शनिवार, 19 अप्रैल 2014

        दलित चिंतक कंवल भारती से सुरेश कुमार की बातचीत
सुरेश कुमार -दलित विमर्श क्या है? यह अन्य विमर्शों से किस प्रकार भिन्न है? वरिष्ठ विचारक  के रूप में आपकी राय क्या है ?
कंवल भारती- दलित विमर्श अन्य विमर्शों से बहुत अलग है। दलित विमर्श लोकतंत्र का विमर्श है। लोकतंत्र में जिन उपेक्षित वर्गों की पीड़ा को अभिव्यक्ति नहीं मिली, दलित साहित्य और विमर्श उस कमी को पूरा करता है। दलित समाज के साथ हजारों साल से चली रही उत्पीड़न और दमन की परम्परा और दलितों को उपेक्षित करने वाली व्यवस्था के प्रति लोकतंत्र का स्वर है, दलित विमर्श। दलित विमर्श को दलितों का विमर्श कहना या दलित जातियों के आधार पर इसको जातिवादी विमर्श नहीं कहा जा सकता, जो कहता है, वह नासमझ है।
सुरेश कुमार - आप की दृष्टि में दलित चिंतन की आंतरिक चुनौतियाँ क्या हैं ?
कंवल भारती- देखिए, दलितों की आंतरिक चुनौतियाॅं जाति व्यवस्था की कमजोरियाँ हैं। इसी की वजह से दलित विमर्श में भी जाति के आधार पर धारणाएं चल रही हैं। कुछ साहित्यकार चमार-जाटव के विमर्श में भी उलझ गये हंै। इस विमर्श को ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी हवा दी है। ये कमजोरिया जाति व्यवस्था की वजह से हैं। फिर भी दलित जातियों के बीच में भेदभाव की जो दीवारें हैं, वह अगर दलित विमर्श में आती हैं, तो अच्छी बात है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था के मूल में जाति ही तो है। ब्राह्मणवादी लोग कभी नहीं चाहेंगे कि जाति खत्म हो। इसलिये ब्राह्मणवादी साजिशों से दलित साहित्कारों को बचना है। दलित जातियाॅं बहुत जल्दी ब्राह्मणवादी साजिशों का शिकार हो जाती हंै। कुछ दलित जातियों का वर्चस्ववाद भी इसको खाद-पानी देता है। इसके लिये दलित विमर्श का लोकतांत्रिक होना बहुत जरूरी है, वरना जातिवाद हमारे आन्दोलन को खत्म कर देगा।
सुरेश कुमार - दलित चिंतन की धारा में रैदास, कबीर स्वामी अछूतानंद, अम्बेडकर को तो स्वीकार किया जा रहा ह,ै बुद्ध को नही?। एक वरिष्ठ लेखक के नाते आपकी क्या राय है?
कंवल भारती- असल में, जो जातिवादी हैं, वे ही बुद्ध को नकार रहे हैं। मैंने पहले कहा है कि दलित विमर्श लोकतांत्रिक विमर्श है और भारत में बुद्ध लोकतन्त्र के सबसे बड़े व्याख्याता हैं, तो इस संदर्भ में बुद्ध को नकारा ही नहीं जा सकता। बुद्ध पहले व्यक्ति थे जिन्होनेें गणतंत्र के पक्ष में आवाज उठायी थी, वर्ण व्यवस्था का खण्डन किया था। अब उसे नकारते हुए कुछ चिंतकों का कहना है कि वे क्षत्रिय थे इसलिए वे दलित दलित विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकते। यह जातिवादी दलील है, कोई वैज्ञानिक तर्क नहीं है। इस तरह से तो हम अश्वघोष, राहुल सांकृत्यायन, सबको नकारेंगे। यह पागलपन है। बुद्ध को नकारने का मतलब है कि हम इतिहास के पूरे कालखंड को नकार रहे हैं। क्षत्रिय होना एक अलग बात है। पर यह देखिए कि उनकी वैचारिकी क्या है? क्या वह जातिवाद के पक्ष में है? आप वाल्टेयर को देखिए, वे जिस वर्ग में पैदा हुए उसी वर्ग के विरुद्ध उन्होंने विद्रोह किया, उसी प्रकार बुद्ध भी हैं जो अपने ही वर्ण के खिलाफ खड़े होते हैं। वे राजा के पुत्र थे। वे राजपुत्रों के लड़कों को भिक्षु बनाते हैं और इसलिए बनाते हैं क्योंकि वे भोगेश्वर-परायण युवकों को जमीनी हकीकत दिखाना चाहते थे, कि वे भूखा रहकर देखें कि भूख क्या होती है? वे पैदल चलकर देखें कि पाॅंवों में किस तरह छाले पड़ते हैं? तो उन्होंने इस प्रकार उनको हकीकत दिखाई। यह उन्होंने बहुत बड़ा काम किया है। इसलिए बुद्ध को नहीं नकारा जा सकता। 
सुरेश कुमार -बुद्ध को  कौन विद्वान नकार रहे हैं उनके नाम बताइये?
