शनिवार, 30 अप्रैल 2016

आईआईटी में संस्कृत
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कॅंवल भारती

भारत सरकार की मानव संसाधन विकास मन्त्री श्रीमती स्मृति ईरानी ने भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में संस्कृत पढ़ाने पर जोर दिया है। जाहिर है कि यह फैसला स्मृति ईरानी का नहीं है, क्योंकि संस्कृत भाषा से उनका कोई सम्बन्ध कभी नहीं रहा;  वे न खुद संस्कृत पढ़ी हैं और न उनके बच्चे पढ़े हैं।  उनकी शिक्षा का माध्यम भी उसी तरह अंग्रेजी रहा है, जिस तरह तमाम भारतीय नेताओं का रहा है। निश्चित ही इस निर्णय के पीछे आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) का एजेण्डा है, जिसे वह अपनी सरकार में लागू कराना चाहता है। आइए, इस बहाने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी पर कुछ चर्चा करते हैं।
अतीत में ब्राह्मणों ने संस्कृत को सार्वजनिक भाषा नहीं बनने दिया, उसे उन्होंने अपने वर्ग तक ही सीमित रखा, और आम जनता को हमेशा उससे दूर रखा। इसका कारण कुछ भी रहा हो-आम जनता को अनपढ़ बनाए रखना या वर्णव्यवस्था के अनुसार शूद्र वर्ण को शिक्षा से वंचित कर ब्राह्मणी वर्चस्व कायम करना-उस पर बहस करना इस लेख का विषय नहीं है, बल्कि इस लेख में मैं दो सवाल रखना चाहता हूॅं-पहला, जब जनता संस्कृत पढ़ना चाहती थी, तब उसे पढ़ने क्यों नहीं दिया गया, और, दूसरा, आज जनता जब संस्कृत पढ़ना नही चाहती, तो उसे पढ़ने पर जोर क्यों दिया जा रहा है? माना कि भारतीय लोकतन्त्र ने वर्णव्यवस्था को कानूनी रूप से समाप्त कर दिया है, और शिक्षा के दरवाजे सब के लिए खोल दिए हैं, परन्तु यह संस्कृत को सार्वजनीन बनाने का कारण नहीं हो सकता। अगर इसे एक कारण मान भी लिया जाय, तो सवाल यह पैदा होता है कि केन्द्र में, या जिन-जिन राज्यों में आरएसएस और भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) सत्ता में आते हैं, तो उन्हीं को संस्कृत की चिन्ता क्यों होती है? हालांकि भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल संस्कृत के विकास के लिए आज भी केन्द्र में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान और लगभग सभी राज्यों में संस्कृत अकादमियां  तथा शिक्षण संस्थान काम कर रहे हैं, जो प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए खर्च करते हैं। देशभर में चल रहे आरएसएस के स्कूलों में भी संस्कृत अनिवार्य रूप से पढ़ाई जा रही है। परन्तु, इसके बावजूद संस्कृत भारत की जनता के दिलों पर राज नहीं कर सकी। क्यों? इतने संसाधनों और संस्थानों के बाद भी अगर संस्कृत की स्थिति दयनीय है, तो क्या आईआईटी में उसे लागू करने से वह जनभाषा बन जाएगी?
