मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

डा. आंबेडकर और राष्ट्रवाद-2
कॅंवल भारती
               
भारत एक राष्ट्र है, यह राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता साबित नहीं कर सके। किन्तु इस दावे में मुस्लिम लीग की दस्तक से हिन्दूमहासभा (सभा) ने हिन्दू राष्ट्र की बे-सिर-पैर की एक परिकल्पना गढ़ ली, जिसे अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पास-पोस रहा है। ठीक अंधे के हाथ बटेर लग जाने जैसा ही यह राष्ट्रवाद है। सभा ने इसे ऐसे लपका, जैसे उसे अलादीन का जादुई चिराग हाथ लग गया है, जिसे घिसकर वह उससे मनचाहे नतीजे निकाल लेगा। आरएसएस भी इसी उम्मीद में 90 सालों से इसे घिसे जा रहा है कि इसका जिन अब बाहर निकले और पूरे भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की उसकी ख्वाइश पूरी हो जाये, पर, उसकी ख्वाइश कभी पूरी नहीं हुई।
इस बे-सिर-पैर के हिन्दू राष्ट्र पर जो घटाटोप भारतीय राजनीति में हिन्दूसभा ने उत्पन्न किया था, उसे डा. आंबेडकर ने किस दृष्टि से देखा था, इस पर कुछ चर्चा करते हैं। राष्ट्रवाद के सवाल पर डा. आंबेडकर कांग्रेस और सभा के विचारों में कोई खास अन्तर नहीं करते थे। उनकी दृष्टि में वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू थे। वे कांग्रेस को भी एक हिन्दू संगठन ही मानते थे। वे लिखते हैं, ‘यह कहने का कोई फायदा नहीं है कि कांग्रेस हिन्दू संगठन नहीं है। कांग्रेस अपने गठन में ही हिन्दू संगठन है, और वह हिन्दू मानस की ही अभिव्यक्ति करता है। कांग्रेस और सभा में अन्तर सिर्फ इतना है कि जहां सभा अपनी अभिव्यक्ति में क्रूर और अशिष्ट है, वहाँ कांग्रेस अपनी नीतियों में चतुर और अभिव्यक्ति में शिष्ट है। इसके सिवा दोनों में कोई अन्तर नहीं है।
उस समय के एक हिन्दू नेता लाला हरदयाल, जो अमेरिका में गदर पार्टी की संस्थापक थे, बाद में आर्यसमाजी हुए, और फिर बाद में वी. डी. सावरकर (विनायक दामोदर सावरकर) के सम्पर्क में आकर पक्के हिन्दू राष्ट्रवादी हो गए थे। उन्होंने 1925 में बाकायदा अपना राजनीतिक वसीयतनामा जारी किया था, जिसमें उन्होंने हिन्दूराष्ट्र की अपनी परिकल्पना को मूत्र्त रूप देने के लिए घोषणा की थी कि हिन्दू जाति का भविष्य मुसलमानों की शुद्धि, अर्थात्, उनका धर्मपरिवर्तन कर उन्हें हिन्दू बनाने में है। इस पर डा. आंबेडकर ने चुटकी ली थी कि हिन्दूधर्म मिशनरी धर्म ही कहाँ है, जो वह धर्मपरिवर्तन का काम करेगा? और अगर मुसलमानों की शुद्धि करके उन्हें हिन्दू बनाया भी गया, तो वे उन्हें किस जाति या वर्ण में रखेंगे?
वी. डी. सावरकर, जो हिन्दूमहासभा के अध्यक्ष थे, हिन्दूराष्ट्रवाद के भी उद्भावक थे। सम्भवतः पहली दफा उन्होंने ही हिन्दुइज्म, हिन्दुत्व और हिन्दूडम को परिभाषित किया था। डा. आंबेडकर के अनुसार, सावरकर की परिभाषा इस प्रकार है-हिन्दू शब्द से ही अंग्रेजी में हिन्दुइज्म बना है, जिसका अर्थ वह धर्म-व्यवस्था है, जिसे हिन्दू मानते हैं। दूसरा शब्द हिन्दुत्व है, जिसका अर्थ कहीं ज्यादा व्यापक है। इसके अन्तर्गत सिर्फ हिन्दुओं का धर्म ही नहीं आता है, बल्कि उनके सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई और राजनीतिक पहलु भी आते हैं। यह हिन्दूपोलिटी अर्थात् हिन्दूराजतन्त्र के ज्यादा निकट है, और इस दृष्टि से इसका सही अनुवाद हिन्दूपन हो सकता है। तीसरा शब्द हिन्दूडम है, जो हिन्दूजगत का सामूहिक नाम है, जैसे इस्लाम मुस्लिम जगत का सामूहिक नाम है।
हालांकि सावरकर, डा. आंबेडकर के अनुसार, इस बात को स्वीकार नहीं करते कि हिन्दू महासभा का गठन मुस्लिम लीग के प्रतिरोध में किया गया है; किन्तु वे अपने हिन्दूडम में ऐसे स्वराज की जरूर कल्पना करते हैं, जिसमें सिर्फ हिन्दुत्व प्रभावी हो और उसमें गैर-हिन्दू लोगों का प्रभुत्व न हो, चाहे वे भारत की सीमा में रहने वाले हों या उसकी सीमा के बाहर। सावरकर के लिए औरंगजेब ही नहीं, बल्कि टीपू सुल्तान जैसे सुशासक भी हिन्दूजगत के शत्रु थे। उनके आदर्श शिवाजी, गोबिन्द सिंह, राणाप्रताप और पेशवा राजा थे, जिन्होंने हिन्दू स्वराज कायम करने के लिए मुस्लिम प्रभुत्व के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी। सावरकर ने हिन्दू स्वराज के लिए दो बातों पर जोर दिया था। एक यह कि देश का नाम हिन्दुस्तान रखा जाना चाहिए, भारत नहीं; और, दो, ‘संस्कृत हमारी देवभाषा और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा होगी। यानी, सावरकर को हिन्दी में उर्दू भाषा के शब्द भी स्वीकार नहीं थे।
