बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

लोहिया, आंबेडकर और गाॅंधी
कॅंवल भारती

(यह आलेख रोशन प्रेमयोगी के उपन्यास आजादी: टूटी फूटीकी समीक्षा नहीं हैं, पर उसके बहाने लोहिया के समाजवाद की आलोचना है।)

अगर मैं 25 सितम्बर को लखनऊ पुस्तक मेले में नहीं जाता और वहाॅं भी अपने पत्रकार-उपन्यासकार मित्र रोशन प्रेमयोगी से भेंट न होती, तो मैं उनके नये उपन्यास आज़ादी टूटी-फूटीसे वंचित रह जाता। यह उपन्यास डा. राममनोहर लोहिया के समाजवाद की कहानी लगभग उन्हीं की जुबानी कहता है, जिसे प्रेमयोगी ने अपनी विशिष्ट कथा शैली में लिखा है। लेखक ने अपनी कल्पना में लोहिया जी के साथ उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों की यात्राएॅं की है, जिनमें वे इतिहास की यात्रा भी करते हंै। एक पत्रकार के रूप में वे लाहिया जी से उनके समाजवाद पर सवाल करते हैं, और लोहिया जी उनके जवाब देते हैं, जो काफी विचारोत्तेजक हैं। चूॅंकि उपन्यास सन्दर्भ ग्रन्थ नहीं होता, इसलिए यह मानकर चला जा सकता है कि लोहिया के विचारों में लेखक ने ही अपने को व्यक्त किया है।
                उपन्यासकार ने लोहिया से अपनी बातचीत इक्कासवीं सदी के दूसरे दशक में की है, इसलिए यह दिखाना भी उपन्यासकार का मकसद लगता है कि लोहिया आज होते, तो आज के राजनीतिक हालात पर वे किस तरह सोचते। उपन्यास के नायक तो लोहिया ही हैं, पर उनसे संवाद उमाशंकर वर्मा करते हैं, जो पेशे से पत्रकार हैं। उमाशंकर लखनऊ के हजरतगंज में टहलते हुए डा. राममनोहर लोहिया से संवाद आरम्भ करते हंै। लोहिया अपने संवाद में हजरतगंज पर टिप्पणी करते हैं कि वह पूॅंजीवाद और लूटवाद का मिक्स वेंचर है। जहाॅं वह वर्ग आता है, जिसके पास बहुत पैसा है। ऐसा पैसा जिसे अर्थशास्त्र की भाषा में ब्लैक मनी कहते हैं। गरीबों, मजदूरों, किसानों की योजनाओं में से लूटा गया पैसा। आगे राजनीतिक चर्चा है, जो विमर्श को बाध्य करता है। लोहिया पत्रकार के बताने पर भी यह जानने की कोशिश नहीं करते कि कौन उनकी खड़ाऊं सिर पर लेकर चल रहा है और कौन उनके विचारों पर साम्प्रदायिकता का महल बनवा रहा है। वे उमाशंकर को बताते हैं- जब मैंने इस देश में नेहरू के राजतन्त्रके विरुद्ध संग्राम छेड़ा, तो मेरे मन में उन्हें हटाकर प्रधानमन्त्री बनने...की महत्वाकांक्षा नहीं थी। मैं सिर्फ इतना चाहता था कि यदि अमीरों की रसोई में पनीर पक रहा है तो गरीब को भी रोटी के साथ नमक मिला मट्ठा खाने का अवसर मिले।वे आगे बताते हैं- मुझे पता था, संसद में सरकार से मेरे भिड़ने से क्रान्ति नहीं होगी। लेकिन मैं लड़ता रहा। नेहरू में इस बात का दम्भ था कि उन्होंने अपनी कूटनीति से नेताजी सुभाषचन्द्र बोस से लेकर डा. आंबेडकर तक को किनारे लगा दिया, तो यह लोहिया किस खेत की मूली है। आज देखो, इस देश में नेहरू के गुलाब को पछाड़ कर, लोहिया के बबूल और हरसिंगार हरियाली का बाग बन रहे हैं।’ 
