बुधवार, 12 जून 2013


निर्मला जैन के बहाने एक सवाल 
(कँवल भारती)


'पाखी' जून २०१३ के अंक में  निर्मला जैन का एक आत्मकथ्य या संस्मरण (जो भी है ) 'जमाने में हम' शीर्षक से छपा है. उसके हवाले से मैं यहाँ  एक (दलित) विमर्श रखना चाहता हूँ. उन्होंने एक जगह लिखा है-- "मुझे याद था बचपन का यह मच्छर मुक्त सदाबहार मौसम बावजूद इसके कि गली में बीचों-बीच खुली नाली बहती थी. गली के चार घरों के पाखानों से मैला इकठ्ठा कर सिर पर ढोने के लिए दिन में एक बार 'मेहतरानी' आती थी. अपनी नाक पर दुपट्टे का आच्छादन कसे जब 'बचके चलो, हटके चलो' की गुहार लगाते हुए उसकी सवारी गली के बीच से निकलती तो वातावरण अस्थाई रूप से कुवासित हो उठता. पर यह स्थिति बहुत दिन तक नहीं चली. 
         मेहतरानी की सवारी का जितना कुवासित चित्र निर्मला जैन ने प्रस्तुत किया है, वह कुवासित ही है, इसमें बिलकुल भी संदेह नहीं है. पर मेरा कहना यह है कि उस कुवासित वातावरण में जीने वाली उस मेहतरानी पर क्या गुजरती थी, वह उसके लिए किस कदर पीड़ादायक और सेहत के लिए किस कदर खतरनाक था,  कभी निर्मला जी ने उसे जानने की कोशिश की? कभी उसके साथ बैठ कर उसके दुःख को बाँटा? नहीं न?  यह यथार्थ सिर्फ निर्मला जी का ही नहीं है, सभी सवर्ण लेखकों का है. फ्लश की लेट्रिन तो अभी 25-30 साल पहले ही बनी होंगी, इससे पहले उन सभी ने अपने घरों में गंदगी उठा कर फेंकने वाली मेहतरानी या उठाने वाले मेहतर को ही देखा होगा. पर वह कभी भी उनके लेखन का हिस्सा नहीं बना. क्यों नहीं बना? इसका एक ही कारण है कि वे दलितों के प्रति संवेदनशील थे ही नहीं. लेकिन आज वही लोग सवाल करते हैं कि दलित साहित्य दलित ही क्यों लिख सकता है? सवर्ण क्यों नहीं लिख सकते? अगर सवर्ण लिख सकते होते तो अब तक लिखा होता. दर असल वे दलितों के प्रति न कल संवेदनशील थे और न आज हैं. और यह हमें आरक्षण के मुद्दे पर अच्छी तरह दिखाई देता है. 
१२ जून २०१३ 
   















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