मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014


उपेक्षितों के दर्दों की गणना
(कॅंवल भारती)
वीरेन्द्र सारंग का उपन्यास ‘हाता रहीम’ पढ़ने के बाद लगा कि यह उस तरह का उपन्यास नहीं है, जिस तरह के उपन्यास एक खास फ्रेम में सामान्यतः लिखे जा रहे हैं, जिनमें एक मुख्य कथा होती है और उसी के भीतर छोटी-छोटी कथाएॅं, जो साथ-साथ चलती हैं। यह विचारधाराओं के भीतर बुना जाने वाला उपन्यास भी नहीं है, जिनका कि आजकल फैशन चल पड़ा है। इस उपन्यास में कोई बड़ी कथा भी नहीं है और न छोटी कथाएॅं हैं। इसमें सिर्फ देवीप्रसाद हैं, जो ‘हाता रहीम’ के साथ चलते हुए अपनी ही दुनिया को बनते-बिगड़ते देखते हैं, और उसे जी भी रहे हैं। इस दृष्टि से इसे वृतांत अथवा आख्यान भी नहीं कहा जा सकता। पर, मैं ‘हाता रहीम’ को उपन्यास ही कहूॅंगा, एक नई शैली का उपन्यास, जिसकी शैली सचमुच मुश्किल है, तथा उसे साधना और भी मुश्किल।
क्या है ‘हाता रहीम’? ‘हाता रहीम’ शहर का एक वार्ड या एरिया है, जो किसी भी नाम से किसी भी शहर में हो सकता है। देवीप्रसाद को इस क्षेत्र की जनगणना करनी है। देवीप्रसाद एक महकमे में तीसरी श्रेणी के कर्मचारी हैं, जिनकी जनगणना में ड्यूटी लग जाती है। पहले तो वे ड्यूटी कटवाने की जुगत लगाते हैं। इसके लिए वे अपने बचपन के अधिकारी मित्र से भी सिफारिश कराते हैं, पर सब बेकार। उनके घुटनों में दर्द रहता है, यह लिख कर भी अपने अधिकारी को देते हैं, पर ड्यूटी फिर भी नहीं कटती है। वे अपने अधिकारी मित्र के साथ अपनी सामाजिक तुलना भी करते हैं, अपनी पत्नी से कहते हैं-‘करोड़ भी क्या हैं उनके लिए। मेरा जितना वेतन है, उनकी बीबी उतना ब्यूटीपाॅर्लर और घूमने-फिरने में खर्च करती है।’ देवीप्रसाद अच्छी तरह जानते हैं कि यह ‘क्लास’ का मामला है, वरना ड्यूटी जरूर कटती। वे यह भी कहते हैं कि अगर वे अधिकारी होते, तो अपनी बेटी की शादी उसके बेटे से करते। ‘हम दोनों पहले यही सोचा करते थे, लेकिन अब हाथ भी नहीं धरने देगा।’ देवी के ही दफ्तर में एक अमर कुमार हैं, जिनकी ड्यूटी हमेशा कट जाती है। देवी कहते हैं, ‘पता नहीं किस घानी का तेल अफसरों को लगाता है।’ ऐसे अमर कुमार हर आॅफिस में मौजूद हैं, जो ड्यूटी न भी करें, तो भी उसका कुछ नहीं बिगड़ता। खैर, देवीप्रसाद को ड्यूटी करनी पड़ती है। उन्हें जनगणना के लिए  वार्ड नम्बर दस का इलाका ‘हाता रहीम वासित’ मिलता है। वे झोला टाॅंगकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी अजहर के साथ ‘हाता रहीम वासित’ की ओर चल पड़ते हैं। बस यहीं से उनके सामने एक नई दुनिया उजागर होती है, जो उनकी कल्पना में भी नहीं थी। पहले दिन देवी सिर्फ अपने क्षेत्र में घूमना चाहते हैं। वे एक मस्जिद के पास जाकर खड़े हो जाते हैं। एक अजनबी को वहाॅं खड़ा देखकर वहाॅं के लोग  उन्हें सन्देह से देखने लगते हैं, जो स्वाभाविक भी है। लेकिन देवीप्रसाद चिन्तनशील हैं। इस सन्देह पर उनके दिमाग में कुछ और ही चलता है। आप भी देखिए-
‘देवी खड़े हैं मस्जिद के पास, सोच रहे हैं- ‘कहाॅं से चलूॅं।’ कुछ दूरी पर खड़े एक-दो स्त्री-पुरुष, देवी को निहार रहे हैं, जाॅंच-परख रहे हैं। देवी वहाॅं से हटेंगे नहीं, तो और लोग आ जाएॅंगे, सब की नजर उनकी ओर ही होगी। कोई पूछ भी देगा, ‘भाई आप किसे ढॅंूढ़ रहे हैं।’ कितना संदेह भरा हुआ है लोगों के मन में। हम चाहे जितना पढ़-लिख लें, आगे बढ़ जाएॅं, चाॅंद-तारों को छू-देख लें, परन्तु यह संदेह कब जाएगा? पता नहीं। अब तक चाहिए तो यह था कि देश की सीमा के नाम पर सिर्फ एक लकीर हो, जैसे खेत की मेढ़, और हम घूम आएॅं पूरी दुनिया बे-रोक-टोक। लेकिन यह सपना ही रह जाएगा मनुष्य के लिए। हम पढे-लिखे विद्वान हैं और कितने मूर्ख हैं।’
ये हैं देवी प्रसाद- जो जनगणना-कर्मी के साथ-साथ प्रगतिशील भी हैं। बस्ती घूम लेने के बाद वे जब सेण्टर पर आकर अपने साथियों को अनुभव सुनाते हैं, तो उनकी संवेदना भी बाहर आ ही जाती है-
‘हाय रे हमारा देश! मकान नहीं है लेकिन घर-परिवार है। प्लास्टिक की पन्नी डाले बाहर बैठे हैं बेचारे! और मैं बाहर खड़ा-खड़ा परमानेंट मार्कर खोले सुखा रहा हूॅं। मुझे देखकर एक बूढ़ी औरत चिल्लाने लगी, ‘का आए हो? हमरे पास का है अब! बेटा-बहू तो मार भगाय दिहिन....यही देखे बदे अउलाद हम जनमाये! बोलो! कुछ खाए को लिए हो तो दो।’ मैंने कहा, ‘नहीं माई, हम मकान पर नम्बर लिख रहे हैं....जनगणना हो रही है।’....‘कैसी गणना?’ वह बोली, ‘हमारी गणना बिगड़ी है बाबू! भगवानो नाहीं पूछत है, पता नहीं कब पूरी होगी हमरी गणना! नम्बर डाल रहे हो तो लिख दो हमरे पेट पर तीन-तेरह, हो जाए हमरी तेरही’।’
यह उपन्यास जनगणना के विषय में बहुत ही रोचक जानकारी देता है। सम्भवतः यह इस विषय का पहला उपन्यास है। पर इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इसे पढ़ना उन उपेक्षित समाजों से रू-ब-रू होना है, जिनके दर्द चीख-चीख कर लोकतन्त्र के हुक्मरानों से सवाल करते हैं कि वे इतने  उपेक्षित क्यों हैं? क्यों वे बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित हैं? देवी प्रसाद इन लोगों के हर घर में जाते हैं, उनके भैतिक यथार्थ को देखते हैं, उनसे घण्टों बतियाते हैं, उनके अपनेपन से द्रवित भी होते हैं। देवी सोचते हैं, ‘आम आदमी हो या कोई बड़ा सेठ-महाजन, या कोई मंत्री-अफसर, जनगणना कर्मी भीतर तक घुसकर देखने का अधिकार रखता है? लेकिन क्या बड़े रईस, धन्नासेठ घुसने देंगे। नहीं, वे बरामदे में बैठाएॅंगे, सारा आॅंकड़ा भरवा देंगे, और किसी की हिम्मत नहीं कि ज्यादा मीन-मेख निकाले। देवी के क्षेत्र में ऐसा कोई घर नहीं है। सब गरीब मजदूर, किसान और जरजोदी का काम करने वाले हैं- रोज कमाना, तब खाना।’
गरीब लोगों की जैसी बुद्धि होती है, उसी हिसाब से वे जनगणना का मतलब समझते हैं। कोई समझता है कि सरकार उन्हे पक्का मकान बनाकर देगी। कोई समझ रहा है कि जनगणना यह देखने के लिए हो रही है कि किसके घर में पक्का फर्श है, ताकि उसपर ज्यादा टैक्स लगाया जा सके। ‘हाता रहीम’ में अफवाह फैल जाती है कि जिसका घर पक्का, उसको टैक्स देना होगा। और देवी प्रसाद बता रहे हैं-‘बात पूरी नई बस्ती में फैल गई। कोई पर्दा डाल रहा है, कोई पुआल की टाटी बाॅंध रहा है, कोई टाट बिछाकर ढॅंक रहा है। मकान के विषय में एक संदेह और उसकी सुरक्षात्मक नीति, एक भिन्न प्रकार का मानसिक द्वंद्व-चिन्ता-डर।’
उपन्यास में ऐसे बहुत से मार्मिक प्रसंग आए हैं, जहाॅं जनगणना के सवाल उन उपेक्षित लोगों के जख्मों को हरा कर देते हैं। स्वयं देवी प्रसाद के लिए भी यह जनगणना करना समाज और व्यवस्था के विद्रूप से गुजरना है। देवी प्रसाद देख रहे हैं कि फर्श तो मिट्टी का है, पर अगल-बगल और पीछे की दीवारें तो दूसरे की हैं। देवी सोच में हैं कि इसे घर कैसे कहा जाए और इसे क्या कोड दिया जाए? पूरी बस्ती में उन्हें दो-चार फर्श ही पक्की ईंट और सीमेंट के मिले। पचास प्रतिशत दीवारें उन्हें ऐसी मिलीं, जो मिट्टी-गारे से चिनी गईं थीं। बाकी मिट्टी और घास-फूॅंस की ही दीवारें ज्यादा थीं। देवी खूब परेशान हैं कि इन उपेक्षितों की हालत देखकर, पर वे कुछ कर नहीं सकते। ये गरीब लोग अपनी गरीबी को निभाने की खातिर छोटे-छोटे जाल-बट्टे भी कर लेते हैं, ये प्रसंग भी उपन्यास में आए हैं। दो स्त्रियों के बीच यह संवाद देखिए-
‘आए थे पूछने कि फर्श किसकी बनी है!’ एक स्त्री ने हाथ चमकाया।
‘तुमने काहे बताया कि हमारे दुई कोठरी का फर्श पक्का है!’ दूसरी स्त्री झगड़ रही थी।
‘तुम भी तो हमारे घर की पोल खोल रही हो।.......’‘कौन झूठ कहा! साॅंच को आॅंच का!’