वे अपना संवाद जारी रखते हैं, ‘नेहरूवाद का शीशमहल समाजवाद की आॅंधी में चूरचूर हो गया, और कम्युनिस्टों के कहवाघरों के आगे लोहिया के विचारों के डाकबंगले बन गए। माना कि इस देश में बड़े कद के नेता नहीं हैं, लेकिन यह क्या कम है, एक अकेली गौरैया (ममता बनर्जी) ने इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में वामपंथियों को राजमहल से निकालकर उसी तरह बाहर कर दिया, जिस तरह लोहिया के विचारों ने संसद भवन से पंडित नेहरू के काॅंग्रेसवाद को बीसवीं सदी के 80 वें दशक में निकाला था। डा. भीमराव आंबेडकर की असमय मौत न होती तो दिल्ली में कश्मीरी गेट के पास काॅंगे्रस पार्टी की मजार बनवाकर मैं महात्मा गाॅंधी के सपने को पूरा करता। ऐसा करने से मुझे सोवियत रूस भी न रोक पाता।’ (पृष्ठ 6) 
इस पर पत्रकार उमाशंकर लोहिया को आंबेडकर और गाॅंधी के बीच लम्बे वैचारिक संघर्ष की याद दिलाते हंै, ‘बाबासाहेब आंबेडकर ने तो पंडित नेहरू को वाॅकओवर दे दिया था। उनकी लड़ाई तो महात्मा गाॅंधी से थी, जब तक जिन्दा रहे, वह गाॅंधीवाद से लड़ते रहे।लोहिया जवाब देते हैं, ‘वह देश और समाज की लड़ाई नहीं थी डियर, वह तो दो राजनेताओं का अन्तद्र्वन्द्व और हितों का टकराव था।..उमाशंकर लोहिया की बात से सहमति जताते हैं, तो लोहिया आगे कहते हैं- महात्मा गाॅंधी कभी इस देश की संसद में कानून बनाने के लिए नहीं बैठे। प्रधानमन्त्री या फिर कैबिनेट मन्त्री बनकर उन्होंने देश का संचालन भी नहीं किया। उनसे फिर डा. आंबेडकर क्यों लड़ रहे थे, यह वे ही जानें, लेकिन मेरी राय यह है कि यदि महात्मा गाॅंधी ने गरीबों-दलितों-पिछड़ों और शोषितों के लिए पगडंडियों का निर्माण किया, तो डा. आंबेडकर को आगे बढ़कर राष्ट्रीय राजमार्ग बनाना चाहिए था। अक्तूबर 1947 में हम लोग मुम्बई में एक जलसे के बहाने मिले थे। मैंने उनसे अनुरोध किया कि चलिए गरीबों और वंचितों के हक के लिए मिलकर लड़ते हैं। मेरी भविष्य की आन्दोलन-नीति से वह सहमत थे। जातिवादी हाथियों को टैंªक्युलाइज करके उनकी शक्ति क्षीण करने के मेरे विचार भी उन्हें पसन्द आए थे। इससे मुझे उम्मीद बॅंधी थी एक नई जनवादी क्रान्ति की, जिसकी स्क्रिप्ट महात्मा गाॅंधी लिखते, और सूत्रधार डा. आंबेडकर व डा. लोहिया बनते। परन्तु शायद डा. आंबेडकर में ज्योतिबा फुले के विचारों पर आधारित रोडमैप पर मेरे साथ मिलकर आगे बढ़ने को लेकर हिचक थी, इसलिए एक दिन वह खुले तौर पर पं. नेहरू के पहलू में जाकर बैठ गए। यह वकील आंबेडकर की जीत और जननेता आंबेडकर की हार थी। उनकी तो धार्मिक भविष्यवाणी भी झूठी साबित हुई, सदी बीत गई परन्तु अब तक कोई बौद्ध क्रान्ति नहीं हुई है, और न आसार दिख रहे हैं।
यहाॅं ज्योतिबा फुले का जिक्र एकदम अप्रासंगिक है। जब स्क्रिप्ट गाॅंधी को लिखनी थी, तो रोडमैप भी गाॅंधी के विचारों पर ही बनना था। फिर फुले यहाॅं किस अर्थ में आए हैं, जबकि इससे पूर्व लोहिया के सम्पूर्ण संवाद में कहीं भी ज्योतिबा फुले का प्रसंग नहीं आया है। सम्भवतः यह ड्राफ्ट की गलती है, जिसे दजरअन्दाज किया जा सकता है।