अब मैं इस सवाल पर आता हूँ कि संस्कृत के प्रति आरएसएस की मुख्य चिन्ता क्या है? दरअसल ब्राह्मणों ने अतीत में, और उस अतीत में, जिसे वे अपना स्वर्णयुगकहते हैं, संस्कृत को राजभाषा बनाया था, और चूँकि तब उनके समक्ष अन्य किसी अभारतीय भाषा-अर्थात् समानान्तर विदेशी धर्म और उसकी भाषा-की कोई बड़ी चुनौती नहीं थी, इसलिए उन्होंने संस्कृत पर अपनी इजारेदारी कायम रखी थी, और यह उनके लिए इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि राजभाषा हमेशा आर्थिक संसाधन अर्थात रोजी-रोटी की भाषा होती है। चूँकि वर्णव्यवस्था में अन्य वर्णों की जीविका सुनिश्चित थी, और बौद्धिक जीविका केवल ब्राह्मण के लिए तय की गई थी, इसलिए उसने संस्कृत पर अपना वर्चस्व बनाकर ठीक ही अपना भविष्य सुरक्षित करने का काम किया था।
हिन्दुओं के स्वर्णयुगके बाद, भारत में, मुस्लिम सल्तनत और मुगल राज कायम हुआ। भारतीय समाज में एक नए अभारतीय धर्म इस्लाम का प्रवेश हुआ, और फारसी भाषा राजभाषा बन गई। यह ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग के लिए एक बड़ी चुनौती थी-न केवल उनके धर्म के लिए, बल्कि उनकी जीविका के लिए भी। वह अब मात्र संस्कृत आधारित धार्मिक अनुष्ठानों और पठन-पाठन के बल पर जिन्दा नहीं रह सकता था, बल्कि उसे सरकारी नौकरियां भी चाहिए थीं, जिसके लिए फारसी का ज्ञान अनिवार्य था। इसलिए जीविका के भावी संकट को देखते हुए, ब्राह्मण बुद्धिजीवी वर्ग फारसी सीखने में सबसे आगे आया। लेकिन, इसके साथ ही इस्लाम भी एक बड़ी चुनौती के रूप में उसके सामने था, क्योंकि उसके सामाजिक समानता और भाईचारे के दर्शन ने वर्णव्यवस्था और जातिभेद से पीडि़त शूद्र-अछूत जातियों के लिए मुक्ति का दरवाजा खोल दिया था। उनमें हिन्दू वर्णव्यवस्था के खिलाफ विद्रोह पैदा हो गया। इससे निपटने के लिए दक्षिण से ब्राह्मण सन्तों ने भक्ति आन्दोलन चलाया, जिसके प्रतिरोध में उत्तर में निम्न जातियों के सन्तों ने हिन्दू वर्णव्यवस्था के विरुद्ध जनभाषा में निर्गुण आन्दोलन चलाया। पहली दफा जनता की अभिवयक्ति को जनता की भाषा में आने का अवसर मिला। ब्राह्मण सन्तों ने भी संस्कृत को छोड़कर, हिन्दी को अपनाया, और मजबूरी में ही सही, निम्न जातियों को भी अपने साथ लेने का प्रयास किया, हालांकि वहाँ  उन्हें सम्मान और समता का स्थान कभी नहीं मिला। ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग फारसी का ज्ञान प्राप्त करके, मुस्लिमों के अधीन सरकारी नौकरियों में ही नहीं आ गया था, बल्कि वह मुस्लिम सत्ता को, काजियों और उलेमाओं (धर्मगुरुओं) के मार्फत, हिन्दुओं के धार्मिक मसलों-विशेषकर, वर्णव्यवस्था और परम्पराओं में दखल न देने के लिए राजी करने में भी सफल हो गया था। इस्लाम की बड़ी चुनौती को कमजोर करने में इस सन्धि ने सचमुच बड़ी भूमिका निभाई थी।
लेकिन, ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग का खेल तब बिगड़ गया, जब भारत में अंगे्रज आ गए। वे भी एक धर्म (ईसाईयत) और एक भाषा (अंगे्रजी) लेकर आए, जो उसके लिए इस्लाम से भी बड़ी चुनौती साबित हुई। अंगे्रजों ने शिक्षा को सार्वजनिक बनाया और उसका माध्यम बनाया अंगे्रजी को। उन्होंने फारसी के स्थान पर अंगे्रजी को अदालतों और राजकाज की भाषा बनाया। अब वकालत और दूसरे पेशों में जाने के लिए अंगे्रजी की पढ़ाई जरूरी थी। अब फारसी के ज्ञान से ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग की जीविका चलने वाली नहीं थी। लिहाजा, फारसी छोड़कर अंग्रेजी पढ़ने के लिए भी यही वर्ग सबसे आगे आया। हालांकि, मुस्लिम बौद्धिक वर्ग ने अपने धार्मिक कारणों से अंगे्रजी का विरोध जारी रखा था, क्योंकि फारसी उनकी संस्कृति से