में दलित उत्पीड़न की दो वारदातें और हुईं. एक, पुणे में
बावदा गाँव में पूरी दलित आबादी का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था. यह बहिष्कार
तत्कालीन राज्यमंत्री शंकरराव पाटिल के भाई शाहजीराव पाटिल ने करवाया था. दूसरी
घटना परभानी जिले के ब्राह्मणगाँव में हुई थी, जहाँ एक दलित महिला को नंगा करके उसे बबूल की टहनियों
से मारते हुए घुमाया गया था. इन घटनाओं की अनेक संगठनों ने निंदा की थी. 28 मई
को युवक ‘अघादी संगठन’ के नेताओं ने
मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक से मिलकर उनको ज्ञापन दिया, जिसमें
उन्होंने मांग की कि इन घटनाओं की न्यायिक जांच कराई जाये और दोषियों को सजा दिलाई
जाये. मुख्यमंत्री ने उलटे दलित नेताओं को ही सलाह दी कि वे स्वयं इन घटनाओं की
जाँच करके सरकार को रिपोर्ट दें. किन्तु संगठन के नेताओं ने यह कहकर इस सुझाव को
मानने से इनकार कर दिया कि यह उनका काम नहीं है, यह काम सरकार को करना चाहिए, क्योंकि उसके
पास सारी मशीनरी और ख़ुफ़िया तन्त्र है. लेकिन सरकार ने कुछ नहीं किया.
नामदेव ढसाल और
जेवी पवार एक ही इलाके में रहते थे. ढसाल ढोर चाल में और पवार सिद्धार्थ नगर के
नगरपालिका के क्वाटरों में. इस तरह वे दोनों रोज ही मिला करते थे. एक दिन
सिद्धार्थ विहार से लौटते हुए उन दोनों के मन में विचार आया कि क्यों न दलितों पर
अत्याचार रोकने के लिए एक भूमिगत आन्दोलन चलाया जाये. उनकी योजना घटना स्थल पर
जाकर तुरंत अपराधियों से निपटने की थी. लेकिन इसमें उनके सामने एक अड़चन थी. वह
जानते थे कि उनका समाज ऐसे आन्दोलन को संरक्षण नहीं देगा, और यह उनके
लिए उल्टा पड़ जायेगा. अत: काफी सोच-विचार करने के बाद उन्होंने यह विचार त्याग
दिया. जेवी पवार लिखते हैं कि वे एम.ए. के छात्र थे, पर आंबेडकर आन्दोलन के लिए उन्होंने
पढ़ाई छोड़ दी थी.
29 मई 1972 को ढसाल
और जेवी पवार विट्ठलभाई पटेल रोड पर अलंकार सिनेमा से होते हुए ओपेरा हाउस के निकट
टहलते हुए दलित-उत्पीड़न के खिलाफ एक लड़ाकू संगठन बनाने पर चर्चा करते चल रहे थे.
वे संगठन के लिए बहुत सारे नामों पर विचार कर रहे थे. पर बात नहीं बन रही थी.
अंतत: उनका विचार ‘दलित
पैंथर’ पर
जाकर केन्द्रित हो गया. इस प्रकार मुम्बई की एक सड़क पर टहलते हुए क्रांतिकारी
संगठन ‘दलित
पैंथर’ का
जन्म हुआ. पवार लिखते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में बहुत से लोगों ने यह दावा किया
है कि वे दलित पैंथर के संस्थापक हैं. किन्तु सच यह है कि इस संगठन की स्थापना सिर्फ
नामदेव ढसाल और जेवी पवार ने की थी.
