शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

डा. आंबेडकर और राष्ट्रवाद-4
कॅंवल भारती

यह आकस्मिक नहीं है कि डा. आंबेडकर के जन्मस्थल महू में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के कार्यक्रम की शुरुआत भारत माता की जयके नारों के साथ होती है। आकस्मिक यह भी नहीं है कि अब डा. आंबेडकर राष्ट्रवादी आंबेडकर हो गए हैं, और यह भी बिल्कुल आकस्मिक नहीं है कि डा. आंबेडकर और डा. हेडगेवार को समान सामाजिक मंच पर खड़ा कर दिया गया है। इस सबके पीछे निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश में आने वाले विधान सभा के चुनावों में दलितों को भाजपा से जोड़ने का उद्देश्य दिखाई देता है। इस पर कोई आपत्ति भी हमें नहीं है, क्योंकि जब सभी राजनीतिक दलों ने आंबेडकर का राजनीतिकरण किया है, तो भाजपा क्यों नहीं कर सकती?
लेकिन, हमारी आपत्ति डा. आंबेडकर को हिन्दूवादी बनाने पर है। हमारी आपत्ति उन्हें राष्ट्रवाद से जोड़ने और डा. हेडगेवार के बराबर दर्जा देने पर है। आरएसएस की यह सोच कि डा. आंबेडकर ने डा. हेडगेवार के ही सामाजिक समरसता कार्यक्रम को आगे बढ़ाया है, न केवल डा. आंबेडकर के दर्शन का कुपाठ है, बल्कि उन्हें, उनकी जड़ों से उखाड़कर, हिन्दुत्ववादी बनाकर, उनकी विचारधारा को दफन करने का उपक्रम भी है। राष्ट्रवाद और हिन्दूवाद एक साथ नहीं चल सकते। कोई भी व्यक्ति या तो राष्ट्रवादी होगा, या फिर हिन्दूवादी होगा; वह दोनों एक साथ नहीं हो सकता। सैद्धान्तिक रूप से समरसतावाद भी हिन्दू-मुसलमान और हिन्दू-ईसाई में भेद नहीं करता, जबकि आरएसएस का हिन्दुत्व यह भेद करता है।  इसका मतलब है कि आरएसएस की समरसतावाद की व्याख्या कुछ दूसरी है। आइए, देखते हैं कि उसकी यह व्याख्या क्या है? यह जानने के लिए हमें पहले यह देखना होगा कि उसने यह नारा कब दिया था?
भारत में, 1990 का दशक और उसके बाद का समय मण्डल और कमण्डल की राजनीति का कालखण्ड है। यही समय पिछड़ी जातियों के उभार का है, और यही दौर आक्रामक हिन्दू आन्दोलन का भी है। इसी काल में बाबरी मस्जिद ध्वस्त की गई और इसी काल में तत्कालीन प्रधानमन्त्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मण्डल कमीशन की सिफारिशें लागू की थीं, जिसके विरोध में पूरा देश जल उठा था। संयोग से 1990 में ही डा. आंबेडकर की सौवीं जयन्ती मनाई गई थी, जिसमें सभी राजनीतिक दलों ने अपने-अपने आंबेडकर गढ़े थे। इसी राजनीतिक अभियान में, कांशीराम ने सामाजिक परिवर्तन, विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सामाजिक न्याय और आरएसएस ने सामाजिक समरसता के शब्द डा. आंबेडकर के साथ जोड़े थे। कांशीराम के सामाजिक परिवर्तन के नारे के प्रतिरोध में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सामाजिक न्याय का नारा दिया था, जिसका अर्थ था मौजूदा समाज-व्यवस्था में ही न्याय की बात करना। किन्तु, आरएसएस को सामाजिक परिवर्तन और  सामाजिक न्याय के ये दोनों नारे रास नहीं आए, क्योंकि उसकी दृष्टि में ये दोनों नारे समाज में विघटन पैदा करने वाले थे। इसलिए, उसने उनके समानान्तर सामाजिक समरसता का नया नारा गढ़ा, जिसे उसने दीनदयाल उपाध्याय का मानव एकात्मवाद कहा। इसकी व्याख्या में उसने कहा कि जिस तरह हाथ की पाँचों  उंगलियां  समान नहीं होतीं, पर उनके बीच समरसता होती है, उसी तरह समाज में भी सब समान नहीं हो सकते, पर उनके बीच समरसता होनी चाहिए। यही सामाजिक समरसता है, जिसका अर्थ है, जो जैसा है, वह वैसा ही बना रहे, चमार चमार बना रहे, भंगी भंगी बना रहे, नाई नाई बना रहे, धोबी धोबी बना रहे, ब्राह्मण ब्राह्मण बना रहे, ठाकुर ठाकुर बना रहे और बनिया बनिया बना रहे, बस उनके बीच समरसता रहनी चाहिए। वस्तुतः यह सामाजिक समरसता निम्न जातियों को यथास्थिति में रखने का दर्शन है। इसलिए, आरएसएस इस बात की गारण्टी नहीं देता कि यदि निम्न जातियां  अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर, विकास की मुख्य धारा में आना चाहेंगी, तो उच्च जातियां  उनसे संघर्ष नहीं करेंगी? किन्तु अभी तक का अनुभव यही बताता है कि ऐसे मामलों में जातीय संघर्ष को उसने रोका नहीं है, बल्कि तेज ही किया है। ऐसी स्थिति में सामाजिक समरसता कैसे बनी रह सकती है? क्या निम्न जातियों के लिए हिन्दू धर्मगुरु और धर्मशास्त्र समरसता की बात करते हैं? या उनके विरुद्ध विषवमन करते हैं और उनकी गरिमा तथा प्रतिष्ठा को नकारते हैं? क्या इन सवालों पर विचार किए बिना, आरएसएस संगठनों के द्वारा डा. आंबेडकर की 125वीं जयन्ती को सामाजिक समरसता वर्ष के रूप में मनाने का क्या औचित्य है?