जुड़ी भाषा थी, जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे, पर बाद में उनका भी एक तबका अंगे्रजी के समर्थन में खुलकर सामने आ गया था। किन्तु, ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग ने अंग्रेजी पढ़कर न केवल ब्रिटिश के अधीन शासन-प्रशासन और न्यायपालिका में महत्वपूर्ण पद हासिल किए; न केवल अपनी भावी पीढ़ी की जीविका की सुरक्षा के लिए अपने बच्चों को विलायती शिक्षा और तौर-तरीके सीखने के लिए इंग्लैण्ड पढ़ने भेजा, बल्कि अपनी धार्मिक अंधी परम्पराओं के समर्थन में अंगे्रजों का विरोध करते हुए वे रूढि़वादी भी बने रहे। अंगे्रजी को उन्होंने सिर्फ अपनी रोजी-रोटी के लिए अपनाया, ज्ञान की एक नई रोशनी के रूप में वे उसे कभी नहीं अपना सके। कुछ ने अंग्रेजी को हिन्दूधर्म की आधुनिक व्याख्या का हथियार बनाया, और विदेशों में जाकर, अंगे्रजी में हिन्दूधर्म समझाया। पर, भारत में वे अपने धार्मिक अंधविश्वासों से कभी मुक्त नहीं हुए। उन्होंने बालविवाह, आजीवन वैधव्य, सतीप्रथा, वर्णव्यवस्था और अस्पृश्यता का हमेशा समर्थन किया, यहाॅं तक कि शास्त्रों के आधार पर उनका औचित्य भी साबित किया। यह शिक्षा उसे वस्तुतः संस्कृत से मिली थी, जबकि अंगे्रजी शिक्षा इस रूढि़वाद के एकदम खिलाफ थी।
अतः, इसी ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग में से, एक कट्टर हिन्दूवादी वर्ग निकलकर सामने आया, जिसके अब दो-दो दुश्मन थे- इस्लाम और ईसाईयत। उनका दूसरा दुश्मन ईसाई धर्म, दुर्भाग्य से कट्टरवादी मुसलमानों का भी था। हिन्दू जिन्हें अछूत कहकर गुलाम बनाए हुए थे, इस्लाम उनमें से काफी लोगों को अपने फोल्ड में समा चुका था, और अब ईसाई मिशनरी भी दलित इलाकों में स्कूल, अस्पताल और चर्च कायम करके उन्हें ईसाई बना रहे थे। इससे हिन्दूवादी ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग ज्यादा चिन्तित था। दलितों को केवल संख्या में हिन्दू गिनने वाले इस ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग की चिन्ता यह थी कि अगर दलितों का इस्लाम और ईसाईयत में धर्मान्तरण होता रहा, तो हिन्दू अल्पसंख्यक हो जायेंगे, और संख्या के आधार पर राजसत्ता पर कभी काबिज नहीं हो पायेंगे।
इसी सोच ने हिन्दूराष्ट्र के विचार को जन्म दिया, और भारत को हिन्दूराष्ट्र बनाने वाला एक आक्रामक हिन्दू संगठन हिन्दू महा सभाअस्तित्व में आया। इसी की उग्र राजनीति की प्रतिक्रिया में मुस्लिम राष्ट्र का मुद्दा भी सक्रिय हुआ। इन दो राष्ट्रों के परस्पर संघर्ष का भयंकर परिणाम भारत के इतिहास में दर्ज है, जिसने भारत की धरती को ही लाल नहीं कर दिया था, वरन् दोनों समुदायों के दिलों में कभी न मिटने वाली नफरत भी भर दी थी, जो आज तक कायम है। इसी के कारण, भारत का विभाजन हुआ, और अंग्रेज दोनों टुकड़ों को आजाद करके चले गए।
उसी हिन्दूराष्ट्रवाद की संकीर्ण विचारधारा पर आज आरएसएस काम कर रहा है। यह संस्कृत का मुद्दा इसी इतिहास के गर्भ से निकला है। 1 दिसम्बर 1939 को, हिन्दू महासभा के कलकत्ता अधिवेशन में उसके अध्यक्ष वी. डी. सावरकर ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में कहा था-
संस्कृत हमारी देवभाषा और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा होगी। संस्कृत हम हिन्दुओं के लिए सभी भाषाओं में सबसे ज्यादा पवित्र है, क्योंकि हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थ, इतिहास, दर्शन, सभी की जड़ें संस्कृत-साहित्य में इतनी गहरी जमी हुई हैं कि वह हमारी जाति का मस्तिष्क और बुद्धि बन गया है। इसलिए संस्कृत भाषा हमेशा ही हिन्दू युवकों के लिए शास्त्रीय पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग होनी चाहिए।
