रविवार, 22 जुलाई 2018


सत्ता का राष्ट्रवाद
भगवा चिन्तन और दलित विमर्श
कँवल भारती
      हिंदुत्व में सहिष्णुता के सवाल पर अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि हमारे यहाँ धर्म और दर्शन पर हमेशा वादविवाद होते रहे हैं, और इसको लेकर कभी कोई हिंसक टकराव नहीं हुआ है. निश्चित रूप से इससे असहमति नहीं है. हमारे वाङमय में वाद-विवाद और संवाद की एक स्वस्थ परम्परा रही है. किन्तु इस स्वस्थ परम्परा की सच्चाई यह है कि वह अपने दायरे के अंदर ही रही है. उसने अपना दायरा कभी नहीं तोडा. दूसरे शब्दों में वह वादविवाद मूल के खिलाफ नहीं गया. मिसाल के तौर पर ब्रह्म ज्ञान को लेकर तमाम तरह की अवधारणाओं के द्वंद्व हैं. एक-दूसरे के मत का खंडन भी है, परन्तु कोई भी विचारक ब्रह्म के या वेद के अस्तित्व पर सवाल खड़े नहीं करता है, क्योंकि उनकी बहस ब्रह्म और वेद के खिलाफ नहीं है. अगर वे वेद और ब्रह्म के अस्तित्व पर सवाल उठाते, तो वे दायरे को तोड़ते. ऐसे सवाल करके दायरा तोड़ने वाले को सख्ती से रोका भी गया. याज्ञवल्क्य और गार्गी का उदाहारण मौजूद है.
इसे हम भक्ति काल की अवधारणाओं से अच्छी तरह समझ सकते हैं. भक्ति काल में अनेकानेक वाद निकले. किसी ने द्वैतवाद को स्थापित किया, किसी ने शुद्धदवैतवाद को,  किसी ने विशिष्टाद्वैतवाद को, और किसी ने द्वैत को ही नहीं माना, अद्वैतवाद को स्थापित किया. वेद और ईश्वर को लेकर भी अलग-अलग अवधारणाएं सामने आती हैं. उदाहरण के लिए वेदों को अपोरुषेय भी माना गया, और पोरुषेय भी कहा गया. कपिल के सांख्यदर्शन ने ईश्वर को भी नहीं माना. लेकिन ये सारी अवधारणाएं परस्पर-विरोधी होकर भी वेद-विरोधी नहीं थीं. इनमें से किसी भी पक्ष ने न वेदों का खंडन किया था और न वर्णव्यवस्था का. इसलिए ये सारी अवधारणाएं एक ख़ास दायरे में तर्क-वितर्क करती रहीं. लेकिन जिसने भी इस दायरे को तोडा, और वेदों तथा वर्णव्यवस्था पर सवाल उठाये, वे शत्रु माने गए और उनके साथ बहिष्कृत जैसा व्यवहार किया गया. अगर वे कमजोर रहे, तो उन्हें मार दिया गया, और ताकतवर रहे, तो उनके प्रति घृणा का प्रचार किया गया. यह हिंदुत्व के समानांतर चलने वाली विचारधारा थी, जो वेदों का भी खंडन करती थी और वर्णव्यवस्था का भी. इन दोनों में जबर्दस्त टकराव था. यह टकराव इतिहास में खूनी संघर्ष के रूप में दर्ज है. जिन वेद और वर्ण-निंदकों को विधर्मी कहा गया, उनमें आजीवक हैं, चार्वाक हैं, बौद्ध हैं. इन सबको मनुस्मृति विधर्मी कहती है और  उनके साथ कोई भी सामाजिक व्यवहार करने को मना करती है.