‘तुमको भी जानत हैं सब! पाॅंच लोग हो और बारह का राशन कार्ड बना है, नही ंतो भूखे मरते!’‘तुम कौन राजा हरिसचन्द हो! बेटा को अलग दिखाकर गरीब और बिना घर का लिखवा दिया। कालोनी मिल गई और बेचारा शकील रह गया टाट-पन्नी डाले।’
देवी प्रसाद समझ रहे हैं, इन्हीं छोटे-छोटे सुखों की खातिर लड़ते-झगड़ते इन गरीबों की सारी जिन्दगी गुजर जाती है। वे बड़े भवनों की तरह फर्श का मतलब नहीं जानते। उनके लिए जमीन का मतलब है, जहाॅं चींटी-चींटा बिल किए रहते हैं। यहाॅं चूहों के लिए भी बाकायदा जगह होती है। कोने-अन्तरे गोजर बिच्छू के लिए भी स्थान होता है। देवी समझते हैं इन गरीबों का दर्द और यह भी कि फर्श, छत, दीवार, घर क्या होता है? जब वे ये देखते हैं, तो उनके दिमाग में भी उनके गाॅंव-घर की दीवारें, छत और फर्श घूम जाते हैं। दीवार के बारे में सोचने पर देवी को अपनी बूढ़ी माई याद आती हैं, जिनकी मृत्यु बरसात में मिट्टी की दीवार गिरने से हो गई थी। सो देवी प्रसाद हाता रहीम के उपेक्षित लोगों के बीच घुल-मिल जाते हैं, क्योंकि वे भी उसी पृष्ठभूमि से आते हैं।
जनगणना के फार्म में बहुत सारे कोड हैं, जिन्हें देवी प्रसाद को भरने हैं। उन्हें सब कुछ भरना है-घर, परिवार, मकान, दीवार, फर्श, छत, शिक्षा, रोजगार, और इन सबके अलग-अलग कोड हैं। देवी प्रसाद घर-घर जाकर पूछते-बतियाते हैं। जितने लोग उतनी बातें, उतने विचार, पर बेअर्थ की कोई बात नहीं। देवी सोचते हैं- ‘आम जनता की गपशप भी व्यर्थ नहीं होती। जीवन की बारीक सच्चाई से साक्षात्कार करता, भोगता हुआ गाॅंव-कस्बे का व्यक्ति निचले पायदान पर खड़ा है। वह किसी अन्य के सहयोग, आशा और विश्वास को थोड़ा-बहुत एक किनारे करता हुआ आगे बढ़ने-जीने का प्रयास करता है। फिर उसे नई-नई आशाएॅं दिखाई जाती हैं, नया विश्वास दिलाया जाता है। और इसी तरह वह जाल में आधा फॅंसा हुआ आशा की डोर पकड़ लेता है, एक विश्वास के साथ।’
एक अन्य प्रसंग में देवी बस्ती में एक-एक का मुॅंह निहारते हैं और आश्चर्य से देखते रह जाते हैं, ‘कोई कमीज में नहीं है, सब बनियाइन पहने या नंगे बदन हैं। सिर्फ लुंगी या जाघियाॅं जरूरी समझते है गर्मी में।’ वे सोचते हैं, ‘एक सूरत हिन्दुस्तान की यह भी है, कोई देखे तो!’
देवी प्रसाद ने जनगणना करते हुए पूरे समाज की नब्ज टटोल ली है। वे इस नतीजे पर पहुॅंचते हैं कि इन उपेक्षितों के दर्द गाॅंव-समाज के मुखियाओं की वजह से हैं। प्रधान से लेकर डीएम, एसपी तक और विधायक, एमपी से लेकर मन्त्री तक सब बेईमान हैं और कोई भी इन गरीबों के हित में काम नहीं कर रहा है। पर वे कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि सरकारी नौकर हैं, जहाॅं बोलना मना है। लेकिन देवी की परिकल्पना विचारोत्तेजक है। उनका मन होता है- ‘कि कहीं से एक पत्थर उठा लें और अपना सिर कूॅंच दें। यह बस्ता-बोरा फेंक आएॅं किसी नाले में और एक-एक मुखिया का कालर पकड़ कर झकझोर दें, जिनकी वजह से गन्दगी फैली है। कर्तव्य और निष्ठा का पाठ पढ़ाने वाले ये ‘अपना भला, भला जग माहीं’ की तर्ज पर जीते-मरते हैं।’ वीरेन्द्र सारंग लिखते हैं- ‘इस समय देवी को कोई भ्रष्ट मुखिया मिल जाए, तो वे उसकी साॅंस रोक देंगे, तब वह शायद ही संसार छोड़ दें।’
जनगणना ने देवी को बुद्धिज बना दिया है। बुद्धिज क्या है? इस पर उपन्यास में एक लम्बा और सशक्त चिन्तन है। फिलहाल देवी की यह परिभाषा ही बुद्धिज को जानने के लिए काफी है। वे बताते हैं- ‘मैं मनुष्य नहीं हूॅं, आदमी भी नहीं। अब मैं किसी धर्म के आधार पर पहचान नहीं हूॅं। मैं किसी मनु या आदम से नहीं जन्मा हूॅं। मुझे कोई मतलब नहीं है ईसा-मूसा से। मेरे पैदा होने में ईश्वर का हाथ नहीं है। मैं प्राकृतिक संयोग से पैदा होने वाला जीव हूॅं, सो मैं सिर्फ एक व्यक्ति हूॅं। मैं बुद्धि से उत्पन्न हुआ हूॅं, मैं बुद्धिज हूॅं- जैसे, अंड से अंडज और पिंड से पिंडज।’ यह बताने के बाद देवी घोषणा करते हैं- ‘मैं अब बुद्धिज कहलाऊॅंगा और अपनी बौद्धिकता को खतरे से बचाऊॅंगा।’ वीरेन्द्र सारंग ने देवी प्रसाद के चरित्र में अपने को ही प्रस्तुत किया है। और, निस्सन्देह, वीरेन्द्र सारंग ने अपनी बौद्धिकता को बचाया है। पूरे उपन्यास में एक जगह भी वे अपनी बौद्धिकता पर भावुकता को हावी नहीं होने देते हैं। जब देवी दलितों की बस्ती में जाते हैं, तो उन्हें अॅंगनू मिलता है, जिसका बेटा बीए पास है और चमड़े के कारखाने में मैनेजर है। अॅंगनू का बेटा ब्राह्मण-समाज को खूब खरी-खोटी सुनाता है। वह कहता है, ‘अब हम बाभन-ठाकुर को इस पर रखते हैं-ठेंगे पर।’ देवी खुश होते हैं, पर इस बात से नहीं, वह वे सोचते हैं कि उसे बुद्धिज बनाने के लिए ठीक से समझाना होगा।
देवी प्रसाद जातिवादी नहीं हैं। वे बुद्धिज हैं, इसलिए जाति-आधारित जनगणना के भी पक्ष में नहीं हैं। भारत में जाति-आधारित जनगणना 1931 में अंग्रेजों ने कराई थी, जिसका ब्राह्मणों ने तीव्र विरोध किया था। देवी कहते हैं, ‘आज उसे फिर जिन्दा करने का क्या अर्थ!’ वे इसके पीछे ‘फूट डालो और सत्ता पाओ’ वाले दिमाग की सक्रियता देखते हैं। वे जाति को लोकतन्त्र और समाजवादी विचारधारा के प्रतिकूल मानते हैं और इसके लिए समाजवादियों को धिक्कारते हैं। उनका आत्मचिन्तन जारी रहता है- ‘पूरी व्यवस्था का आधार जाति हो जाएगी, तो समाज का क्या होगा? तब हमारा बौद्धिक वर्ग किस रास्ते पर खड़ा मिलेगा?’
