डा. आंबेडकर और राष्ट्रवाद—(1)
कॅंवल भारती
भारत में राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारण पर
डा. आंबेडकर ने काफी विस्तार से चर्चा की है। इस चर्चा में उन्होंने उसके हर पहलु
से विचार किया है। उनके अनुसार, ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की
स्थापना के साथ ही इस विषय पर बहस शुरु हो गई थी कि भारत एक राष्ट्र है या नहीं?
वे
लिखते हैं, कि आँग्ल भारतीय इस मत के थे कि भारत एक
राष्ट्र नहीं है, पर हिन्दू नेताओं का कहना था कि भारत एक
राष्ट्र है। उन्होंने राष्ट्रीय कवि रबीन्द्रनाथ टैगोर के विरोध की भी परवाह नहीं
की। आंबेडकर कहते हैं कि उनका सिद्धान्त दरअसल स्वराज के दावे से जुड़ा था,
जो 19वीं
सदी के अन्त तक यह सिद्धान्त प्रचलित हो गया था कि एक राष्ट्र के रूप में रहने
वाले लोग ही स्वराज के दावे के अधिकारी हैं। इसलिए, भारतीयों को
स्वराज माँगने के लिए अपने को एक राष्ट्र कहना जरूरी था। डा. आंबेडकर लिखते हैं कि
ऐसी स्थिति में हिन्दुओं के लिए राष्ट्र और राष्ट्रवाद को नकारने का मतलब अपने
कपड़े उतार कर नंगा होने के समान था। उनके अनुसार, इसी कारण से
किसी भारतीय ने राष्ट्रवाद का खण्डन नहीं किया, और जिसने किया,
उसे
उन्होंने अंगे्रजों के पिट्ठू और देश के शत्रु की संज्ञा दी। जैसा कि आज उन्हें
देशद्रोही कहा जा रहा है। आंबेडकर के अनुसार, इससे भयभीत
विरोधियों ने तो जवाब देना बन्द कर दिया, पर उसी वक्त मुस्लिम लीग ने मुस्लिम
राष्ट्र की घोषणा करके हिन्दू राजनीतिज्ञों के पैरों के नीचे से जमीन खिसका दी। यह
राष्ट्रीय कांग्रेस के हिन्दुओं के लिए बहुत बड़ा विस्फोट था, जिसे
कुछ नेताओं ने पीठ में छुरा घोंपे जाने की संज्ञा भी दी थी।
राष्ट्र और राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में डा.
आंबेडकर ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों राष्ट्रों का तार्किक विश्लेषण किया है।
राष्ट्रीयता के बिना न राष्ट्र सम्भव है और न राष्ट्रवाद। राष्ट्रीयता क्या है?
डा.
आंबेडकर लिखते हैं, राष्ट्रीयता एक सामाजिक भावना है, जो
लोगों में यह भाव जगाती है कि वे एक हैं और परस्पर सजातीय हैं। लेकिन यह राष्ट्रीय
अनुभूति दोधारी है। एक तरफ यह अपने लोगों के प्रति अपनत्व दिखाती है, तो
दूसरी तरफ यह उन लोगों के प्रति, जो उनके अपने नहीं हैं, नफरत का भाव पैदा करती है। इस प्रकार
यह वह जातीय चेतना है, जो लोगों को भावात्मक रूप से इतनी मजबूती से बांधे
रखती है कि सामाजिक और आर्थिक विषमता की समस्याएं भी उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं रहतीं;
पर,
अपने
से भिन्न समुदायों के प्रति यह घोर अलगाववादी चेतना है और शत्रुतापूर्ण भी। सार
रूप में, राष्ट्र और राष्ट्रीयता, असल में, यही है।
लेकिन आगे डा. आंबेडकर इस चेतना का खण्डन करते
हुए कहते हैं कि यह दुधारी राष्ट्रीयता भारत को एक राष्ट्र नहीं बना सकती। भारत एक
राष्ट्र उन्हीं परिस्थितियों में हो सकता है, जब या तो भारतीय
समाज जातिविहीन हो, या एक ही जाति-समुदाय का हो अथवा, वे
सभी भारतवासी एक भारतीयता के भाव से मजबूती से बॅंधे हों। किन्तु सच्चाई यह है कि
न भारतीय समाज जातिविहीन है, न वह एक ही जाति-समुदाय का है, और
न भारत के लोग एक भारतीयता के भाव से मजबूती से बॅंधे हुए हैं।
डा. आंबेडकर एक और मत व्यक्त करते हैं कि
राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद में अन्तर है। वे कहते हैं कि यह सच है कि राष्ट्रीयता
के बिना राष्ट्रवाद का निर्माण नहीं हो सकता, परन्तु यह कहना
हमेशा सच नहीं होता। लोगों में राष्ट्रीयता की भावना उपस्थित हो सकती है, पर
जरूरी नहीं है कि उनमें राष्ट्रवाद भी उपस्थित हो। दूसरे शब्दों में, राष्ट्रीयता
हमेशा राष्ट्रवाद को जन्म नहीं देती है। वे कहते हैं कि राष्ट्रीयता को राष्ट्रवाद
में बदलने के लिए दो शर्तें जरूरी हैं। पहली, लोगों में एक
राष्ट्र के रूप में रहने की इच्छा का जाग्रत होना, क्योंकि,
राष्ट्रवाद
इसी इच्छा की गतिशील अभिव्यक्ति है। और, दूसरी शर्त, एक ऐसे क्षेत्र
का होना, जो एक राष्ट्र का सांस्कृतिक घर बन सके।
किन्तु आजादी के बाद का भारत और पाकिस्तान का
इतिहास बताता है कि यह राष्ट्रवाद न भारत में पैदा हुआ और न पाकिस्तान में।
मुसलमानों ने पाकिस्तान का निर्माण अपने सांस्कृतिक घर के रूप में किया था,
पर
वहाँ भी एक राष्ट्र के रूप में रहने की इच्छा जाग्रत नहीं हो सकी, और
भाषाई राष्ट्रीयता के आधार पर वह विभाजित हो गया। भारत में भी जाति, धर्म,
भाषा
और क्षेत्रीयता की इतनी सारी राष्ट्रीयताओं के रहते एक राष्ट्र के रूप में रहने की
इच्छा कहाँ जाग्रत हो सकी है?
(कल, इसी विषय पर डा. आंबेडकर के हवाले से
कुछ और बातें)
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