अब अगला कदम ‘दलित पैंथर’ को सार्वजनिक
करने का था. ढसाल चूँकि सोशलिस्ट आन्दोलन
से जुड़े थे, इसलिए
बहुत से लोगों को जानते थे. राजा राम मोहन राय रोड पर सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं का
दफ्तर था,
जिसमें रमेश समर्थ नाम का एक कवि टाइपिंग का काम करता था. उन्होंने उससे प्रेस के
लिए दलित पैंथर की घोषणा की विज्ञप्ति टाइप करवाई. इस विज्ञप्ति पर सबसे पहले
हस्ताक्षर ढसाल ने किए, उसके
बाद जेवी पवार ने. फिर अनेक लोगों ने हस्ताक्षर किये, जिनमें राजा
ढाले, अरुण
कांबले,
दयानन्द म्हस्के,
रामदास अठावले,
अविनाश महातेकर मुख्य हैं. विज्ञप्ति में लिखा गया था—’महाराष्ट्र में
जातिवादी हिन्दुओं को क़ानून का डर नहीं रह गया है. धनी किसान और सत्ता से जुड़े ये सवर्ण
हिन्दू दलितों के साथ जघन्य अपराधों में लिप्त हैं. ऐसे अमानुष जातिवादियों को ठीक
करने के लिए मुम्बई के विद्रोही युवाओं ने एक नये संगठन ‘दलित पैंथर’ का निर्माण कर
लिया है. जेवी पवार,
नामदेव ढसाल,
अर्जुन डांगले, विजय
गिरकर,
प्रह्लाद चेंदवनकर,
रामदास सोरते,
मारुती सोरते,
कोंदीराम थोरात, उत्तम
खरात और अर्जुन कसबे ने पूरी मुम्बई में इसका गठन करने के लिए सभाएं की हैं, जिनमें हमें भारी
समर्थन मिला है.’
3
दलित पैंथर का
पतन
जेवी पवार लिखते हैं, दलित पैंथर
संगठन पूरे महाराष्ट्र में एक मजबूत ताकत बन गया था. उससे जहाँ एक ओर सरकार परेशान
थी, वहीँ दूसरी ओर
आम आदमी को उससे सुरक्षा और राहत मिल रही थी. वह दलित पैंथर के कारण भय-मुक्त हो
गया था. दलित पैंथर के नेताओं का उनके जिलों में कद बढ़ गया था, जिसकी वजह से
जिला कलेक्टरों, पुलिस
कप्तानों, मुख्य
अधिकारियों और जन-प्रतिनिधियों के साथ उनकी नजदीकियां बढ़ गयीं थीं. इसके
परिणामस्वरूप उनमें अधिकारियों के माध्यम से काम कराने की प्रवृत्ति शुरू हो गयी
थी.
जेवी
पवार लिखते हैं कि दलित पैंथर का जन्म अन्याय और अत्याचारों को रोकने के लिए हुआ
था, परन्तु इस नई
प्रवृत्ति के कारण दलित पैंथर के कुछ तालुका और जिला अध्यक्ष खुद भी दलितों के साथ
अन्याय करने लगे थे. पहले दलित पैंथर जमीन हथियाने के मामलों में हस्तक्षेप करके
जिसकी जमीन होती थी, उसे
वापिस कराते थे. किन्तु अब वे उन जमीनों की सौदेबाजी में लिप्त होने लगे थे. पहले
वे झुग्गियों में जाकर पीड़ित लोगों को सुरक्षा प्रदान करते थे, परन्तु अब कुछ
दलित पैंथर झुग्गियों के ही मालिक हो गये थे, और नई झुग्गियों को बनाकर उन्हें बेचने का काम
करने लगे थे. इन सब को देखकर पवार और उनके साथियों को लगने लगा था कि दलित पैंथर
की जो छवि पीड़ितों के रक्षक की बनी थी, वह बदल रही थी. बात यहाँ बढ़ गई थी दलित पैंथर के
कुछ सदस्यों ने शराब तस्करों से जबरन वसूली भी करनी शुरू कर दी थी और खुद ही ऐसे
ही अवैध धंधों में लिप्त हो गये थे. इस तरह की गतिविधियों से आम आदमी ने दलित
पैंथर के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया था.
पवार
लिखते हैं कि यद्यपि इस तरह की गतिविधियां बड़े पैमाने पर नहीं थीं, अपवाद-स्वरूप
ही थीं, पर
फिर भी ये इस बात के सुबूत थे कि संगठन में अवांछित कार्य होने लगे थे. हर जिले से
ऐसे एक-दो मामलों की शिकायत आती थी. इसलिए पवार ने 10 जनवरी 1976 को एक जनसभा में
इस विषय को उठाते हुए कहा कि वे संगठन की कीमत पर डा. आंबेडकर के दर्शन से समझौता
नहीं कर सकते. यह कहकर उन्होंने दलित पैंथर के भविष्य को स्पष्ट कर दिया था.