इसी असहिष्णुता ने उन तथाकथित विधर्मियों का सर्वनाश कर दिया गया. जैनों ने समझौता कर लिया था, सो वे बचे रहे. पर बौद्धों ने समझौता नहीं किया, और वे खदेड़ दिए गए. उनके मन्दिर-मठ सब ध्वस्त कर दिए गए. ऐसा प्रमाण मिलता है कि आजीवकों को जलाकर मारा गया. उनका साहित्य तो नष्ट ही कर दिया गया था. सिर्फ बौद्ध धर्म के दीघ निकाय के सामन्जल सुत्त में उनके दर्शन की थोड़ी सी झलक मिलती है. उसी से उनके अस्तित्व का पता चलता है. इसी तरह चार्वाक साहित्य नहीं मिलता. वह भी नष्ट कर दिया गया. अगर ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ के संकलनकर्ता ने उनके कुछ विचारों को संकलित न किया होता, तो किसी को पता भी नहीं चलता कि भारत में कोई चार्वाक नाम का भौतिक दर्शन भी था.
      ये इतिहास की कुछ झलकियाँ हैं, जो बताती हैं कि शासक वर्गों ने अपने विरोधियों की आवाजों को न सिर्फ दबाया है, बल्कि उनकी नृशंस हत्याएं भी की हैं. यही नहीं, जब विजयी शासकों ने अपने जश्न की यशोगाथा लिखी और अपनी सत्ता का इतिहास लिखा, तो अपने शत्रुओं का भयानक चित्रण किया, उन्हें आदमखोर राक्षस, निशाचर, पशुओं के शरीर वाला और न जाने किन-किन विकृत नामों की उपाधियाँ दीं, फिर उन हत्याओं की स्मृतियों में उत्सव मनाये गये. आज अगर हम इन उत्सवों पर टिप्पणियां करते हैं और उनको हत्याओं का जश्न बताते हैं, तो तत्काल हम राष्ट्रद्रोही हो जाते हैं. उनकी भावनाएं आहत हो जाती हैं, लेकिन भावनाएं तो दूसरों की भी आहत होती हैं. उनका क्या? जो सत्ता में हैं, उनकी भावनाएं होती हैं, पर जो सत्ता में नहीं हैं, उनकी भावनाओं का क्या? होली को लीजिए. यह क्या है? क्या यह कहना गलत होगा कि यह एक औरत को जिन्दा जलाने का जश्न है? फर्क सिर्फ इतना ही तो आया है कि जलाने वाले हाथों में अब लाठियों की जगह गन्ने हैं. होलिका तो स्त्री ही थी, उसे तो प्रति वर्ष जलाया ही जाता है, भले ही वह प्रतीकात्मक है. हिरण्यकश्यप को भूखे शेर के सामने डाल दिया गया था. कहानी का क्या है, कुछ भी गढ़ लो. और ये कहानियां हमें बताती हैं कि हिरण्यकश्यप वेदविरोधी था, यज्ञ विरोधी था. उसकी सस्कृति और विचारधारा ब्राह्मणों से अलग थी. ऋग्वेद की साक्षी है, आर्य इंद्र से प्रार्थना करते हैं कि ‘हे इंद्र, इन लोगों को मारो. ये यज्ञ नहीं करते हैं, इनकी संस्कृति अलग है, ये हमारे जैसे नहीं हैं. इनको मारकर आर्य संस्कृति की रक्षा करो.’
