शुक्रवार, 7 जून 2013

आज़ादी पर उठते सवाल
(कँवल भारती)
      कुछ लोग बिना शोर-शराबे के ख़ामोशी से काफी अच्छा और महत्वपूर्ण काम कर लेते हैं, लेकिन वे चर्चा में नहीं आ पाते. ऐसी ही एक शख्शियत डा. मंजू देवी हैं. वह बनारस में रहती हैं, और पिछड़े वर्ग में अति निर्धन, भूमिहीन एवं स्वतंत्रता-सेनानी परिवार की पृष्ठभूमि से आती हैं. उनकी छोटी बहिन लिली सिंह फेसबुक पर भी सक्रिय हैं, वह बाल विकास निदेशालय उत्तर प्रदेश, लखनऊ में उच्च अधिकारी हैं. मेरा मंजू देवी से परिचय लिली सिंह के जरिये ही हुआ. वह 1993-94 में मेरे शहर में तैनात थीं, तो अक्सर उनसे मिलना होता था. वह कवितायें बहुत अच्छी लिखती हैं. पर कविता कहीं छपे भी, इस पर उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया. एक बार उनकी कविताओं पर एक छोटी-सी टिप्पणी मैंने भी की थी,  पर बार-बार कहने और उनके हामी भरने के बाद भी उनका कविता-संकलन अभी तक मेरे देखने में नहीं आया. मेरे शहर से उन का ट्रांसफर हो जाने के कुछ समय बाद उनकी बहिन मंजू देवी का भी ट्रांसफर मेरे ही शहर में हो गया, उन्होंने गवर्नमेंट डिग्री कालेज में मनोविज्ञान की प्रवक्ता के पद पर ज्वाइन किया. उनके ट्रांसफर की खबर भी लिली सिंह से ही मिली थी. मुझे बहुत खुशी हुई. जो कुछ मुझसे बन पड़ा, मैंने उनके लिए किया. पर वह भी बहुत कम समय ही शहर में रहीं, पर जब तक रहीं, उनसे मिलना होता रहा. उनका साहित्य और समाज-विमर्श गजब का था.
      लिली सिंह से तो मेरा संपर्क टूट गया, पर मंजू देवी से आवश्यकता के अनुसार फोन पर संपर्क बना रहा. कुछ कार्यक्रमों में भी उनसे मिलना-जुलना हुआ. एक बार उन्होंने मुझे बताया कि वह बनारस के मोचियों के जीवन पर सर्वे कर रही हैं. मैंने कहा, यह तो बहुत अच्छा काम है. संभवत: 2006 में उन्होंने इस काम को पूरा कर लिया था. पर उसका प्रकाशन कई साल बाद राधाकृष्ण प्रकाशन से 2009 में हुआ. मुझे यह किताब उसके भी साल भर बाद मिली. किताब मिलने पर मैंने उन्हें बधाई दी, पर उस पर तुरंत कुछ लिखने का वक्त मैं नहीं निकाल सका. फिर किताबों के ढेर में वह ऐसी खोई कि अभी कुछ दिन पहले ही हाथ में आयी.
मंजू देवी की इस किताब का नाम है--“आजादी पर उठते सवाल : नाली पर मोची.” यह सचमुच गजब का काम है, मोची के जीवन पर इतना बारीक़ और गहन विश्लेषण हिन्दी में मैंने पहली बार देखा. मोची के काम और जीवन से जुड़ा कोई सवाल उन्होंने छोड़ा नहीं है. शुरुआत में ही वह दिल को हिला देती हैं. अपनी ‘दो-चार बातें’ में वह लिखती हैं—‘इस पुस्तक का उद्देश्य मोचियों के जीवन की वास्तविक स्थितियों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करना है. हमारे आस-पास ऐसी बहुत-सी घटनाएँ घटित होती हैं, जिन्हें हम देखते हैं, समझते हैं, सुनते हैं, फिर भी हमारी संवेदनाओं में कोई बदलाव नहीं होता है. हमारे अन्दर कोई हलचल पैदा नहीं होती.’ वह आगे लिखती हैं, ‘पुस्तक तैयार करने के लिए बनारस के मोचियों से मिलकर व्यापक पूछताछ की गयी. गरीबी की मार सह रहे मोचियों के पास कोई पूंजी नहीं थी, उन्हें अपने जीवन में बदलाव की कोई सम्भावना नहीं दिख रही थी. घंटों साथ बैठकर उनका दुःख-दर्द बांटा गया. उनके मन में उठ रहे सवालों का जवाब दिया गया. उन्हें सलाह दी गयी कि रास्ता खुद ढूँढना होगा. अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी.’