कॅंवल भारती-उनको तो आप भी जानते हैं। डा. धर्मवीर हैं, श्यौराज सिंह बेचैन हैं, डा.दिनेश राम हैं। ये सब बुद्ध को नकार रहे हैं, मेरी समझ में नहीं आता कि इस नकार को लेकर वे जाना कहाॅं चाहते हैं ? डा. धर्मवीर का मानना है कि बाबा साहब ने बौद्ध धर्म अपनाकर बहुत बड़ी गलती की है। यह तो अपने को समझ वाला और आंबेडकर को नासमझ बताने की नादानी है। ये लोग इतिहास की धारा को मोड़ने का काम कर रहे हैं। बुद्ध को या अम्बेडकर को नकारने से चीजें थोड़े ही बदल जायेंगी। बुद्धिज्म को आये अब तक 50 साल हुए होंगे। 50 साल में पूरा भारत तो बौद्ध नहीं हुआ। 10 या 15  प्रतिशत दलित ही बौद्ध हुए होंगे। डा. धर्मवीर नया आजीवक धर्म चला रहे हैं। पता नहीं वे कितने वर्षों में दलितों को आजीवक बना देंगे? धर्मवीर तो कबीर को भी सिर्फ जारकर्म तक सीमित करने का गन्दा खेल खेल रहे हैं।
सुरेश कुमार -दलित साहित्य में दलित महिला लेखिकाओं की भागीदारी अपेक्षाकृत कुछ कम दिखाई दे रही है। वरिष्ठ आलोचक हाने के नाते आप से जानना चहूंगा। इसका कारण क्या हो सकता है?
 कंवल भारती- आज से 30-40 वर्ष पहले हिन्दी में एक पत्रिका निकलती थी चाँद’। इस पत्रिका ने सम्भवतः 1935 में ‘विदुषी अंक निकाला था। उस समय ‘हिन्दू लड़की यदि मिडिल पास कर लेती थी, तो उसका चाँद पत्रिका में फोटो छपता था। जो लड़की बी0ए0 पास कर लेती थी, उस पर टिप्पणियाँ और लेख निकालते थे। यह वह जमाना था जब स्त्री को पढ़ने का अधिकार बिल्कुल नहीं था। जब हिंदू स्त्रियों को पढ़ने का अधिकार नहीं था तो दलित स्त्रियों का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में जो जन-जागरण हुआ है, वो खास तौर से 80 और 90 के दशक में हुआ है। दलितों ने जब से पढ़ना-लिखना शुरू किया है, तो उनमें भी वही भावना थी कि वे अपनी लड़कियों को पढ़ायें, लेकिन पैसे के अभाव में थोड़ा बहुत ही पढ़ा पाते थे। लड़कियाँ घर में काम करने लगती थी।
 अब लड़कियाँ पढ़ रही हैं तो लिख भी रही हैं। इसलिए दलित लड़कियों में साहित्य की चेतना थोड़ी देर से आयी है। उनकी शिक्षा जैसे-जैसे बढ़ती जायेगी, वैसे-वैसे उनका दिमाग भी खुलता जायेगा। बहुत सी जातियों में तो आज भी लड़कियाॅं शिक्षा प्राप्त नहीं कर रही हैं। यही वजह है कि दलित महिला लेखन में कमी है। इसका मतलब यह नहीं है कि