      ये अतीत की बातें हैं. इन्हें मिथक कहकर खारिज किया जाता है. खारिज किया भी जाना चाहिए. पर एक तरफ का नहीं, दोनों तरफ का खारिज किया जाना चाहिए. लेकिन अफ़सोस यह है कि मिथक का एक हिस्सा आज भी हिन्दू संस्कृति का अंग बना हुआ है. अयोध्या में श्रीराम का भव्य मन्दिर बनाने का आन्दोलन फिर चल रहा है, अब वहां योगी सरकार ने लगभग दो सौ करोड़ रूपए खर्च करके भव्य दिवाली का आयोजन किया, उस मिथकीय लीला को दुहराया गया, जब श्रीराम रावण को मारकर विमान से अयोध्या वापस आते हैं. अब योगी सरकार अयोध्या में करोड़ों रुपए की लागत से श्रीराम की विशाल प्रतिमा स्थापित करने जा रही है. हमें कोई एतराज नहीं है, वह ऐसी कई प्रतिमाएं लगाए. लेकिन सवाल यह है जब हम शंबूक की हत्या का मामला उठाते हैं और श्रीराम को शूद्र की हत्या का अपराधी ठहराते हैं, तो उनकी भावनाएं आहत हो जाती हैं और हम राष्ट्रद्रोही हो जाते हैं. वे हमें समझाने की कोशिश करते हैं कि शम्बूक तो मिथक है. परन्तु खुद नहीं समझते कि राम भी तो मिथक हैं. जब हम महिषासुर की हत्या का सवाल उठाते हैं, तो संसद तक में हंगामा मच जाता है. क्यों भई? हंगामा क्यों, बहस करो. हमें बताओ कि एक शक्तिशाली राजा भैंसा कैसे हो गया? अगर वह भैंसा था, तो उससे ऐसा क्या खतरा था, जिसकी हत्या का नौ दिन तक जश्न मनाया जाता है? दुर्गा के गले में जो नरमुंडों की माला पड़ी है, वह किन लोगों के शीश काटकर बनाई गई है? एक भी सवाल का जवाब उनके पास नहीं है. बस सवाल करने वालों को कुचलने की ताकत उनके पास है.
      त्यौहार पहले भी मनाये जाते थे, तब उनका इस कदर राजनीतिकरण नहीं किया जाता था, जिस तरह आज आरएसएस उसका राजनीतिकरण कर रहा है. कमल हासन ने सही सवाल उठाया है कि आज हिन्दू आतंकवाद एक वास्तविकता बन चुका है. वे गलत नहीं कहते हैं कि हिन्दू दक्षिणपंथी अपने विरोधियों के साथ अपने विवादों पर सिर्फ बौद्धिक बहस किया करते थे, लेकिन अब वे हिंसा का प्रयोग करने लगे हैं. अब हिन्दू दक्षिणपंथी दूसरे समूहों के अतिवाद पर उंगली नहीं उठा सकते हैं, क्योंकि उनके अंदर भी इसी तरह के तत्व मौजूद हैं. उन्होंने तमिलनाडु में गणेश चतुर्थी के राजनीतीकरण का जिक्र किया है, जिसमें अब बाहुबल का प्रदर्शन किया जाता है. असल में त्यौहारों का यही राजनीतिकरण हिंसा भड़का रहा है. अब हिंदुत्व अपनी आस्थाओं के लिए दूसरों की आस्थाओं का उपहास उड़ा रहा है और अपनी हिंसक संस्कृति को भारतीय संस्कृति के नाम पर महिमामंडित करके उसे दूसरों पर थोप रहा है. सारा संघर्ष यहीं से पैदा हो रहा है. कमल हासन की टिप्पणी से हिन्दू भावनाएं आहत हो गयीं. और उनके विरुद्ध मुकदमा दर्ज हो गया.  
एक और सवाल ! ईसाई और मुसलमान हिंदुत्व के दुश्मन क्यों हैं? उन्हें दुश्मन बनाने का काम हिन्दू महासभा और आरएसएस ने क्यों किया?  यह दुश्मनी भी आरएसएस दलित-पिछड़ी जातियों से क्यों निकलवा रहा है? वह मुसलमानों को उनका दुश्मन बनाने पर क्यों तुला हुआ है? भला, दलित-पिछड़ी जातियों  की मुसलमानों से क्या दुश्मनी हो सकती है? और हिन्दुओं की भी क्या दुश्मनी हो सकती है? आरएसएस के सिवा दूसरे लोग मुसलमानों को क्यों अपना दुश्मन मानें? वे आरएसएस के दुश्मन हैं, तो हुआ करें. पर वह उनके विरुद्ध अपनी लड़ाई में दलित-पिछड़ों और आदिवासियों को क्यों शामिल कर रहा है? वह मुसलमानों और ईसाईयों को मरवाने के लिए दलित-पिछड़ी जातियों का सहारा क्यों ले रहा है? अगर मरवाना है, वह उन्हें अपने संघी ब्राह्मणों से मरवाए. उन्हें बनाये अपराधी. वह दलित वर्गों को क्यों अपराधी बना रहा है?