लोहिया के विचारों को लेकर कुछ सवाल उभरते हैं। मसलन, यह सच है कि सिर्फ संसद में लड़ने से देश में क्रान्ति नहीं होती है। इसके लिए जनता के बीच जाना पड़ता है। लोहिया जनता के बीच गए भी थे, पर नतीजा क्या निकला? क्या वे काॅंग्रेसवाद और पूॅंजीवाद का खात्मा कर सके? सच यह भी है कि अपने को लोहिया का उत्तराधिकारी मानने वाले दल भी केन्द्र में काॅंग्रेस की सरकार का ही समर्थन करके उसकी जनविरोधी आर्थिक नीतियों को ही मजबूत करते रहे। पूॅंजीवाद ने निजी पूॅंजीवाद का रूप ले लिया, न जातिवाद खत्म हुआ और न साम्प्रदायिकता की आग ठण्डी हुई। क्या इस विफलता के लिए खुद लोहिया और उनके विचार ही जिम्मेदार नहीं थे? आइए देखते हैं कि उनका समाजवाद किस तरह का था? लेकिन पहले मैं इस भ्रम को दूर करना जरूरी समझता हूॅं कि संसद में लड़ने से क्रान्ति नहीं होती। क्रान्ति होती है, संसद से ही क्रान्ति होती है। पर यह इस बात पर निर्भर करता है कि संसद में किस तरह के लोग जाते हैं। अगर संसद में क्रान्ति की चेतना रखने वाले व्यक्ति चुनकर जाते हैं, तो वे निश्चित रूप से देश में गरीबों, मजदूरों और आम जनता के हित में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन के ही कानून बनाएंगे। लेकिन अगर संसद पर पूॅंजीवादी, सामन्तवादी, जातिवादी और साम्प्रदायिक शक्तियों का प्रभुत्व रहेेगा, तो उस संसद में कुछ भी चीखने-चिल्लाने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।
लोहिया नेहरू के घोर विरोधी थे और विरोधी इसलिए थे, क्योंकि नेहरू का झुकाव कम्युनिज्म की ओर था। इस अर्थ में लोहिया नेहरू के नहीं, वरन् नेहरू के कम्युनिज्म-प्रेम के विरोधी थे। इसका अर्थ है कि लोहिया को सबसे ज्यादा नफरत कम्युनिज्म से थी। उपन्यास यह भी बताता है कि नेहरू ने कभी गाॅंधी का विरोध नहीं किया, पर वे उनके कभी समर्थक भी नहीं रहे थे। सम्भवतः लोहिया इसी बिना पर नेहरू के विरोधी थे। अतः उपन्यास के अनुसार, गाॅंधी और कम्युनिज्म, ये दो चीजें थीं, जिसने लोहिया को नेहरू का विरोधी बनाया था। शायद आंबेडकर के प्रति भी लोहिया के झुकाव का कारण आंबेडकर का तथाकथित कम्युनिस्ट-विरोध ही हो सकता है। इस पर आगे चर्चा करेंगे। अभी नेहरू पर ही कुछ चर्चा...। सम्भवतः 1925 में नेहरू रूस गए थे, जहाॅं उन्होंने तीन साल रहकर 1917 की क्रान्ति के बाद के रूस को देखा था। उन्होंने वहाॅं सरकारी और सहकारी कृषि फारमों को देखा था, सबके लिए अनिवार्य, समान और निःशुल्क शिक्षा-व्यवस्था को देखा था और किस तरह वहाॅं की सरकार ने सब को रोजगार, मकान और चिकित्सा-सुविधा उपलब्ध कराई थी, इसे देखा था। रूस की समाजवादी व्यवस्था ने उन्हें प्रभावित किया था। रूस से लौटकर उन्होंने अपने अनुभवों पर एक किताब लिखी थी, जो हिन्दी में आॅंखों देखा रूसनाम से प्रकाशित हुई थी। जब देश को स्वतन्त्रता मिली और नेहरू प्रधानमन्त्री बने, तो