अक्सर लोग ख्याति या डिग्री के लिए किताब लिखते हैं, पर मंजू देवी ने यह काम अपनी सम्वेदना के लिए किया. वह लिखती हैं—‘शहर में नालियों के ऊपर तीनटंगा, कटरनी, रांपी, धागा, ब्रुश, पालिश आदि की पेटी लेकर बैठे मोचियों को देखकर यह पुस्तक लिखने का ख्याल आया. पुस्तक न तो किसी विश्वविद्यालय से भारी-भरकम डिग्री प्राप्त करने के लिए लिखी गयी है, न शब्द-जाल गढ़ने का प्रयास किया गया है.’
मंजू देवी की यह किताब मोचियों के जीवन और हालात को समझने के लिए निस्संदेह एक महत्वपूर्ण और आवश्यक दस्तावेज है. यह किताब लोकतंत्र और आज़ादी दोनों को ही कटघरे में खड़ा करती है. यह दलितों के पुनर्वास और कल्याण के नाम पर करोड़ों रूपये खर्च करने वाली सरकारों को तो आईना दिखाती ही है, दलित लेखकों, चिंतकों और बुद्धिजीवियों के लिए भी एक जीवंत तसवीर पेश करती है. मंजू देवी ठीक ही कहती हैं—‘हाशिए पर खड़े व्यक्ति की जिंदगियों से जुड़ी निर्मम-कठोर सच्चाइयां उजागर करके (यह) नीति बनाने वालों को रास्ता दिखायेगी.’ वह लिखती हैं—‘भारतवर्ष में जो आज़ादी आयी, उसका इन मोचियों से कुछ लेना-देना नहीं है. वे गाँवों में जब ज़मीदारों के खेतों पर काम करने जाते थे तो उनका आतंक बर्दाश्त के बाहर था. उस आतंक को सहने के बाद भी दो जून की रोटी नहीं मिल पाती थी.’ वह एक मोची की आपबीती बताती हैं—‘रीवा से शहर में आकर जब एक व्यक्ति ने मोची का काम शुरू किया, तो उसकी खुशी कल्पना के बाहर थी, क्योंकि उसे अब दो जून की रोटी मिल रही थी. यह कैसी आज़ादी है?’
डा. मंजू देवी ने अपने अध्ययन की शुरुआत मोचियों के संसार से की है. बनारस में ‘मोचियों का संसार’ बहुत मार्मिक और दयनीय है. वह लिखती हैं—शहर के राजघाट, मच्छोदरी, मैदागिन, मुकीम गंज, चौक, गोदौलिया, लंका, कैंट स्टेशन से चलकर आप कहीं भी चले जाइये, मोचियों के बैठने का स्थान नालियों के ठीक ऊपर है. चौक से दालमंडी की ओर जाने वाले रास्ते पर जहां मोची बैठते हैं, उनके ठीक सर पर सरकार का बनवाया हुआ पेशाब घर है. वहाँ इतनी बदबू है कि एक मिनट खड़ा नहीं रहा जा सकता. वहाँ मोची कैसे सुबह से रात तक बैठे रहते हैं? वह पूछती हैं-- ‘क्या अपने सामानों के साथ बैठने के लिए थोड़ी-सी जगह नहीं होनी चाहिए? उन्हें पूरे शहर में एक भी मोची नहीं मिला, जिसके पास बैठने के लिए साफ-सुथरा स्थान हो. उन्हें आश्चर्य होता है कि इस मांग को लेकर कोई मोची न सरकार से मांग करता है और न नेताओं से शिकायत. ‘सभी का अपना साहस और आत्मविश्वास है. अभाव, अन्याय और उत्पीडन की अँधेरी गुफा से बाहर निकलने के लिए सभी मोची अपना दीपक स्वयं बने हुए हैं.’
मोचियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति के सर्वे में डा. मंजू देवी के तथ्य व्यथित करने वाले हैं. वह कहती हैं कि बनारस में मोचियों के रहने का अपना बसेरा तक नहीं है. उनके आंकड़े बताते हैं कि 27 प्रतिशत मोची अपनी रात सड़कों पर और 20 प्रतिशत स्टेशन पर गुजारते हैं, जबकि 9 प्रतिशत मोची अपने रिश्तेदारों के यहाँ तो 35 प्रतिशत किराये के घरों में रहते हैं और ऐसे मोची, जिनके अपने घर हैं, वे केवल 9 प्रतिशत ही हैं. उनकी दिन-भर की आमदनी के आंकड़े भी संतोषजनक नहीं हैं. वह लिखती हैं, 10 प्रतिशत मोची 20 से 30 रु. रोज, 25 प्रतिशत मोची 31 से 50 रु. रोज, 50 प्रतिशत मोची 51 से 70 रु. रोज, 10 प्रतिशत मोची 71 से 100 रु. रोज और 5 प्रतिशत मोची ही 100 रु. से ऊपर रोज कमा पाते हैं.
मोचियों की शैक्षिक स्थिति के बारे में मंजू देवी बताती हैं कि शहर के जिन मोचियों से वह मिलीं, उनमे शिक्षा का स्तर काफी कम था. उनमे अधिकांश गरीबी के कारण नहीं पढ़ सके. कोई चौथी तक ही पढ़ सका तो किसी के बचपन पर घर की जिम्मेदारियों का बोझ था, इसलिए नहीं पढ़ सका. सर्वे के अनुसार जो चार्ट उन्होंने प्रस्तुत किया है, उनमे 40 प्रतिशत मोची निरक्षर हैं. साक्षर मोचियों की संख्या दस प्रतिशत है, जो दसवीं तक पढ़े हैं, उनकी संख्या पांच प्रतिशत और दसवीं से ऊपर पढ़ने वाले मोची केवल दो ही प्रतिशत हैं. शिक्षा की इस बदतर स्थिति पर मंजू देवी सही सवाल उठाती हैं- ‘ये नवोदय विद्यालय आखिर किसके लिए खोले गये हैं? क्या पूरे समाज में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो इन्हें ऐसे विद्यालयों की जानकारी दे सके? क्या कोई ऐसा स्कूल नहीं खोला जा सकता, जहां समाज की मुख्य धारा से कटे लोगों को स्कूल भेजा जा सके? एक ऐसा स्कूल जहां भेदभाव न हो? घोटाला करने वाले सफ़ेद पोश न हों?’  
मंजू देवी ने मोचियों के परिवारों की स्थिति का भी जायजा लिया है. वह लिखती हैं कि गरीबी के कारण इन मोचियों के परिवार की बालिकाओं और स्त्रियों की शिक्षा पुरुषों से भी कम है. वे गरीबी से इस कदर ग्रस्त हैं कि अपनी लड़कियों की शिक्षा की बात करना भी उन्हें पसंद नहीं है.