क्या मुसलमान और ईसाई आरएसएस के दुश्मन इसलिए हैं कि इन दोनों ने भारत में आकर दो हजार वर्षों तक ब्राह्मणों और क्षत्रियों पर राज किया था? लेकिन यह कारण सही नहीं है. अगर दुश्मनी का कारण सिर्फ इतना ही होता, तो आरएसएस वर्णव्यवस्था को एक कमजोरी मानता और उसे समाप्त करने के खिलाफ आन्दोलन चलाता, क्योंकि इसी कमजोरी के कारण भारत मुसलमानों और अंग्रेजो का गुलाम बना. पर आरएसएस इन कमजोरियों पर बात नहीं करता, और जब उसे बताया जाता है कि वर्णव्यवस्था ने भारत को गुलाम बनाया, तो वह उस पर असहमति जताता है, कहता है वर्णव्यवस्था तो संसार की सबसे श्रेष्ठ व्यवस्था है. तथाकथित हिंदूसुधारक भी यही कहते हैं. स्वामी दयानंद का भी यही विचार था, ईसाईयों और मुसलमानों से उन्हें भी सख्त नफरत थी, अपनी नफरत में वह आरएसएस से भी एक कदम आगे थे, उनके लिए कबीर, रविदास, नानक आदि वर्णव्यवस्था के विरोधी संत भी निंदा के पात्र थे. अपवाद स्वामी विवेकानंद भी नहीं थे. लगता है आरएसएस ने नफरत का कुछ हिस्सा स्वामी दयानन्द से भी लिया है. इसलिए, मुसलमानों और ईसाईयों से आरएसएस की नफरत का कारण भारत पर उनका हमला करना नहीं है, क्योंकि विदेशियों के हमले तो उनसे पहले भी भारत पर होते रहे थे. पर उनकी नफरत का कारण इससे कहीं ज्यादा बड़ा है, इतना बड़ा कि उसने हिन्दू राष्ट्र का खेल बिगाड़ दिया है, इसीलिए आरएसएस को मुसलमानों और ईसाईयों से गहरी नफरत है, जिसके लिए वह उन्हें माफ़ करने को तैयार नहीं है. वह बड़ा कारण यह है कि मुस्लिम और ईसाई शासकों ने वर्णव्यवस्था को भंग कर दिया था. मैं यहाँ भंग शब्द ही इस्तेमाल कर सकता हूँ, क्योंकि वे ध्वस्त नहीं कर सके थे. आज भी वर्णव्यवस्था ध्वस्त नहीं है, पर भंग है. और वह मुसलमानों के काल से ही भंग चल रही है. यह भंग ही वह शूल है, जिसके दर्द से आरएसएस आज तक बिलबिलाया हुआ है. मुस्लिम और ईसाई शासकों ने वर्णव्यवस्था को कैसे भंग किया था? उन्होंने कोई आन्दोलन नहीं चलाया था. उन्होंने सिर्फ यह किया था कि शिक्षा को आम कर दिया था. यानी, जो शिक्षा सिर्फ ब्राह्मणों तक सीमित थी, वह आम हो गई थी, यह हिन्दू भारत के इतिहास में बड़ा क्रांतिकारी काम हुआ था. जो युगों से शिक्षा से वंचित थे, वे अब पढ़-लिख सकते थे. इसी परिवर्तन से ब्राह्मणवाद को चुनौती मिलनी आरम्भ हुई. अगर मुस्लिम और ईसाई शासकों ने शिक्षा को आम नहीं किया होता, तो क्या कोई सोच सकता था कि मुस्लिम काल में कबीर, रैदास और अंग्रेज काल में डा. आंबेडकर पैदा हुए होते? ब्राह्मणों ने अपनी शर्म छिपाने के लिए कबीर और रैदास को अनपढ़ बता दिया, इससे भी संतोष नहीं हुआ, तो मनगढ़ंत कहानियाँ लिख कर उन्हें पूर्व जन्म का ब्राह्मण घोषित कर दिया. इससे भी संतोष नहीं हुआ तो उनको ब्राह्मण रामानन्द का शिष्य भी बना दिया. इसी तर्ज पर वह धीरे-धीरे डा. आंबेडकर को भी ठिकाने लगाने का काम कर रहा है. इस सबके पीछे सिर्फ वर्णव्यवस्था है जिसमें ज्ञान के क्षेत्र में ब्राह्मण अधिकारी है और गैर-ब्राह्मण अनधिकारी है.