लेकिन
दलित पैंथर के पतन के लिए कुछ राजनीतिक परिस्थितियों का भी पवार ने जिक्र किया है.
यह वह समय था, जब
कांग्रेस के विरुद्ध सारी विपक्षी पार्टियों ने मिलकर ‘जनता पार्टी’ बनाई थी, और देश में आम
चुनावों की घोषणा हो चुकी थी. पवार लिखते हैं कि जनता पार्टी का मुख्य घटक जनसंघ
था. इसलिए कांग्रेस को हराने के लिए संघ परिवार [आरएसएस] ने इन चुनावों में अपनी
सारी ताकत झोंक दी थी. इसी समय पवार को खबर मिली कि जनता पार्टी ने नांदेड़ से राजा
ढाले को लोकसभा का टिकट दिया है. राजा ढाले ने जेल में बंद जनता पार्टी के नेताओं
की तुलना आपातकाल के दौरान जेल में भगवान् कृष्ण के जन्म से की थी. पवार लिखते हैं
कि कांग्रेस पार्टी हमारी शत्रु थी, पर हम उसके विरुद्ध लड़ाई में जनता पार्टी की मदद
करना नहीं चाहते थे. इसी समय भैयासाहेब आंबेडकर लोकसभा के लिए बौद्धों के लिए
आरक्षण दिलाने के वादे पर चुनाव लड़ रहे थे. किन्तु उनके सारे साथी उनको छोड़कर चले
गये थे. वह अकेले ही बौद्धों के मुद्दे पर लड़ रहे थे, जबकि पूरा देश
कांग्रेस को गद्दी से उतारने के लिए लड़ रहा था.
जब जेवी पवार
भैयासाहेब आंबेडकर का समर्थन कर रहे थे, उस समय नामदेव ढसाल दलित पैंथर के बैनर तले
कांग्रेस का प्रचार कर रहे थे, जबकि भाई संगारे और अविनाश महाटेकर जनता पार्टी
का प्रचार कर रहे थे. इस तरह दलित पैंथर के तीन अलग-अलग गुट हो गए थे. पवार कहते
हैं कि यही वे परिस्थितियां थीं, जो हमने अराजकता को खत्म करने के लिए और गलत
कार्यों में लिप्त दो गुटों के पैरों के नीचे से कालीन खींचने के लिए दलित पैंथर
को भंग करने का निश्चय किया. भैयासाहेब आंबेडकर ने उनके इस विचार का समर्थन किया.
इसके बाद इसकी विधिवत घोषणा के लिए एक बुकलेट तैयार की गयी. यह बुकलेट रामदास
अठावले के सिद्धार्थ विहार हॉस्टल, वडाला के कमरे में लिखी गई. कमरे को बाहर से लॉक
करा दिया गया, ताकि
कोई अंदर न आ सके. कमरे में सिर्फ तीन लोग थे—राजा ढाले, उमाकांत रंधीर
और जेवी पवार. अठावले को फुटबाल खेलने भेज दिया गया था. वह और अरुण काम्बले जानते
थे कि कमरे में क्या चल रहा है. ढाले बोलते गये और रंधीर लिखते गए. पवार ने जरूरत
पड़ने पर शब्द बदलने या सुधारने का काम किया. इस बुकलेट को राजा ढाले की ओर से ‘बुद्ध एंड भूषण
प्रिंटिंग प्रेस’,
गोकुलदास पास्ता लेन, दादर
में छपवाया गया.
7 मार्च 1977
को पत्रकारों को बुकलेट की प्रतियाँ जारी की गयीं, और विधिवत घोषणा कर दी गई कि दलित
पैंथर को भंग कर दिया गया है. इस प्रेस वार्ता में औरंगाबाद से गंगाधर गडे भी
उपस्थित थे और उन्होंने पत्रकारों के दो सवालों के जवाब भी दिए थे. बाद में कुछ
लोगों ने ‘पैंथर’ शब्द को
भुनाने के लिए एक नया संगठन ‘अपन मास पैंथर’ बनाया, पर वह चला
नहीं.
[27 दिसम्बर 2017]
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