दलित स्त्री लेखन बिल्कुल हाशिए पर है। मेरी पुस्तक ‘दलित कविता का संघर्ष’ में मैंने अनेक दलित कवियत्रियों जैसे- अनुसूया, आशा गौतम, कुसुमलता आदि का जिक्र किया है, जो 70-80 के दशक में बहुत अच्छा गीत लिखती थी। पर पता नहीं अब वे कहाँ हैं? सम्भवतः शादी करने के बाद उनका लेखन कार्य खत्म हो गया। मैं चाॅंद के  ‘विदुषी’ अंक की बात कर रहा था। उसमें तब काफी संख्या में लेखिकाओं की सूची है। इस अंक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें किसी पुरुष लेखक का लेख नहीं है। लेकिन आज वे लेखिकाएॅं दिखाई नहीं देती। महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चैहान और दो-तीन महिलाओं का नाम है जिन्हें सब जानते हैं बाकी कहाँ गई, कुछ नहीं पता। स्त्रियों के साथ बड़ी विडम्बना जुड़ी हुई है। उन्हें घर-गृहस्थी के भार भी उठाने पड़ते हैं, बच्चे भी पालने होते हैं। स्त्रियों के लिये इन समस्याओं से जूझते हुए लेखन करना आसान काम नहीं है।
सुरेश कुमार -दलित विमर्श मातृसत्ता और पितृसत्ता से तो लड़ रहा है लेकिन उसमें कहीं न कहीं दलित समाज की समस्याएं छूटी जा रही हैं, इस विषय में आपकी राय क्या है?
कंवल भारती-हाॅं, यह बात तो सही है। समाज में बहुत सारे मुद्दे हैं जिनसे समाज का निर्माण होता है। वे सब भी साहित्य में आने चाहिए। राजनीतिक और आर्थिक सवाल दलित साहित्य में नजर ही नहीं आ रहे हैं। निजीकरण से कितना नुकसान हो रहा है, इस पर कोई चिंतन नहीं हो रहा है। लोकतंत्र में भागीदारी की बात तो की जा रही है, पर जो हमारे प्रतिनिधि ह,ैं वे हमारा कितना प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, यह भी तो साहित्य में आना चाहीए। पर यह नहीं हो रहा है। दलितों के नजरिए से राजनीतिक माॅडल किस तरह का होना चाहिए, इस पर कोई विचार नहीं हो रहा है। इसलिए वे सारी समस्याएॅं जो राजनीति से जुड़ी हुई है, पीछे छूट जाती हंै। दलित लेखन में या तो अंतर्जातीय विवाह पर कहानियाँ आ रही हैं या जातीय उत्पीड़न पर।  न जातिवाद पर लेखन और न हो रहा है सांप्रदायिकता पर। दलित साहित्य को अपना दायरा व्यापक बनाना होगा।
सुरेश कुमार - हिन्दी आलोचना में और दलित आलोचना में मूल अंतर क्या है? आप हिन्दी दलित साहित्य  के प्रमुख आलोचक  होने के नाते आपकी दृष्टि में मूल अंतर क्या है?
