रविवार, 23 जून 2013

कौन है मूलनिवासी?
(कँवल भारती)
दलितों में एक नया संगठन बना है, जो मूलनिवासी की अवधारणा को लेकर चल रहा है. इस संगठन के लोग अभिवादन में भी ‘जय भीम’ की जगह ‘जय मूलनिवासी’ बोलने लगे हैं. ये लोग कहते हैं कि वे मूलनिवासी हैं और बाकी सारे लोग विदेशी हैं. क्या सचमुच ऐसा है? अगर इनसे यह पूछा जाये कि किस आधार पर आप अपने को मूलनिवासी कहते हैं, तो इनके पास कोई जवाब नहीं है. अधकचरे तर्क देते हुए ये ब्राह्मण-शूद्र की शब्दावली के आधार पर उन्हीं धर्मशास्त्रों का हवाला देना शुरू कर देते हैं, जिन्हें ऐतिहासिक दृष्टि से कभी मान्यता नहीं मिली. दरअसल इनके नेताओं ने जो सैद्धांतिकी बना ली है, उसी को इन्होने रट लिया है.
      अगर वर्ण का अर्थ रंग है, तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का अलग-अलग रंग होना चाहिए था. ब्राह्मण गोरे होते, क्षत्रिय नीले होते, वैश्य पीले होते और शूद्र काले होते. पर क्या ऐसा है? दो ही रंग हैं—गोरा और काला. सभी वर्णों में ये दोनों रंग मिल जायेंगे. अगर दलित-शूद्र भारत के मूलनिवासी होते, तो ये सभी वर्ण काले रंग के होते और बाकी सारे लोग विदेशी होने के कारण गोरे रंग के होते. पर क्या ऐसा है? ब्राह्मणों में कितने ही काले और भयंकर काले रंग  के मिल जायेंगे और दलितों में कितने ही गोरे और एक्स्ट्रा गोरे रंग के मिल जायेंगे. हजारों वर्षों के मानव-समाज के विकास के बाद आज अगर कोई यह दावा करता है कि वह मूलनिवासी है, तो वह बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकार है. अगर कोई यह मानता है कि आर्य और अनार्यों में रक्त-मिश्रण नहीं हुआ है, तो वह सबसे बड़ा मूर्ख है. आज रक्त के आधार पर कोई भी अपनी नस्ल की शुद्धता का दावा नहीं कर सकता.
      मूलनिवासी संगठन के लोग अगर डा. आंबेडकर को मानते हैं, तो उन्हें यह भी समझना चाहिए कि डा. आंबेडकर ने आर्यों को विदेशी नहीं माना है. उन्होंने इस सिद्धांत का खंडन किया है कि आर्य बाहर से आये थे. डा. आंबेडकर इस सिद्धांत को भी नहीं मानते कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण करके यहाँ के मूलनिवासियों को गुलाम बनाया था. वे कहते हैं कि “इस मत का आधार यह विश्वास है कि आर्य यूरोपीय जाति के थे और यूरोपीय होने के नाते वे एशियाई जातियों से श्रेष्ठ हैं, इस श्रेष्ठता को यथार्थ सिद्ध करने के लिए उन्होंने इस सिद्धांत को गढ़ने का काम किया. आर्यों को यूरोपीय मान लेने से उनकी रंग-भेद की नीति में विश्वास आवश्यक हो जाता है और उसका साक्ष्य वे चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था में खोज लेते हैं.” ब्राह्मणों ने इस सिद्धांत का समर्थन क्यों किया? इसका कारण डा. आंबेडकर बताते हैं कि ब्राह्मण दो राष्ट्र के सिद्धांत में विश्वास रखता है. इस सिद्धांत को मानने से वह स्वयं आर्य जाति का प्रतिनिधि बन जाता है और शेष हिंदुओं को अनार्य कह कर वह उन सबका भी श्रेष्ठ बन जाता है. यही कारण है कि तिलक जैसे घोर सनातनी ब्राह्मण विद्वानों ने इस सिद्धांत का समर्थन किया.
      दलित इस सिद्धांत को क्यों मानते हैं, यह समझ से परे है. पर, उनका मूलनिवासी दर्शन पूरी तरह डा. आंबेडकर की वैचारिकी के विरोध में है. मेरी दृष्टि में यह दलित-पिछड़े वर्गों में एक बड़े रेडिकल उभार को रोकने का षड्यंत्र है. इस षड्यंत्र का सूत्रधार पूंजीवाद है, जो फंडिंग एजेंसी के रूप में भारतीय और विदेशी दोनों हो सकता है. हमारे सीधे-साधे दलित-जन अपने नेतृत्व पर आंख मूँद कर विश्वास करते है. अपने आरक्षण को बनाये रखने के लिए वे उन्हें अपना तन-मन-धन तीनों का अर्पण करते हैं. वे बेचारे नहीं जान पाते कि उनके मुखिया उन्हें काल्पनिक शत्रु से लड़ा कर दलित आन्दोलन को भटकाने का काम कर रहे हैं.
      मूलनिवासी संगठन हो या भारत-मुक्ति-मोर्चा, वामसेफ हो या कोई और ‘सेफ’, ये सारे के सारे संगठन इसलिए फलफूल रहे हैं, क्योंकि कहाबत है कि जब तक बेवकूफ जिंदा है, अक्लमंद भूखा नहीं मर सकता. जो लड़ाई डा. आंबेडकर ने अपने समय में लड़ी थी, ये संगठन उसी कीली के चक्कर काट रहे हैं. आंबेडकर की जिस लड़ाई को आगे बढ़ना था, उसे पूंजीवाद के दलालों ने आज वहीँ रोक दिया है.
23 जून 2013



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