      इसलिए आरएसएस की नफरत इस बिना पर नहीं है कि मुस्लिम और ईसाई शासकों ने भारत को गुलाम बनाया, बल्कि उसकी नफरत का कारण यह है कि उन्होंने शिक्षा को सार्वजनिक करके वर्णव्यवस्था को भंग कर दिया, जिससे अधिकारी और अनधिकारी का भेद खत्म हो गया. यह कोई छोटी बात नहीं है. इससे बड़ा भारी परिवर्तन हुआ था. और वह यह कि जो उसकी नजर में कीड़े-मकोड़े थे, उनमें जान आ गई थी, जिन जातियों को उन्होंने कोमा में रखा था, और हमेशा रखना चाहते थे, वे अचानक जाग गई थीं. वे जागीं, तो हिन्दू फोल्ड से बाहर भी निकलीं, सम्मान और मुक्ति के लिए मुसलमान भी बनीं और ईसाई भी बनीं. और हजारों नहीं, लाखों की संख्या में बनीं. वहां वे छुआछूत से भी मुक्त हुईं, और सुशिक्षित होकर उन्होंने अपनी भावी पीढ़ियों का भविष्य बनाया. इस पृष्ठभूमि पर मदन दीक्षित का ‘मोरी की ईंट’ एक बेहतरीन उपन्यास है, जिसमें वह बताते हैं कि किस तरह दलितों के उत्थान को रोकने के लिए ब्राह्मणों ने भी भारी संख्या में इस्लाम और ईसाईयत में धर्मांतरण किया था, और उसमें भी ऊँच-नीच खड़ी करके उन्हें भी उन्होंने अपने जैसा ही ऊँचनीच वाला धर्म बनाकर छोड़ा. फिर भी इन धर्मों ने दलितों को मुक्ति का वह प्रकाश दिया, जो हिन्दूधर्म में संभव ही नहीं था. मैं हजारी नाम के एक स्वीपर युवक का उदाहरण देता हूँ. यह आज़ादी से पहले की बात है. हजारी मुरादाबाद जिले के बिलारी कसबे में स्वीपर परिवार से था. उसका पूरा परिवार मैला उठाने का काम करता था. हजारी युवक था, उसे एक अंग्रेज अधिकारी के घर खाना बनाने का काम मिल गया. कल्पना कीजिए, आज इस इक्कीसवीं सदी में भी कोई हिन्दू किसी दलित के हाथ का बना खाना नहीं खा सकता, वहां अंग्रेज का पूरा परिवार एक स्वीपर के हाथ का बना खाना खा रहा था. इसे कहते हैं, धर्म. आज़ादी के बाद वह अधिकारी हजारी को अपने साथ इंग्लेंड ले गया. वहां उसने धर्मपरिवर्तन किया, अंग्रेज युवती से विवाह किया, और एक सम्मानित अंग्रेज बन गया. आज वहां उसकी तीसरी-चौथी पीढ़ी में कोई भी नहीं जानता होगा कि वे स्वीपर समाज से हैं. लेकिन भारत में राष्ट्रपति बनकर भी आदमी की जाति नहीं जाती. उस हजारी ने इंग्लेंड में बैठकर अपनी आत्मकथा लिखी, और वह आत्मकथा अचानक दलित लेखक डा. धर्मवीर को इंग्लेंड की एक लाइब्रेरी में अपने अध्ययन के दौरान मिली. उसकी एक संक्षिप्त रिपोर्ट श्यौराज सिंह बेचैन ने ‘हंस’ में भी छपवाई थी.