उन्होंने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया। उन्होंने सहकारी और सरकारी क्षेत्रों का विस्तार किया, जिसने देश के लाखों नौजवानों को रोजगार दिया, और रिटायरमेंट के बाद उनकी सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था भी की। सवाल पैदा होता है कि लोहिया उस नेहरू को क्यों नकार रहे थे, जिसने रेल, सड़क परिवहन, बाॅंध, विद्युत, मिल, विश्वविद्यालय सबका सरकारी क्षेत्र में विकास किया था। आज यही सरकारी क्षेत्र तहस-नहस हो गया और बेरोजगारी चरम सीमा पर पहुॅंच गई। जो बैंक पहले प्राइवेट सेक्टर में थे, उनका भी इन्दिरा गाॅंधी ने एक झटके में राष्ट्रीयकरण कर दिया था। अब उन पर भी निजी क्षेत्र का संकट मंडरा रहा है।
पूॅंजीवाद के मुखर विरोधी माने जाने वाले लोहिया क्या सचमुच पूॅंजीवाद के विरोधी थे? क्या था उनका समाजवाद? जब वे यह कहते हैं कि उन्हें अमीर की रसोई में पनीर पकने से एतराज नहीं है, वह खूब पनीर खाए, पर गरीब को भी नमक के साथ रोटी खाने का हक मिलना चाहिए, तो लोहिया अमीर और गरीब की खाई पाटना नहीं चाहते थे, वरन् वे अमीर को भी बनाए रखना चाहते थे और गरीब को भी। अमीर माल-पुआ खाने के लिए कितना ही शोषण करे, चोरी करे, लूट करे, करता रहे, पर गरीब को भी रोटी मिलती रहे, पनीर के साथ नही, ंतो नमक के साथ। लोहिया का समाजवाद यदि यही था, तो माफ कीजिएगा, यह पूॅंजीवाद का ही उदार चेहरा है। लेकिन क्या गरीब की जरूरत सिर्फ रोटी-नमक है? उसे शिक्षा, चिकित्सा, कपड़ा और मकान नहीं चाहिए? क्या उसकी रसोई में पनीर नहीं पकना चाहिए? क्या वह अपने बच्चे को डाक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक बनाने का सपना नहीं देख सकता? उपन्यास में लोहिया की दृष्टि से इसमें कोई बात नहीं कही गई है।
सवाल यह नहीं है कि नेहरू का शीशमहल समाजवाद की आॅंधी में चूरचूर हो गया’, वरन् सवाल यह है कि समाजवाद भी कहाॅं कायम हो सका? अगर इस बात पर तालियाॅं बजाई जा सकती हैं कि बंगाल में ममता बनर्जी ने कम्युनिस्टों को राजमहल से निकालकर बाहर कर दिया, तो क्या यह खुशी राजमहल के अन्दर पूॅंजीवादियों के दाखिल हो जाने की नहीं है?
डा. आंबेडकर के बारे में लाहिया का यह कहना कि अगर आंबेडकर का अचानक निधन न हुआ होता, तो वे काॅंगे्रस पार्टी की मजार बनाकर गाॅंधी का सपना पूरा करते, हास्यास्पद ही लगता है। यह सच है कि गाॅंधी ने काॅंगे्रस पार्टी को खत्म करने की बात कही थी, लेकिन चुनावों में हराकर नहीं, वरन् वे काॅंगे्रस को भंग करके किसी दूसरी पार्टी का निर्माण चाहते थे। लेकिन लोहिया आंबेडकर के साथ गठजोड़ करके काॅग्रेस के खिलाफ माहौल बनाकर उसे चुनावों में हराना चाहते थे। क्या इससे काॅंग्रेस की मजार बन जाती? 2014 में अकेले नरेन्द्र मोदी ने पूरे देश में काॅंगे्रस के खिलाफ माहौल बनाकर संसद में लगभग उसका सफाया ही कर दिया। वह एक मजबूत विपक्ष की भूमिका में भी नहीं रह गई, तो क्या यह मान लिया जाए कि काॅंगे्रस की मजार बन गयी, उसका वजूद मिट गया?