कंवल भारती- हिन्दी के पारंपरिक आलोचना में वे सवाल नहीं है जो दलित आलोचकों ने उठाये है। मिसाल के तौर पर निराला की ‘चतुरी चमार’ कहानी को लीजिए, उसमें जो चतुरी है, वह कबीरपंथी है और कबीर साहित्य का मर्मज्ञ है। पर वह नशा करता है, माॅंस खाता है। निराला ने यहाॅं कबीर पंथ का विकृतीकरण किया है। कबीरपंथी की यह विशेषता है कि वह न मांस खाता है और न नशा करता हैै। हिन्दी के आलोचक इस कहानी को दलित चेतना की कहानी मानते हैं। लेकिन दलित आलोचक उसे दलित चेतना की कहानी नहीं मान सकते। इसी तरह निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता है, जिसका पूरा ढांचा सामंतवादी है। मैंने इसकी उदाहरण केसाथ आलोचना की है, जिसमें मैंने दो सवाल उठाये हैं-एक तो भाषा पर कि वह सामंती भाषा है। दूसरायह कि उसमें सामन्ती पुरुष का गुणगान किया गया है। प्रेमचंद की कहानियाँ तो फिर भी बहुत अच्छी हैं। लेकिन कुछ कहानियाँ जैसे कफन, सदगति, मंदिर को लेकर ही दलित आलोचकों ने सवाल उठाये। ये सवाल मुखधारा की आलोचना में नहीं मिलेंगे। प्रेमचंद कह रहे है कि सुखिया के पति ने सपने में आकर कहा कि बीमार बच्चे को मंदिर में ले जाओ, वहाॅं पूजा करने से वह ठीक हो जायेगा।  सवाल यह है कि जब दलित का मंदिर में जाना निषिद्ध था, तो उसका पति ऐसा सोच भी कैसे सकता था? व्यक्ति सपने में आकर तभी कुछ कहेगा जब इस तरह की घटनाएं वहाँ होती रहेंगी। इस तरह की कल्पनाओं से हिन्दू समाज की कठोरता को तो साबित किया जा सकता है, पर वह न यथार्थवादी है और न वैज्ञानिक समाधान है।
सुरेश कुमार -दलित साहित्य का विकास जिस तरह से हुआ है, उस प्रकार से दलित पत्रकारिता का नहीं। आप शुरूआती दौर में एक पत्रकार भी रहे हैं, तो इसके कारण क्या हैं?
कंवल भारती- आजकल लोग सवाल उठाते हैं कि मीडिया में दलित पत्रकार नहीं हैं, ढूढ़ते रह जाओगे। पहली बात यह कि मीडिया या पत्रकारिता में दलित जाना ही नहीं चाहते हंै। बहुत कम लोग जाना चाहते हैं क्योंकि वहाँ पैसा कम है, सुरक्षा भी नहीं है और वह एक कठिन पेशा भी है। मैंने अपने लेखन की शुरुआत पत्रकारिता से की थी। मैं अपनी तारीफ नहीं कर रहा हूँ किंतु मुझे गर्व होता है कि मैंने हिन्दी पत्रकारिता में दलित सवालों को उठाने की शुरुआत की। जब मैं ‘स्वतंत्र भारत’ में लिखा करता था सन् 70-80 की बात है प्रभात, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला में दलित सवालों पर बराबर मेरे लेख छपा करते थे। नैमिशराय जी भी उन्हीं दिनों पत्रकारिता में आये थे। उसके बाद तो बहुत सारे लोग दलित पत्रकारिता में आये और अब तो अपने अखबार और पत्रिकाएॅं भी दलित लेखक निकालने लगे हैं। इसलिये अब तो दलित पत्रकारिता का एक तरह से पृथक विकास भी हो रहा है।
 सुरेश कुमार -आपके और डाॅ0 धर्मवीर के बीच जो वैचारिक मतभेद चल रहा है उसका मूल कारण क्या है?