यहाॅं एक प्रश्न खड़ा होता है, जिसका समाधान उपन्यास में नहीं है, हालांकि होना चाहिए था।  प्रश्न यह है कि जब भारत में अंग्रेजों से पहले जातीय जनगणना नहीं हुई थी, तब क्या देश में पूरी तरह समाजवाद कायम था? सबको शिक्षा, रोजगार, अधिकार के समान अवसर प्राप्त थे? अगर नहीं, तो सच यही था कि तब पूरी व्यवस्था जाति पर खड़ी हुई थी और जाति का अर्थ था वर्णव्यवस्था, जिसमें शूद्र और अतिशूद्र जातियों को शिक्षा-अधिकार से वंचित रखा गया था। लेकिन मैं देवी प्रसाद की इस सोच से सहमत हूॅं कि ‘आज भीतरी सुधार की जरूरत है।’ जमीन के इन कटु प्रश्नों को जानने की जरूरत है कि करोड़ों लोग गरीबी में क्यों जी रहे हैं, जिनकी आमदनी दो जून रोटी भी नहीं है? क्यों आजादी के इतने दिनों बाद भी भरपेट भोजन नहीं, दवाई नहीं, पढ़ाई नहीं, शुद्ध पानी नहीं, रास्ता नहीं, छत नहीं, सुरक्षा नहीं, व्यवस्था नहीं है? और क्यों दूसरी ओर रुपयों पर रखकर नमकीन खाने वाले नेता पनप रहे हैं, क्यों करोड़ो डकारने वाले अफसर हैं, शिक्षा-भूमि के माफिया हैं? अगर ये सब है, तब समाधान क्या है? लोकतान्त्रिक क्रान्ति या रक्तिम क्रान्ति? लोकतान्त्रिक क्रान्ति को तो हम देख ही रहे हैं। और रक्तिम क्रान्ति का अर्थ है देश का सर्वनाश। अच्छा होता, अगर उपन्यास इस समस्या पर भी प्रकाश डालता।
हाता रहीम की बस्तियों में हिन्दू-मुस्लिम-दंगा कभी नहीं हुआ, सब लोग मिल-जुलकर रहते हैं। सामाजिक सद्भाव की मिसाल है रहीम हाता। उपन्यास में एक प्रसंग है, इस्माइल की दुकान पर अखबार आता है। नरेश खबर पढ़कर सुना रहा है- ‘अयोध्या में अठारह साल बाद विश्व हिन्दू परिषद के नेता जुटेंगे। यह खबर सुनकर वहाॅं के लोगों में जो प्रतिक्रिया होती है, वह यह है-
‘फिर सियासी पारा गरम करेंगे ई ससुरे नेता!’ जहीर बोले।‘
अयोध्या तो चुप है। ई ससुरे बेचारी अयोध्या को बीच में ला के अपनी बढ़ाई बखानत हैं। काहे का राम काहे का रहमान!’ जुबैर ने समझदारी की बात की।
‘हमें लड़ाते हैं ई मजहबी नेता साले! खाय के लाल हुए जा रहे हैं। और हमें मन्दिर-मस्जिद’ में उलझाय रहे हैं। अरे, बताओ कि कौन धंधा करें कि रोटी चले, बेटी की शादी हो, लड़के पढ़ें लिखें! हमें चूतिया बनावे चले हैं कि इहाॅं राम रहा तो इहाॅं बाबर!’
‘ई नई बस्ती में कोई माई का लाल है जो हिन्दू मुसलमान में झगड़ा लगायदे, गाॅंड़ काट के रख देंगे साले की!’
अरे नरेशवा! ई मन्दिर-मस्जिद वाली खबर पढ़ के सुनाय तो मुॅंह तोड़ देंगे। अरे देख कवनो मतलब की खबर है। सुई-धागा सस्ता हुआ है का!’
उपन्यास में बहुत सारे प्रसंग देवी प्रसाद और उनकी पत्नी सुशीला के बीच हास-परिहास के  भी हैं। ये प्रसंग बहुत रोचक हैं। इनमें अद्भुत लोक है। ऐसा ही एक प्रसंग है, देवी और सुशीला घूमने निकले हैं। एक जगह शिव-मन्दिर आता है। दो-चार लोग हाथ जोड़कर शिवलिंग का दर्शन कर रहे हैं। यहाॅं सुशीला और देवी प्रसाद के बीच संवाद चलता है-
‘हाथ जोड़कर सिर झुका दीजिए।’ सुशीला ने देवी से कहा।
‘क्यों? यह नहीं होगा मुझसे!’ देवी ने कहा।
‘इसमें क्या लग रहा है, कुछ नहीं! और रुक गए हैं तो बिना मतलब खड़े रहेंगे?’