      मुसलमानों और ईसाईयों से आरएसएस की नफरत का दूसरा कारण धर्मांतरण है. दलित जातियों में धर्मांतरण के मिशन ने हिंदुत्व की जड़ों में भरपूर मट्ठा डाला है, जिससे उसकी जड़ें सूखने लगी थीं और सूखी जड़ों को फिर से हरी करने के लिए ही वह मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ धर्मांतरण को एक आक्रामक मुद्दा बनाए हुए है.
      अब हिन्दू राजनीति आक्रामक के साथ-साथ फासीवादी भी हो गई है. वह हर प्रतिरोध को कुचल रही है. छत्तीसगढ़ में वह आदिवासियों के प्रतिरोध को कुचल रही है, और उत्तर प्रदेश में दलितों के प्रतिरोध का दमन कर रही है. क्या किसी राज्य के मुख्यमंत्री को अपनी निजी सेना रखने का संवैधानिक हक है? नहीं है. किन्तु राष्ट्रवाद के नाम पर योगी की हिन्दू युवा वाहिनी हिंदुत्व के विरोधियों के खिलाफ सक्रिय बनी हुई है. जब सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का? किस पुलिस की मजाल है, जो उसके खिलाफ एक्शन लेगी. यह वाहिनी चाहे दलितों के घर जलाए, चाहे मुसलमानों को मारे-पीटे, चाहे उनकी हत्याएं करे, कोई बोलने वाला नहीं है, क्योंकि मामला राष्ट्रवाद का है, और इस राष्ट्रवाद के रास्ते में जो भी कोई आयेगा, उस राष्ट्रद्रोही की खैर नहीं. वह चंद्रशेखर रावण की तरह सीधे रासुका में जेल जायेगा. क्योंकि इस राष्ट्रवाद में हिन्दू युवा वाहिनी चलेगी, भीम आर्मी नहीं. अगर कोई और आर्मी चली, तो उसके नेता को इतना प्रताड़ित किया जायेगा, कि हिन्दू हिंसा के खिलाफ बगावत करने के लिए छह बार सोचेगा.
      एक राष्ट्रवाद गाय के नाम पर चल रहा है. रातोंरात गोरक्षकों के झुण्ड के झुण्ड पैदा हो गए हैं, जो इस शिकार की तलाश में निकलते हैं कि कोई दलित या मुसलमान गाय को ले जाता हुआ मिल जाए और उसे धर दबोच लिया जाए. फिर उसे जिन्दा तो बचना ही नहीं है. राष्ट्रवादी सीधा सा तर्क देंगे, वह गाय को काटने के लिए ले जा रहा था. फिर ‘हिन्दू हिंसा हिंसा न भवति’ का वेदवाक्य तो काम आएगा ही. इन्हीं तथाकथित राष्ट्रवादियों के कारण गत दिनों मेरठ में एक जख्मी और मरणासन्न गाय को इलाज के लिए पशु शोध संस्थान (IVRI), बरेली नहीं ले जाया जा सका, जिसे स्थानीय पशु चिकित्सक ने तुरंत इलाज के लिए बरेली ले जाने को कहा था. किन्तु, गोरक्षकों के डर से कोई भी ट्रक चालक गाय को बरेली ले जाने के लिए तैयार नहीं हुआ. गाय की मालकिन ज्योति सिंह ने 114 ट्वीटस सम्बन्धित अधिकारियों, भाजपा के नेताओं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और जिला मजिस्ट्रेट को किए, पर कोई असर नहीं हुआ.