मंजू देवी के अनुसार इन मोचियों की सबसे बड़ी समस्या उनके शौच और नहाने-धोने की है. वह लिखती हैं, बनारस जैसे भीड़-भाड़ वाले शहर में नाली पर बैठ कर दो वक्त की रोटी तो उन्हें मिल जाती है, पर पानी और शौच के लिए उन्हें बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं. वह गिरजाघर चौराहे पर कूड़े के ढेर के बगल में बैठे फूलचंद का बयान दर्ज करती हैं, जिसमे वह कहता है-‘हम तीस वर्षों से यहाँ बैठे हैं. शौचालय के लिए हम लोगों को बहुत परेशानी होती है. पांच लड़कियां और एक लड़का है. पाखाना करने के लिए हम लल्लापुर से पितरकुंडा या औरंगाबाद पानी की टंकी पर जाते हैं. सार्वजनिक शौचालय में दो रुपया प्रति व्यक्ति लगता है. बच्चों से एक रुपया ही लेते हैं. घर में न तो इतनी जगह है और न ही इतना पैसा है कि शौचालय बनवा सकें. हम लोग किसी तरह जीवन बिता रहे हैं.’ यही कहानी कैंट स्टेशन के राजाराम, चौकाघाट के दिनेश राम, कबीर चौरा के विकलांग जुगुल, मैदागिन के धूलबटोर और कोतवाली थाना के पीछे की टंकी के रामकिशुन की है. ‘सबसे दयनीय स्थिति’, मंजू देवी की दृष्टि में, ‘उन मोचियों की है, जो दालमंडी के नुक्कड़ पर पेशाबघर के साथ बैठते हैं. कोई व्यक्ति जहां एक मिनट खड़ा नहीं हो सकता, वहाँ वे पूरे दिन बैठ कर काम करते हैं. वह स्वतंत्रता का उपभोग कर रहे नागरिकों से सवाल करती हैं, ‘बनारस जैसे शहर के प्रतिदिन बदलते स्वरूप में आये दिन दो-चार नये मन्दिर बनते देखे जा सकते हैं. इस शहर में क्या कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो इनकी मूलभूत समस्याओं की ओर ध्यान दे? देश स्वाधीन है, पर हम जिस समाज में रह रहे हैं, उसमें मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ है. आज मूल प्रश्न केवल विकास का नहीं है, बल्कि सामान्य लोगों की रोजी-रोटी का है.’ वह लिखती हैं, इन अभागे मोचियों के लिए शौच के स्थान खेत-मैदान (7.5%), रेलवे स्टेशन (10%), लाइन पार (10%), गंगा का किनारा (7.5%) और सार्वजनिक शौचालय (50%) हैं.
स्वच्छता, रहन-सहन और भोजन के अपने अध्ययन में डा. मंजू देवी का कहना है, जिन मोचियों से भी वह मिलीं, सबने बताया कि वे प्रतिदिन नहाते हैं, लेकिन उनका काम जिस तरह का है, उसमे गंदगी हो ही जाती है.’ वह लिखती हैं—‘मोचियों के लिए स्वच्छता एक स्वप्न की तरह है. गंदगी ही उसकी सबसे बड़ी मित्र है. जहां रहने के लिए जगह न हो, बैठने के लिए नालियों, पेशाबघर का सहारा हो, वहाँ स्वच्छता की बात करना ही बहुत बड़ा मजाक है. जिन मैले-कुचैले कपड़ों के साथ वह अपना जीवन बसर कर 50-60 रूपये रोज कमा लेता है, वहीँ उसके लिए शाम की रोटी का सवाल सफाई से बहुत ऊपर होता है.’ मंजू देवी उन मोचियों के घर के हालात भी बयान करती हैं, जो किराये पर घर लेकर रहते हैं. लिखती हैं—‘अधिकांश मोचियों के पास रहने के लिए छोटा अँधेरा कमरा है. कमरे गंदे हैं, उनमे न जाने कितने वर्षों से पुताई नहीं हुई है. एक ही कमरे में उन्हें सबकुछ करना पड़ता है. जहां पांच-छह लोग मिलकर एक कमरा लेकर रहते हैं, वहाँ तो स्थिति और भी बुरी है. रोजी-रोटी की चिंता में उनके पास समय नहीं होता कि सफाई पर ध्यान दें.’ वह बताती हैं, रीवा, नयी गढ़ी से रोजी-रोटी की तलाश में आकर ज्ञानपुर में रहने वाले बैजनाथ के कमरे में तो खिडकी भी नहीं है. पर उसे खुशी है कि दोनों वक्त खाना मिल जाता है. घरों में रहने वाले मोचियों की पानी की समस्या भी विकट है. वह बताती हैं, केवल तीन प्रतिशत मोचियों के घरों में ही नल है, बाकी को काफी दूर से पानी लेकर आना पड़ता है. दशाश्वमेध पर बैठने वाले उपेन्द्र राम बताते हैं कि जब तक वह घर पहुँचते हैं, सरकारी नल से पानी जा चुका होता है, तब वह काफी दूर से हैण्डपम्प से पानी लाकर खाना बनाते हैं.