‘रुकी तुम हो! मैं तो तुम्हारे साथ हूॅं।’
चलिए आपसे कौन बतरस करे! भला कोई आपसे जीत सका है बात में!’
यही है दिमाग में भरने का तरीका।’ और देवी प्रसाद गाने लगे- ‘मन तोहे किहि बिध मैं समझाऊॅं। सोना होय तो सुहाग मॅंगाऊॅं, बंकनाल रस लाऊॅं।’
सुशीला आगे की पंक्ति गाने लगी- ‘गियान सबद की फूॅंक चलाऊॅं, पानी पर पिघलाऊॅं। मन तोहे किहि बिध मैं समझाऊॅं।’

देवी को नई बस्ती में एक कटु अनुभव भी हुआ है, जिसके मूल में दरअसल उनका सुधारवादी रवैया है। वे जनगणना करने के साथ-साथ लोगों को साफ-सफाई से रहने और बिजली-पानी कम खर्च करने की नसीहत भी देते चलते हैं। इस पर कुछ लोग उनका विरोध भी करते हैं। ऐसा ही एक कटु वाकया वे अपनी पत्नी को सुनाकर दिल हल्का करते हैं- ‘क्या कहूॅं सुशीला! मैं यहाॅं किसी से बिजली-पानी बचाने की बात करता हूॅं, तो वह ऐसे भागता है जैसे मैं कुत्ता होऊॅं! और वह कहता है-‘खर्च करता हूॅं तो पैसा भी देता हूॅं, तुमसे मतलब?’ एक घर ऐसा मिला कि पहले तो बैठाया, चाय पिलाया, फिर मेरी बात सुनकर धमकी देने लगा कि, ‘बन्द करवा दूॅंगा, जहाॅं तुम खड़े हो, यहाॅं कुत्ते भी मूतने से डरते हैं, तुम चले कैसे आए!’ देवी बताते हैं, वह किसी बड़े अधिकारी या मन्त्री का घर था, जिसके सामने वाली सड़क रोज सुबह धुली जाती थी। पेड़ों पर पाइप से पानी छिड़का जाता था। और इस काम में कम-से-कम एक घण्टा सड़क पर पानी बहता था।
सारतः, ‘हाता रहीम’ जनगणना पर लिखा गया ऐसा पहला उपन्यास है, जो जनगणना के बहाने गरीबों के दर्दों और जख्मों को उकेरता है, पर वे दर्द और जख्म सूचनाओं में दिखाई नहीं देते। वरना, जनगणना के बाद भी उनकी हालत जस-की-तस नहीं रहती। एक जनगणना-कर्मी के लिए भले ही यह सूचनाएॅं एकत्र करने का काम हो, पर वीरेन्द्र सारंग के लिए यह महज सूचनाएॅं एकत्र करने का काम नहीं है। उनका मूल स्वर उपन्यास में यही है कि संख्याओं और सूचनाओं के आधार पर किसी भी समाज की सामाजिक और आर्थिक सच्चाई को नहीं समझा जा सकता। यह जानने के बाद कि कितने लोगों के पास घर नहीं है, छत नहीं है, दीवारें नहीं हैं, फर्श नहीं है, पानी नहीं है, टायलेट नहीं है, नहाने का कमरा नहीं है, रसोई नहीं है, गैस नहीं है, रोजगार नहीं है, फोन-कम्प्यूटर नहीं हैं, शिक्षा नहीं है, तो यह सवाल भी जहन में पैदा होता है कि ये सारी चीजें उनके पास क्यों नहीं हैं? कौन है इसके लिए जवाबदेह? और कब तक ये सारी चीजें उन्हें प्राप्त हो जाएॅंगी? सबसे बड़ा सवाल भी कि लोकतन्त्र में इन उपेक्षितों को उन्हीं के हाल पर क्यों छोड़ दिया गया है, जबकि वे भी अपने भले दिनों के लिए ही वोट देते हैं?
21 अक्टूबर 2014











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