यह राष्ट्रवाद है या फासीवाद? अफ़सोस कि आज इसी को लोकतंत्र की मुख्यधारा बनाया जा रहा है. कोई गीता की तारीफ करे, तो वह राष्ट्रवादी मुख्यधारा है, कोई गीता पर सवाल खड़े करे, तो वह राष्ट्रद्रोह है. आरएसएस सबको इसी मुख्यधारा में लाने का काम कर रहा है. उसके नेता अपने भाषणों में कहते हैं, मुसलमानों को मुख्यधारा में लाना है, ईसाईयों को मुख्यधारा में लाना है, दलितों को मुख्यधारा में लाना है, आदिवासियों को मुख्यधारा में लाना है. तो इसका सीधा अर्थ है कि इन सबको हिन्दूधारा में लाना है. राजी से आ जाएँ, तो ठीक. कुछ लोग आ भी गये हैं, भले ही उनके आने में उनकी व्यक्तिगत मुक्ति भी है. पर जो राजी से नहीं आयेंगे, उन्हें आने के लिए सत्ता का डंडा चल ही रहा है. वे उन सबको मुख्यधारा में लायेंगे, जो उनके समर्थन में नहीं हैं. लेकिन खुद देश की मुख्यधारा में नहीं आएंगे. देश की मुख्यधारा न गीता में है, न श्रीराम में है, और न गाय में है, बल्कि वह मुख्यधारा लोकतंत्र में है, संविधान में है और मानववादी सोच में है. पर आरएसएस के राष्ट्रवाद में इनकी कोई अहमियत नहीं है. उसके लिए मानववाद, समतावाद और सामाजिक न्याय खतरनाक शब्द हैं. ये शब्द उनको भयभीत करते हैं, जैसे कुत्ते का काटा पानी से डरता है, वैसे ही वे इन शब्दों सेआरएसएस डरता है. वे इन शब्दों से इसलिए डरते हैं, क्योंकि इनका कभी सामाजिक शोषण नहीं हुआ, कभी आर्थिक शोषण नहीं हुआ, कभी धार्मिक शोषण नहीं हुआ. वे समाज में ऊँचे हैं, अर्थ में ऊँचे हैं, धर्म में ऊँचे हैं. दूसरे शब्दों में इनके पास निरंकुश सामाजिक सत्ता है, अकूत आर्थिक सत्ता है, और सर्वमान्य धार्मिक सत्ता है. अब राजनीतिक सत्ता भी उनके पास है. इसलिए इन्हें शोषण का अनुभव ही नहीं है, शोषण करने का अनुभव है. इन्हें अन्याय का अनुभव ही नहीं है, अन्याय करने का अनुभव है. इन्हें उत्पीड़न का अनुभव ही नहीं है, उत्पीड़न करने का अनुभव है. इन्हें क्रान्ति की जरूरत ही नहीं है, इसलिए क्रान्ति के शब्द सुनकर ये परेशान हो जाते हैं, जैसे इनके कानों में किसी ने पिघला हुआ सीसा डाल दिया हो.
कैसे निपटेंगे इस राष्ट्रवाद से? यह चिंता का विषय इसलिए भी है कि इससे जो वर्ग सबसे ज्यादा पीड़ित है, वही इस राष्ट्रवाद से सबसे ज्यादा चिपटा हुआ है. उसे इस बात का दुःख नहीं है कि उसके बच्चों को ठीक से शिक्षा नहीं मिल रही है, अस्पतालों में इलाज नहीं हो पा रहा है, वह अपना घर नहीं बना पा रहा है, उसका रोजगार चला गया है, नया रोजगार मिल नहीं रहा है, बाज़ार में महंगाई बढ़ गई है, दवाइयां महंगी हो गई हैं. लेकिन वह इस बात से खुश है कि अब मन्दिर बन जायेगा, अयोध्या में श्रीराम की विशाल मूर्ति लगेगी, उसे यह ख़ुशी है कि गाय कटनी बंद हो गयी हैं, वह इस बात से खुश है कि मोदी और योगी ने मुसलमानों को ठीक कर दिया है. लेकिन इस सबसे उसे क्या मिला है, उसका कौन सा विकास हो गया है, यह सोचने की शक्ति उसकी खत्म हो गई है. और यही आरएसएस की सबसे बड़ी कामयाबी है.
(19 नवम्बर 2017)

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