कंवल भारती- देखिए, डा. धर्मवीर से मेरी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है। उनसे विचारों की लड़ाई है। वे जिस तरह का प्रदूषण दलित साहित्य में फैला रहे हैं, वह समाज के हित में नहीं है। वे दलित स्त्रियों के प्रति जिस अपमानजनक साहित्य का निर्माण कर रहे हैं, उसे कोई भी सम्वेदनशील लेखक बरदाश्त नहीं कर सकता।  वे कह रहे हैं कि हर दलित बच्चा अवैध है और हर दलित पुरुष को बच्चे का डी0एन0ए0 टेस्ट कराना चाहिए कि वह उसी का है या किसी और का? इसका मतलब है कि उनकी नजर में हर दलित स्त्री जार-कर्म कर रही है। इस स्त्री-विरोधी चिन्तन को कैसे बरदाश्त किया जा सकता है? इसलिये मैंने उनका विरोध किया और ‘धर्मवीर का फासिस्ट चिन्तन’ किताब लिखी। असल में धर्मवीर मानसिक रोगी हैं। इसलिये उनकी सोच बहुत ही गलत है। मिसाल के तौर पर अगर किसी घर में पिता-पुत्र में झगड़ा है तो वह  सीधा आरोप लगा देंगे कि वह पुत्र अवैध सन्तान है। यह एक बीमार सोच है।
  इधर, हिन्दी के तमाम आलोचक मुझ पर ताने कसते थे कि धर्मवीर पर आप मौन क्योें हैं? वे दलित स्त्री के खिलाफ लिख रहे हैं, वे बुद्ध के खिलाफ लिख रहे हैं। राॅंची में एक सेमिनार में सुभाष गताडे़ और मोहनदास नैमिशराय ने श्यौराज सिहं बेचैन की मौजूदगी में मुझसे कहा कि आपकी खामोशी अच्छी नहीं है। अगर आप मौन रहकर धर्मवीर का समर्थन कर रहे हैं, तो यह खतरनाक है। मुझे भी लगा कि धर्मवीर के खिलाफ लिखना चाहिए। मैंने नमिता सिंह से बात की और उनकी पत्रिका ‘वर्तमान साहित्य’ मे मैंने लिखना शुरु कर दिया। उन्हीं लेखों का संकलन ‘धर्मवीर का फासिस्ट चिंतन’ नाम से किताब के रूप में छपकर आया। मैं बहुत संतुष्ट हूँ कि मैंने एक फांसीवादी विचारधारा को नकारा है। धर्मवीर के शिष्यों को छोड़कर पूरे हिन्दी बिरादरी ने ‘धर्मवीर का फासिस्ट चिंतन’ किताब का स्वागत किया है।
सुरेश कुमार -‘धर्मवीर का फासिस्ट चिंतन’ किताब का स्वागत किन लेखकों ने किया नाम लेकर बताए?
कॅंवल भारती-यह गलत सवाल है। सभी लेखकों ने उस किताब का किया है। कोई एक नाम हो तो बताऊॅं। 
सुरेश कुमार -आपकी कितनी कृतियाँ अब तक प्रकाशित हुई हैं और आपकी पहली रचना कौन है ?
कंवल भारती- मैंने अपने लेखन की  ‘शुरुआत’ कविता से की है। मेरी पहली रचना 1971 ‘नई चेतना नये राग’ से छपी थी। उसमें मेरी कविताओं के साथ-साथ अन्य कवियों की कविताएॅं भी शामिल थीं। यह किताब चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने अपने पब्लिकेशन से छापी थी। 1977 में मेरी दूसरी किताब ‘ईश्वर, ब्रह्म और आत्मा’ छपी। उस किताब का पंजाबी में भी अनुवाद हुआ, जो इंग्लैण्ड में छपा और उसकी पहले संस्करण की ही 10,000 प्रतियाँ छपी थीं। इसके बाद में ‘डाॅ0 अम्बेडकर बौद्ध क्यों बने’ और ‘धम्मविजय’ ये दो कितार्बें आइं। अब तक मेरी 40 किताबें छप चुकी हैं।
सुरेश कुमार -युवा पीढ़ी के जो  दलित लेखक हैं, उनके लेखन के संबंध मंे आपकी राय क्या है?
 कंवल भारती- काफी संख्या में युवा दलित लेखक लेखन के क्षेत्र में आये हैं। उनके लेखन में एक किस्म की विविधता भी है और सवालों की परिपक्वता भी उनमें मिलती है। लेकिन उनसे मेरा यह कहना है कि उन्हें भावुकता से बचना चाहिए। दलित साहित्य को अब तो उन्हीं से उम्मीदें हैं।
    (यह साक्षात्कार होटल ‘रेस्ट इन’ चारबाग, लखनऊ में दिनांक 27 दिसम्बर 2013 को लिया गया था।)

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

dalit vimarsh par mahatvapoorna vartalap