डा. आंबेडकर ने दिखाया है कि सावरकर के हिन्दू स्वराज में गैर-हिन्दुओं के लिए एक उदार खिड़की खुली थी, कि उनके स्वराज की योजना में अल्पसंख्यकों को समान अधिकार देने की घोषणा की घोषण की गई थी, जैसा कि वे उनका यह उद्धरण देते हैं-हिन्दुस्तान में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को यह अधिकार होगा कि उन्हें समान नागरिक समझा जायगा और उन्हें उनकी जनसंख्या के अनुपात में समान संरक्षण और समान अधिकार प्राप्त होंगे।
किन्तु, यहाँ आंबेडकर ने बहुत सही सवाल उठाया है कि मुसलमानों के प्रति शत्रुता का बीज बो देने के बाद वे ऐसे स्वराज में हिन्दू विधान के तहत कैसे रह सकते हैं, जहां उन्हें सत्ता में प्रतिनिधित्व और कानून बनाने का अधिकार ही प्राप्त नहीं होगा?
डा. आंबेडकर लिखते हैं कि हिन्दू महासभा ने भारत को एक राष्ट्र मानने की बजाए हिन्दुओं को एक राष्ट्र मानने पर जोर दिया था। सावरकर ने 1939 में महासभा के नागपुर अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में भारत को एक राष्ट्र मानने की कांग्रेस की थियरी का खण्डन करते हुए कहा था कि कांग्रेस की की विचारधारा शुरु से ही गलत थी कि केवल प्रादेशिक एकता, और एक क्षेत्र में रहने मात्र से राष्ट्र का निर्माण हो जाता है। उन्होंने अनेक राष्ट्रों के हवाले से कहा कि वे सभी राष्ट्र बिखर गए, जो सन्धियों के आधार पर बनाए गए थे। किन्तु, उन्होंने आगे कहा कि हिन्दू सन्धि से बने राष्ट्र नहीं हैं, बल्कि वे एक सहज नैसर्गिक राष्ट्र हैं।
इस सन्दर्भ में डा. आंबेडकर का कहना है कि मामला वस्तुतः केवल प्रादेशिक एकता अथवा एक क्षेत्र में रहने मात्र से राष्ट्र बनने का नहीं है। यह सच है कि केवल प्रादेशिक एकता, और एक क्षेत्र में रहने मात्र से राष्ट्र नहीं बनता है, और यह भी सच है कि सन्धि के आधार पर भी राष्ट्र नहीं बनते हैं, परन्तु उनका कहना था कि सावरकर ने काॅंगे्रस की धारणा का खण्डन इस आधार पर किया है, क्योंकि वे अपने राष्ट्र में गैर-हिन्दुओं को शामिल करना नहीं चाहते थे। हालांकि हिन्दू भी नैसर्गिक राष्ट्र नहीं हैं। हिन्दू स्वयं में कोई जाति नहीं है, वरन् यह हजारों जातियों और उपजातियों में विभाजित समूह है, जिनके बीच में एकता का कोई सूत्र नहीं है और उनको परस्पर जोड़ने वाला वह हिन्दूपन भी उनमें नहीं है, जिसकी सावरकर वकालत करते हैं।
इस बे-सिर-पैर के राष्ट्रवाद ने भारत में कितना खून-खराबा किया, उसके इतिहास में मैं जाना नहीं चाहता और न उसे कुरेदने का कोई लाभ है। इतिहास सबक लेने के लिए होते हैं। पर, हिन्दूराष्ट्र के हिमायतियों के लिए इतिहास आज भी कोई मायने नहीं रखता। वे अतीत के मिथ्या स्वर्णकाल के इतिहास में जीते हैं, और यह जानते हुए भी वह केवल अतीत है, उसका पुनरुत्थान सम्भव नहीं है, लोकतन्त्र में उसका सपना देख रहे हैं।
किन्तु, डा. आंबेडकर की भविष्यवाणी सच साबित हुई। भारत में हिन्दूमहासभा का स्वराज तो कायम नहीं हुआ, पर आजाद भारत की शासन सत्ता कांग्रेस के राष्ट्रवादी हिन्दुओं के हाथों में आई। मुसलमानों को उनका पाकिस्तान मिल गया। परिणामत यह हुआ कि आजादी के केक का सबसे बड़ा हिस्सा हिन्दुओं ने ही खाया। थोड़ा सा नाममात्र का टुकड़ा दलितों के संघर्ष के कारण उनको मिला। पर, आदिवासियों, पिछड़ों और यहाँ रह गए देशभक्त मुसलमानों को वह भी नहीं मिला।
(तीसरी किश्त में-राष्ट्रवाद से जनता को सावधान करते हुए आंबेडकर ने कहा था: हमारा राष्ट्रवाद अन्तरराष्ट्रवाद है)


                 





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