इंडियन एक्सप्रेस (14 अप्रैल 2016) में आरएसएस चिन्तक और भाजपा के महासचिव श्री राम माधव का लेख व्हाट दलितस् वान्टप्रकाशित हुआ है, जिसमें वह लिखते हैं कि दलित चार चीजें चाहते हैं-सम्मान, सहभागिता, समृद्धि और सत्ता। पहली दो की जिम्मेदारी, वह समाज पर डाल देते हंै, और अन्तिम दो के बारे में कहते हैं कि उसे सरकार पूरा कर सकती है। वे जोर देकर कहते हैं कि दलितों की सम्मान और सहभागिता की भूख’ (वह अधिकार को भूख कहते हैं) के लिए सामाजिक और धार्मिक संगठनों को काम करना चाहिए, तभी सामाजिक समानता आएगी। किन्तु, अन्तिम दो के लिए उनकी सरकार क्या काम कर रही है, उस पर उन्होंने कोई प्रकाश नहीं डाला है।
सामाजिक संगठनों की बात तो समझ में आती है, परन्तु धार्मिक संगठनों से उनका क्या अभिप्राय है? भारत के अधिकांश हिन्दू धार्मिक संगठन जातिव्यवस्था में अटूट विश्वास करते हैं। ऐसे धार्मिक संगठनों से, जो आज भी दलितों के मन्दिर-प्रवेश के विरोधी हैं और स्त्रियों को भी समान अधिकार देने को तैयार नहीं हैं, क्या यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे दलितों को सम्मान और सहभागिता का अधिकार देंगे? क्या यह सच नहीं है कि किसी भी हिन्दू धार्मिक संगठन का मकसद जातिव्यवस्था को समाप्त करना नहीं है, बल्कि उसे और मजबूत करना है। शंकराचार्य जैसे अनेक धर्मगुरु तो खुलकर जातिव्यवस्था का पक्ष लेते हैं। क्या यह इसी शिक्षा का परिणाम नहीं है कि अनेक गांवों में दलित अध्यापक, दलित प्रधान और दलित रसोइया तक को अपमानित किया जाता है।
राम माधव ने अपने लेख में स्वयं स्वीकार किया है कि डा. आंबेडकर को स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व की प्रेरणा भगवान बुद्ध से मिली थी। सवाल यह गौरतलब है कि उन्हें  यह प्रेरणा हिन्दूधर्म से क्यों नहीं मिली थी? क्या कोई भी यह मानने से इन्कार करेगा कि समानता की शिक्षा हिन्दूधर्म देता ही नहीं है, और स्वतन्त्रता तथा भ्रातृत्व के शब्द उसके शब्दकोश में है ही नहीं? लेकिन आरएसएस के विचारक इसे पूरी तरह नकारते हैं। राम माधव लिखते हैं कि किसी भी हिन्दू धर्मशास्त्र में विघटनकारी और भेदभावपूर्ण शिक्षा नहीं मिलती है। उनका कहना है कि जन्मना जातिव्यवस्थाकी जड़ें भले ही प्राचीन समय की वर्णाश्रमव्यवस्था में हैं, परन्तु वर्णाश्रमव्यवस्था ने कभी भी जातिभेद को मान्यता नहीं दी थी। उनके अनुसार जातिव्यवस्था उसके बाद आरम्भ हुई। इसके समर्थन में वह ऋग्वेद के एक मन्त्र (मण्डल 5, सूक्त 60, मन्त्र 5) का सन्दर्भ देते हैं-कोई छोटा-बड़ा नहीं है; सभी भाई-भाई हैं; हमें सबकी भलाई के लिए मिलकर कार्य करना चाहिए।अगर शिक्षा यह थी, तो फिर विघटनकारी और भेदभावपूर्ण जातिव्यवस्था कैसे आरम्भ हो गई? लेकिन इसका वह कोई खुलासा अपने लेख में नहीं करते हैं। सभी आरएसएस विचारक इसी तरह ऋग्वेद के हवाले से जातिव्यवस्था को नकारते हैं, और उसे मुगलों की देन बताते हैं। इस तरह वे न केवल अपने हिन्दूधर्म का गलत पाठ करते हैं, बल्कि इतिहास का भी कुपाठ करते हैं। राम माधव जिस ऋग्वेद के मन्त्र का हवाला देते हैं, वह रुद्रपुत्र मरुतों के सन्दर्भ में कहा गया है। उस मन्त्र का सही अर्थ इस प्रकार है-समान शक्ति वाले मरुत गण आपस में छोटे या बड़े नहीं हैं, वे सौभाग्य के लिए भ्रातप्रेम के साथ बड़े हुए हैं। मरुतों के पिता रुद्र नित्य युवा एवं शोभन कर्मों वाले हैं। इनकी माता पृश्नि गाय के समान दुहने योग्य है। ये दोनों मरुतों को कल्याणकारी हों।हैरानी की बात है कि राम माधव को ऋग्वेद में असुरों और दासों के विवरण नहीं मिले, जिन्हें मारने का खुला आवाहन उसमें किया गया है।