हाॅं, इतिहास में यह दर्ज है कि लोहिया और आंबेडकर के बीच संवाद और पत्राचार हुआ था, यह भी कि लोहिया आंबेडकर के साथ एक साझा मंच बनाकर काॅंगे्रस को दफन करना चाहते थे, पर, अचानक आंबेडकर का निधन हो जाने से उनका सपना बिखर गया। और यह सपना था गाॅंधीवाद को स्थापित करना। सवाल यह है कि अगर आंबेडकर की मृत्यु न हुई होती, तो क्या वह साझा मंच बनता? क्या आंबेडकर लोहिया के साथ जाते? यद्यपि, डा. आंबेडकर की आकस्मिक मृत्यु के साथ ही वह प्रसंग भी समाप्त हो गया, पर मेरा अपना मत है कि लोहिया के साथ आंबेडकर कभी मंच नहीं बनाते। इसका कारण है लोहिया की गाॅंधी-भक्ति, जो आंबेडकर को पसन्द नहीं थी। आंबेडकर गाॅंधीवाद के धुर विरोधी थे और उसे समाजवादी व्यवस्था के लिए घातक मानते थे। लोहिया राम और रामायण में भी जनता की आस्था बनाए रखना चाहते थे, जो आंबेडकर की दृष्टि में हिन्दू अस्मिता को उभारने का साम्प्रदायिक उपक्रम था। लोहिया राम को मर्यादा पुरुष मानते थे, जिनके बारे में वे कहते थे कि   उन्होंने अपनी पत्नी का निर्वासन करके भी मर्यादा का पालन किया था। यही मर्यादा-आदर्श वे गाॅंधी में देखते थे। इसीलिए वे गाॅंधी को राम का महान वंशज मानते थे। गाॅंधी में उनकी अटूट आस्था हर समस्या का समाधान गाॅंधीवाद में देखती थी। सच तो यह है कि आंबेडकर के प्रति भी लोहिया के अच्छे विचार नहीं थे। वे उन्हें अंगे्रजी साम्राज्य के समर्थक के रूप में ही देखते थे। उन्होंने समाजवादी आन्दोलन का इतिहासमें लिखा है कि डा. आंबेडकर विद्वान व्यक्ति थे और हिन्दुस्तान में विद्वान व्यक्ति के लिए थोड़ा आदर हो ही जाता है, चाहे वह वाहियात विद्वान हो या राक्षस। इसी किताब में वे काॅंगे्रस द्वारा आंबेडकर की आरती उतारे जाने की भी निन्दा करते हैं। इसी किताब में यह भी दर्ज है कि लोहिया रामास्वामी नायकर का समर्थन लेने के लिए उनसे मिलने तमिलनाडु जाते हैं, तो 10-15 लाख ब्राह्मण उनसे नाराज हो जाते हैं, और वे तुरन्त नायकर से अलग हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति क्रान्ति करेगा? एक जगह लोहिया कहते हैं कि अगर वे भी चमार या अहीर होते तो तीन-चार करोड़ लोग उनके साथ भी खड़े होते। यह उनका आंबेडकर पर कटाक्ष था। इस प्रकार लोहिया न जाति से ऊपर उठे थे और न धर्म से। ऐसे लोहिया से आंबेडकर का गठजोड़ हो ही नहीं सकता था। अगर आंबेडकर जीवित रहते तो गाॅंधीवाद और राम-रामायण की बुनियाद पर लोहिया से गठजोड़ करना तो दूर, वे उन्हें समाजवादी ही मानने से इनकार कर देते।
उपन्यास में जो लोहिया आंबेडकर-गाॅंधी विवाद को देश तथा समाज की लड़ाई न मानकर दो नेताओं का अन्तद्र्वन्द्व और हितों का टकराव मान रहे थे, वे दलितों की लड़ाई में विरोधी के रूप में गाॅंधी के ही साथ खड़े थे। लोहिया कौन-सी समाजवादी भूमिका निभा रहे थे? अगर डा. आंबेडकर हजारों साल से आजादी से वंचित दलित जातियों के लिए आजादी माॅंग रहे थे, तो वे देशविरोधी कैसे हो गए और दलितों की आजादी का विरोध करने वाले गाॅंधी देशभक्त कैसे हो गए?
उपन्यास में लोहिया की चिन्ता यह है कि आंबेडकर गाॅंधी से लड़ क्यों रहे थे? गाॅंधी ने दलितों के लिए पगडंडियाॅं बर्नाइं थीं, तो आंबेडकर को उन पर राजमार्ग बनाना चाहिए था। पर वे पगडंडियाॅं थीं क्या? इस पर उपन्यास में कोई चर्चा नहीं की गई है। अगर लोहिया आंबेडकर को साथ लेकर गाॅंधी की स्क्रिप्ट पर जनक्रान्ति करने की योजना बना रहे थे, तो यह उनकी गलतफहमी थी कि आंबेडकर उनका साथ देते। मुझे तो हैरानी होती है कि लोहिया गाॅंधीवाद के साथ समाजवाद का रिश्ता बना किस आधार पर रहे थे?