यह कैसी आज़ादी है? मंजू देवी लिखती हैं, ‘देश की करोड़ों-करोड़ जनता बदहाली की हालत में है, उसके पास घर नहीं है, कपड़े नहीं हैं, ज़मीन नहीं है, शिक्षा नहीं है, खेती नहीं है, स्कूल का मुंह नहीं देखा है, पीने के लिए स्वच्छ जल नहीं है, शौचालय नहीं है, शहर में बैठ कर कमाने-खाने के लिए जगह नहीं है, पुलिस का आतंक है, गाँवों में ज़मीदारों का आतंक है. ऐसी स्थिति में इन मोचियों/दलितों के लिए आज़ादी का क्या अर्थ है?’ क्या कहा जाये? यही कहा जा सकता है कि कोई भी सरकार इनके प्रति कभी संवेदनशील नहीं रही. न कांग्रेस की सरकारें और न दलित के नाम पर बनी बहुजन की सरकार. और दलित-विरोधी अखिलेश-सरकार से तो अपेक्षा की ही नहीं जा सकती.
किताब का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय “अपनी कहानी : अपनी जुबानी” है, जिसमे डा. मंजू देवी ने उन मोचियों के बयान कलम-बंद किये हैं, जो दूसरे राज्यों और शहरों से पलायन करके बनारस आये हैं. इनमे कोई बिहार से आया है, कोई कोलकाता से, कोई उत्तराखंड से तो कोई मध्य प्रदेश से आकर यहाँ मोचीगीरी करके अपना पेट पाल रहा है. इनमे एक बारह साल का सदानंद भी है, जो ट्रेन में घूम-घूम कर जूते पालिस करता है. यह ठाकुर जाति का है. इससे लेखिका की मुलाकात भी देहरादून से बनारस आने वाली एक ट्रेन में होती है. इसके माता-पिता मर चुके हैं, चाचा-चाची ने घर में रहने नहीं दिया. कानपुर के नौबस्ता का रहने वाला यह लड़का दादी के सहारे अपनी छोटी बहिन को छोड़ कर काम पर आता है. वह खुद तो पढ़ना नहीं चाहता, पर बहिन को पढ़ाना चाहता है.
डा. मंजू देवी ने कर्ज में डूबे मोचियों का भी जिक्र किया है, जो मौसम, बीमारी या अशक्त होते शरीर की वजह से काम नहीं कर पाते हैं. ऐसी स्थिति में वे भारी ब्याज पर कर्ज लेकर घर का खर्चा चलाते हैं. कभी उन्हें इलाज या शादी आदि के कारज के लिए भी कर्ज लेना पड़ता है. कर्ज से ज्यादा ब्याज की मार उन्हें बर्बाद कर देती है. वे ब्याज भरते रहते हैं, मूल कर्ज ज्यों का त्यों रहता है. यह एक ऐसी दलदल है, जिसमें वे धंसते ही चले जाते हैं. लेकिन,   सर्वे बताता है कि कर्ज उन लोगों का बहुत बड़ा सहारा भी है. कर्ज के बिना उनका काम नहीं चल सकता. इसलिए बीस-पच्चीस हजार का कर्ज उन पर हमेशा बना ही रहता है.
अन्तिम अध्याय में डा. मंजू देवी ने मोचियों के जीवन का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है. यह विश्लेषण बहुत गहन और यथार्थपरक है, जो उनके जीवन को गहराई से देखे बिना नहीं हो सकता था. अशिक्षा, असुरक्षा, अभाव और दरिद्रता के बीच जी रहे मोचियों के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का जैसा मार्मिक और विचारोत्तेजक अध्ययन उन्होंने किया है, उससे उनकी यह पूरी किताब एक जीवंत दस्तावेज बन गयी है. इस दस्तावेज में प्रत्येक मोची की एक मार्मिक कहानी है. ऐसी कहानियां बहुत कम दलित साहित्य का हिस्सा बन पायी हैं. प्रत्येक दलित लेखक और बुद्धिजीवी को इस पुस्तक का अध्ययन करना चाहिए, न केवल उसे अपनी सर्जना का हिस्सा बनाने के लिए, वरन उनकी समस्याओं को सरकार के समक्ष रखने के लिए भी. कम से कम दलित नेताओं और अनुसूचित जाति आयोग को तो इसका संज्ञान लेना ही चाहिए.
07 जून 2013


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