                उल्लेखनीय है कि आरएसएस भी शिक्षण संस्थानों में संस्कृत को लगाए जाने की बात इसीलिए कर रहा है, ताकि (हिन्दू) युवक शास्त्रीय पाठ्यक्रम का अध्ययन कर, उसके ज्ञान को अपना मस्तिष्क और बुद्धि बनाएँ। अपना मस्तिष्क और बुद्धि बनाने का मतलब है, हिन्दू युवक हिन्दूधर्म की उन सभी व्यवस्थाओं पर गर्व करें, जो आज असंवैधानिक और अमानवीय घोषित की जा चुकी हैं। लेकिन आरएसएस को इसकी जरूरत क्यों पड़ रही है? अब मैं इस सवाल पर आता हूँ।
                भारत के विभाजन के बाद, हिन्दू संगठनों की समस्या और उलझ गई। अंग्रेज चले गए थे, पर उनके लिए चुनौती के रूप में कुछ मिशनरी रह गए थे, जो दलित आदिवासियों के बीच शिक्षा-प्रसार का काम कर रहे हैं। मुसलमानों का पाकिस्तान बन गया था, पर एक बड़ी मुस्लिम आबादी के भारत में ही रह जाने के कारण मुसलमान भी उनके हिन्दूराष्ट्र के लिए एक बड़ी चुनौती बने हुए हैं। ईसाई और इस्लाम भारत में हिन्दुत्व के लिए चुनौती इसलिए नहीं है कि लोकतन्त्र में हिन्दू संगठनों अर्थात् आरएसएस का विश्वास नहीं है, लोकतन्त्र में उनका विश्वास है, पर उनका विश्वास अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक स्वतन्त्रता में नहीं है, जिसका अधिकार भारत का संविधान देता है। इसलिए आरएसएस की चिन्ता यह है कि मुसलमान अपने मदरसों में अपनी धार्मिक  अरबी पढ़ा रहे हैं, कुरान पढ़ा रहे हैं और पूरा इस्लामी इतिहास पढ़ा रहे हैं, जिसे पढ़कर मुस्लिम लड़के उग्रवादी-यानी, उनकी दृष्टि में, हिन्दूविरोधी बन रहे हैं, जबकि हिन्दू युवा संस्कृत न पढ़कर हिन्दू इतिहास से अपरिचित हैं। बस,  इसी एक चिन्ता के कारण आरएसएस संस्कृत को सरकारी संस्थानों में पढ़ाने पर जोर दे रहा है।
                लेकिन,  यहाँ  यह सवाल उठना लाजमी है कि आरएसएस हिन्दू युवाओं को संस्कृत का शास्त्रीय साहित्य पढ़ाकर क्या मुसलमानों के विरुद्ध एक बिना सिर-पैर का हिन्दू राष्ट्र खड़ा करना चाहता है? क्या संस्कृत के शास्त्रीय साहित्य का अध्ययन इस्लामी साहित्य का मुकाबला कर सकता है, जिनका ज्ञान, दर्शन और इतिहास कुछ भी एक-दूसरे से मेल नहीं खाता है? क्या अरबी के मुकाबले संस्कृत रोजगारोन्मुख भाषा बन गई है? जिस तरह कोई अरबी सीखकर सऊदी अरब में रोजगार पा सकता है, क्या उसी तरह कोई संस्कृत सीखकर भारत या विदेशों में भी, कोई रोजगार नहीं पा सकता है। संस्कृत भाषी व्यक्ति तो गाईड के रूप में भी कहीं नौकरी नहीं पा सकता, क्योंकि वह कहीं बोली ही नहीं जाती है। शि़क्षक के रूप में संस्कृत जरूर कुछ लोगों को रोजगार दे रही है, पर संस्कृत को विज्ञान और चिकित्सा की भाषा बनाए बिना, जो असम्भव है, संस्कृत के शिक्षण पर भी धन खर्च करना अपव्यय ही है।
                एक भाषा के रूप में संस्कृत से हमारा कोई विरोध नहीं है। दलित-पिछड़ी जातियों को, अलबत्ता, यह जानते हुए भी कि संस्कृत साहित्य उनके विरोध का साहित्य है, संस्कृत से कोई गिला नहीं है। डा. आंबेडकर ने भी एक समय, संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था, ताकि शूद्र वर्ग संस्कृत पढ़कर यह जान जाय कि ब्राह्मणों ने उन्हें किस तरह कुचला है? इस अर्थ में संस्कृत का स्वागत है, पर अगर उसके माध्यम से हिन्दू युवकों को, भारत के अल्पसंख्यकों के विरुद्ध, हिन्दूराष्ट्र से जोड़ने का निहितार्थ है, तो आरएसएस को समझना चाहिए कि उसे अपने 91 वर्ष के लम्बे समय में यह कामयाबी आज तक नहीं मिली, और तो आगे भी मिलने वाली नहीं है, क्योंकि लोकतन्त्र और हिन्दू राष्ट्रवाद साथ-साथ नहीं चल सकते।
(30 अप्रैल 2016)














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