जहाॅं तक जननेता आंबेडकर की हार का सवाल है तो क्या समाजवादी लोहिया की जीत दर्ज है इतिहास में? जीत तो कम्युनिस्टों की भी नहीं हुई, वरना क्या देश में हिन्दू राष्ट्रवादियों और कारपोरेट का राज कायम होता? 1947 में आंबेडकर काॅंगे्रस में शामिल नहीं हुए थे, वरन् आंबेडकर को मन्त्रिमण्डल में शामिल करने और संविधान-निर्माण का दायित्व सौंपने की सलाह स्वयं गाॅंधी ने नेहरू और काॅंगे्रस को दी थी। उपन्यासकार का आंबेडकर-ज्ञान दुरुस्त नहीं है, वरन् वह इस तथ्य से अनजान नहीं होता कि स्वतन्त्रता-संग्राम के दौरान आंबेडकर ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए सभी समाजवादी शक्तियों और दलों सेे एक अलग संयुक्त मोर्चा बनाने की अपील की थी। लेकिन उस वक्त कोई भी दल काॅंगे्रस से अलग होने को तैयार नहीं था। एम. एन. राय ने तो काॅंग्रेस से अलग कोई भी मजदूर संगठन बनाने तक का विरोध किया था। हांलाकि बाद में अनेक समाजवादी दल मतभेद होने पर स्वयं काॅंग्रेस से अलग हो गए थे, पर तब तक वे किसी काम के नहीं रह गए थे। आंबेडकर ने विधि मन्त्री के रूप में संविधान-निर्माण की एक बड़ी भूमिका निभाई थी और हिन्दू स्त्रियों के हित में क्रान्तिकारी हिन्दू कोड बिल तो उन्हीं के खाते में जाता है, जिसे संसद ने हिन्दू नेताओं और धर्मगुरुओं के भारी विरोध के बाद कई टुकड़ों में, आंबेडकर के मन्त्रिमण्डल से इस्तीफा देने के बाद, पास किया था। आंबेडकर के नाम दर्ज यह कम बड़ी क्रान्ति नहीं है। यह उनकी जीत थी। कैसे कहा जा सकता है कि वे हारे थे?
आंबेडकर से पहले कितने बौद्ध थे भारत में? सिर्फ इतिहास में पढाया जाने वाला विषय था बौद्धधर्म। आज विजया दशमी पर लाखों नवबौद्ध इकðा होते हैं नागपुर में। हजारों की संख्या में बौद्धधर्म पर हिन्दी, मराठी और अंग्रेजी में किताबें छप चुकी हैं। जिन दलितों ने बौद्धधर्म अपनाया, उन्होंने पहला काम अपने घर के हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों और तस्वीरों को टोकरे में भरकर कूड़े में फेंकने का किया है। यह क्या बौद्ध क्रान्ति नहीं है, जो आंबेडकर ने की? मानता रहे हिन्दू समाज उन्हें दलित, पर जो वैचारिक और सांस्कृतिक रूपान्तरण उनका हुआ है, वह अगर क्रान्ति नहीं है, तो फिर कैसी होती है क्रान्ति?
उपन्यास में लोहिया कम्युनिस्टों से सबसे ज्यादा खफा हैं। कहते हैं कि नेहरू ने ही कम्युनिस्टों को सबसे ज्यादा प्रश्रय दिया। नेहरू के राज में ही वे विश्वविद्यालयों में काबिज हुए। वे कम्युनिस्टों से इतने चिड़े हुए हैं कि जब पत्रकार उमाशंकर उनसे लेनिन की बात करता है, तो वे कहते हैं, ‘क्यों न हम स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गाॅंधी की बात करें, जिनके विचार और कार्य राम और कृष्ण के बाद सारी दुनिया के लिए अनुकरणीय बन गए?’ क्या इन शब्दों में लोहिया का दक्षिणपंथी चेहरा साफ नजर नहीं आता है? शायद यही कारण है कि लोहिया के उत्तराधिकारियों को जाति और धर्म की राजनीति विरासत में मिली है। शायद इसीलिए उपन्यास में उन पात्रों की अधिकता है, जो किसी बड़े सामाजिक बदलाव का सपना नहीं देखते हैं। ऐसा ही एक पात्र कहता है, ‘हमारे बचपन में छुआछूत जरूर था, लेकिन लोग प्रेम से रहते थे।इससे बड़ा झूठ कोई हो सकता है? जब छुआछूत है, तो प्रेम से लोग कैसे रह सकते हैं? जहाॅं छुआछूत है, वहाॅं प्रेम कैसे हो सकता है?
उपन्यास में पूॅंजीवाद, कारपोरेट और एन. जी. ओ. की लूट-खसोट पर अवश्य ही गम्भीर चर्चा हुई है, पर राम-रामायण के ब्राह्मणवादी संस्कारों वाला मानस इस लूट-खसोट को न देख सकता है और न समझ सकता है। क्या यही मानस समाजवाद के राह की सबसे बड़ी बाधा नहीं है?
(9 अक्टूबर 2014)


                

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