आइए, अब इस सवाल पर आते हैं कि दलित क्या चाहते हैं? लेकिन, क्या पहले यह नहीे जान लेना चाहिए कि आरएसएस क्या चाहता है? और हिन्दू क्या चाहते हैं? आरएसएस और उससे जुड़े तमाम हिन्दू अस्पृश्यता को जरूर नकारते हैं, और यह दिखाने के लिए वे दलितों के बीच सहभोज के आयोजन भी करते हैं। लेकिन वे हिन्दूसमाज का विघटन करने वाली जातिव्यवस्था को नहीं नकारते। तब, क्या जातिव्यवस्था का समूल नाश किए बिना वे अस्पृश्यता को मिटा सकते हैं? क्या जातिव्यवस्था का समूल नाश किए बिना वे हिन्दू समाज में एकता ला सकते हैं? कोई भी इन प्रश्नों का उत्तर हाँ’ में नहीं दे सकता। फिर सामाजिक समरसता एक आडम्बर नहीं है, तो क्या है?
भारत के दलित निश्चित रूप से स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व चाहते हैं, सम्मान, सहभागिता, समृद्धि और सत्ता इसी के अंग हैं। किन्तु आरएसएस ने कभी उनके पक्ष में यह आवाज नहीं उठाई। इसके उलट, उसने हमेशा दलितों के स्वतन्त्र विकास को रोकने के लिए अपनी भाजपा सरकार पर राजनीतिक दबाव बनाया। उसी के दबाव में दलितों को उच्च शिक्षा से वंचित करने के लिए उन्हें मिलने वाली फैलोशिप (छात्रवृत्ति) रोकी गई। स्पष्ट है कि आरएसएस का मकसद दलितों का विकास करना नहीं है, बल्कि उनको अपने हिन्दूराष्ट्र से जोड़ना है, जो भारतीय लोकतन्त्र के लिए एक घातक विचारधारा है।
इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि आज राष्ट्रवाद और भारत माता दोनों को आरएसएस और भाजपा ने अपना मुख्य राजनीतिक एजेण्डा बनाया हुआ है। जो भारत माता की जय नहीं बोल रहा है, उसे वे देशद्रोही घोषित कर रहे हैं; और, सरे आम पीट रहे हैं। उनके नेता, सन्त, बाबा और योगी उनको सरेआम कत्ल करने की धमकियां दे रहे हैं। यह कैसा राष्ट्रवाद है, जो भारत माता की जय बोलने से बनता है? आज जिस तरह वे डा. आंबेडकर को राष्ट्रवादी घोषित करके, भारत माता के जयकारे के साथ उनकी जयन्ती मना रहे हैं, उससे समझा जा सकता है कि उन्होंने किस चालाकी से देश को राष्ट्र में बदल दिया है, और देशभक्ति को राष्ट्रवाद में बदल दिया है। वे इस छद्म राष्ट्रवाद के सहारे, जो हिन्दूराष्ट्रवाद का ही प्रछन्न रूप है, पूरे देश में दो काम करना चाहते हैं, एक-दलितों को भाजपा से जोड़ना, और दो-उनको डा. आंबेडकर की क्रान्तिकारी विचारधारा से काटना। लेकिन भारत के दलित वर्गों को डा. आंबेडकर की इस चेतावनी को सदैव स्मरण रखना है कि-यदि राष्ट्रवाद जीवन के पुनर्निमाण और पुनर्गठन के रास्ते में बाधक बनकर खड़ा होता है, तो उस राष्ट्रवाद को अस्वीकार करना होगा। राष्ट्रवाद तभी अच्छा है, जब लोकतन्त्र के तीनों पहिए-संसद, कार्यपालिका और संवैधानिक संस्थाएं राष्ट्रीय सम्वेदनाओं के साथ सभी समुदायों के हित में चलते हैं।
(15 अप्रैल 2016)




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