मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

डा. आंबेडकर और राष्ट्रवाद-3
(डा. आंबेडकर को मुस्लिम-विरोधी बनाने की संघी साजिश)
कॅंवल भारती
                आरएसएस किस तरह डा. आंबेडकर को ठिकाने लगाने का काम कर रहा है, उसकी एक बानगी है उसकी दलित आन्दोलन पत्रिकाका 125वें जन्मशती पर प्रकाशित विशेषांक, जिसके प्रधान सम्पादक डा. विजय सोनकर शास्त्री और सम्पादक संजय दीक्षित हैं। इसमें मुस्लिम समाज और डा. आंबेडकरशीर्षक से एक लेख छापा गया है, जिसमें बड़ी-बड़ी सुर्खियों में लिखा गया है-डा. आंबेडकर दुखी थे तुष्टीकरण की राजनीति से।इस लेख के लेखक का नाम नदारद है। जाहिर है कि सम्पादकों का ही संकलन है। हालांकि इस लेख का स्रोत नहीं दिया गया है, पर निश्चित रूप से इसकी सामग्री डा. आंबेडकर के ग्रन्थ पाकिस्तान ऑर दि पार्टिशन आॅफ इंडियाके ग्यारहवें अध्याय से ली गई है। लेख में मुसलमानों की उन 14 मांगों की सूची दी गई है, जिनमें साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध न करने, मुसलमानों को गोवध की स्वतन्त्रता देने, वन्दे मातरम का त्याग करने और उर्दू भाषा को सुरक्षित रखने की संवैधानिक गारण्टी देने की मांग भी शामिल है।
                लेख के संकलनकर्ताओं ने डा. आंबेडकर की इस पूरी पुस्तक को नहीं पढ़ा है, और मुझे यकीन है, उन्होंने उस अध्याय को भी पूरी तरह नहीं पढ़ा है, जिसमें यह सूची दी गई है; और यदि पढ़ा है, तो इतिहास का गलत पाठ करना आरएसएस के लोगों की आदत बन चुकी है। इस लेख को लेकर मेरी दो आपत्तियां  हैं। पहली आपत्ति यह है कि आरएसएस की इस दलित आन्दोलन पत्रिका में इस लेख को क्यों दिया गया, जिसका सन्दर्भ स्वतन्त्रता-पूर्व का कालखण्ड है? यह सन्दर्भ आज प्रासंगिक नहीं है। ये दो राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों-कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच की सत्ता-संघर्ष की लड़ाई थी। इस सत्ता-संघर्ष में हिन्दुओं की ओर से कांग्रेस और मुसलमानों की ओर से मुस्लिम लीग आमने-सामने थी। हिन्दुओं की ओर से राष्ट्रवाद का नारा चल रहा था, जिसमें हिन्दू महासभा का हिन्दू राष्ट्रवाद भी शामिल था। इसके विरोध में न केवल मुस्लिम लीग थी, बल्कि डा. आंबेडकर भी थे। मुसलमान और दलित दोनों कांग्रेस की हिन्दूवादी राजनीति से आक्रान्त थे, और वे उसे अपने ऊपर हिन्दू राज के रूप में देख रहे थे। डा. आंबेडकर ने यहाँ  तक कहा था, कि अगर ऐसी स्थिति में कांग्रेस के हाथों में सत्ता आती है, तो वे हिन्दू राज कायम करेंगे, जिसमें दलित वर्गों को हिन्दुओं के रहमोकरम पर रहना होगा। उन्होंने अत्यन्त तीखे शब्दों में यहाँ  तक कहा था कि भारत में दलित वर्ग अल्पसंख्यक हैं और हर तरह से कमजोर हैं। उनमें इतनी ताकत नहीं है कि वे हिन्दुओं के हाथों में से उनका भोजन भरा थाल छीन लें। पर वे मुट्ठीभर धूल फेंककर उनका भोजन खराब जरूर कर सकते हैं। अगर इन परिस्थितियों में कांग्रेस से मुस्लिम लीग द्वारा अपने मुस्लिम कौम के हित में कुछ संवैधानिक गारण्टी मांगना किस तरह से गलत था? डा. आंबेडकर ने कहीं भी मुस्लिम मांगों के सन्दर्भ में अपना मुस्लिम-विरोधी परिचय नहीं दिया है। अगर मुस्लिम मांगों की आलोचना भी की है, तो वह सिर्फ राजनीतिक आलोचना है। उसे उनकी उस नफरत का नाम नहीं दिया जा सकता, जो मुसलमानों के प्रति कांग्रेस  और हिन्दू महासभा के हिन्दुओं के दिलों में भरी हुई थी। और उसी नफरत को अब आरएसएस इस लेख के जरिए यहाँ  फैला कर डा. आंबेडकर को मुस्लिम-विरोधी बनाने की फूहड़ कोशिश का रही है।
                मेरी दूसरी आपत्ति यह है कि सौ साल पुरानी मुस्लिम मांगों को दलित आन्दोलन पत्रिका में छापकर, आरएसएस ने एक तीर से दो शिकार करने की सोची है। उनका पहला मकसद डा. आंबेडकर को मुस्लिम-विरोधी साबित करने का है, और दूसरा मकसद दलितों को मुस्लिम-विरोधी बनाने का है। और इस नफरत के साथ वे भारत को कहाँ  ले जाना चाहते हैं, यह हम सबको समझने की जरूरत है, और खासकर दलितों को आरएसएस की इस खतरनाक चाल से सावधान रहने की आवश्यकता है।
                डा. आंबेडकर ने अपने पाकिस्तान....ग्रन्थ में हिन्दू और मुस्लिम दोनों पक्षों की साम्प्रदायिक राजनीति का विश्लेषण किया है, और दो राष्ट्र के सिद्धान्त के आधार पर ही उन्होंने पाकिस्तान के विकल्प का समर्थन किया है। अगर पाकिस्तान नहीं बनता, तो डा. आंबेडकर का मत था कि क्या दो राष्ट्र सहअस्तित्व के साथ रह सकते थे? जब हिन्दुओं ने किसी दलित को प्रधानमन्त्री नहीं बनने दिया, तो इसकी कल्पना कैसे की जा सकती है कि अगर पाकिस्तान नहीं बनता, तो वे एक मुसलमान को प्रधानमन्त्री पद पर स्वीकार कर लेते?
                डा. विजय सोनकर शास्त्री ने यदि डा. आंबेडकर के ग्रन्थ को ठीक से पढ़ा होता, तो उन्होंने मुस्लिम दावे को भी ठीक से समझा होता। इसी ग्रन्थ में वे लिखते हैं कि 1915 में सिन्ध के हिन्दू सिन्ध को बम्बई प्रेसीडेंसी से अलग करना चाहते थे, परन्तु 1929 में उन्होंने साइमन कमीशन के समक्ष बम्बई प्रेसीडेंसी से सिन्ध के अलग होने का विरोध किया था। क्यों? इसका कारण बताते हुए डा. आंबेडकर लिखते हैं कि 1915 में सिन्ध में कोई प्रतिनिधि सरकार नहीं थी। अगर वहाँ  सरकार बनती, तो वह मुस्लिम सरकार होती। इसलिए हिन्दुओं ने अलग होने की वकालत की थी। किन्तु 1929 में हिन्दुओं ने अलग होने का विरोध इसलिए किया था, क्योंकि वे जानते थे कि सिन्ध में मुस्लिम सरकार बनेगी, जो उनके एकाधिकार अर्थात् वर्चस्व को खत्म कर देगी। यही नहीं, बंगाल के बारे में भी डा. आंबेडकर कहते हैं कि अपने इसी वर्चस्व को कायम रखने के लिए हिन्दुओं ने बंगाल के विभाजन का विरोध किया था। वे लिखते हैं, बंगाली हिन्दुओं की सम्पूर्ण इजारेदारी बंगाल और आसपास के संयुक्त प्रान्त तक में थी। यहाॅं सभी सिविल सेवाओं पर उनका कब्जा था। वह पूरा क्षेत्र उनका चारागाह था। अतः बंगाल के विभाजन का मतलब था उनकी वह इजारेदारी कम हो जाती। पूर्वी बंगाल से हिन्दुओं को वंचित होना पड़ता और उनका स्थान बंगाली मुसलमान ले लेते, जिनका बंगाल की सिविल सेवाओं में अब तक कोई स्थान नहीं था। एक अन्य स्थान पर डा. आंबेडकर ने कहा है-राष्ट्रवाद का मतलब धन, शिक्षा और सत्ता पर कब्जा करना है।
किन्तु, डा. आंबेडकर ने अपने इसी ग्रन्थ में हिन्दुओं को चेतावनी देते हुए कहा है-अपने हाथों में स्थान और ताकत का एकाधिकार रखने के दिन अब लद चुके हैं। राष्ट्रवाद के नाम पर वे हिन्दू समाज के निम्न वर्गों को धोखा दे सकते हैं, किन्तु वे मुस्लिम बहुमत को धोखा देकर सत्ता पर एकाधिकार नहीं बनाए रख सकते। अगर हिन्दू यह मानते हैं कि वे मुसलमानों को मूर्ख बनाकर स्थान और सत्ता पर कब्जा बनाए रखेंगे, तो यह उनकी मूर्खता होगी। अब्राहम लिंकन कह चुके हैं कि तमाम लोगों को हर समय मूर्ख बनाना सम्भव नहीं है।
(अभी इसके आगे और भी है.)
               



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