(14 अपे्रल 2014 को भारतीय उच्च अध्ययन
संस्थान, शिमला
में आयोजित सेमीनार में पठित आलेख)
ओमप्रकाश वाल्मीकि और दलित साहित्य
कॅंवल भारती
यह कहा जाता है कि महाराष्ट्र में जब दलित पैंथर
अस्तित्व में आया, उसी समय दलित साहित्य भी अस्तित्व में आया। लेकिन यह उसके नामकरण के विषय में
सच हो सकता है, दलित साहित्य के बारे में नहीं। अछूत जातियों द्वारा लिखा जाने वाला साहित्य
दलित पैंथर के जन्म से पहले से मौजूद रहा है। यह सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं,
बल्कि भारत की हर
भाषा में मौजूद रहा है। हिन्दी क्षेत्र में इसका इतिहास सदियों पुराना है।
अगर हम आधुनिक हिन्दी दलित साहित्य की बात करें,
तो यह उन्नीस सौ
बीस और तीस के दशक में अस्तित्व में आया। इसकी शुरुआत स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ ने की थी, जो ‘आदि हिन्दू’ आन्दोलन के प्रवत्र्तक,
कवि, नाटककार और
सम्पादक-पत्रकार थे। उन्होंने 1920 में कानपुर में ‘आदि हिन्दू प्रेस’ स्थापित किया, और ‘आदि हिन्दू’ अखबार निकाला,
1929 में
आर्य-अनार्य-संघर्ष पर ‘आदि खण्ड काव्य’ की रचना की और 1926 में ब्राह्मणवाद के काले इतिहास
पर ‘रामराज्य-न्याय’
और ‘मायानन्द बलिदान’
नाम से दो नाटक
लिखे। यही नहीं, उन्होंने आदि हिन्दू रंगमंच भी बनाया था, जो उनकी सभाओं में उन नाटकों का
मंचन करता था। स्वामी जी की मृत्यु के पश्चात् आजादी के बाद इस चेतना और धारा का
विकास उनके परम मित्र और साथी चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने किया। उन्होंने देखा कि
देश में लोकशाही कायम होने के बाद भी ब्राह्मणशाही हावी है और हिन्दी साहित्य में
ब्राह्मणवाद की जय-जयकार करने वाले लेखक राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किये जा रहे
हैं। हिन्दी साहित्य हिन्दू साहित्य बन गया था, जिसमें न दलितों की तकलीफें थीं
और न उनकी आवाज थी। इसी समय चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने हिन्दी साहित्य में
दलित-शोषित समाज के पक्ष में चिन्तन और विमर्श की नयी धारा चलायी। उन्होंने
दलित-इतिहास की खोज की, कबीर-रैदास के सन्तमत को प्रतिष्ठित किया और हिन्दू
संस्कृति को कठघरे में खड़ा किया। उन्होंने 1960 में दलितों के साहित्य को
प्रकाशित करने के लिये ‘बहुजन कल्याण प्रकाशन’ की स्थापना की और ‘समाज सेवा प्रेस’
लगायी। उन्होंने
सौ से भी अधिक किताबें लिखीं और अन्य दलित लेखकों की भी बहुत सी किताबें प्रकाशित
कीं। उन्होंने ही पहली बार हिन्दी क्षेत्र के दलितों को कबीर, रैदास, बुद्ध, आंबेडकर और रामास्वामी
नायकर के जीवन-दर्शन से परिचित कराया। उन्हीं के साहित्य ने हिन्दी में दलित
साहित्य की दूसरी आधुनिक पीढ़ी का निर्माण किया।
ओमप्रकाश वाल्मीकि इसी आन्दोलन की उपज हैं। उन्होंने
अपनी आत्मकथा में चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु का जिक्र किया है, जिनकी डा़ आंबेडकर के
जीवन पर लिखी किताब ‘बाबासाहेब का जीवन-संघर्ष’ को पढ़कर ही पहली दफा उन्होंने आंबेडकर के बारे में जाना
था। वाल्मीकि जी ने इस किताब का नाम भूलवश गलत लिखा है-‘डा. अम्बेडकरः जीवन-परिचय’। उस समय वाल्मीकि 12वीं में पढ़ते थे और
गाॅंधी, नेहरू,
पटेल, राजेन्द्रप्रसाद,
राधाकृष्ण,
विवेकानन्द,
भगतसिंह, सुभाषचन्द्र बोस,
यहाॅं तक कि
सावरकर के नामों से भी परिचित थे, पर डा. अम्बेडकर का नाम उन्होंने विल्कुल नहीं सुना था।
इसलिये जब उनके जाटव सहपाठी हेमलाल ने उन्हें जिज्ञासु जी की किताब दी, तो उन्होंने उससे बहुत
हैरान होकर पूछा कि ये अम्बेडकर कौन हैं? अतः कहना न होगा कि अम्बेडकर की उस जीवनी को पढ़कर
ही उन्हें दलित यथार्थ और आन्दोलन का ज्ञान हुआ। उन्होंने स्वयं लिखा है-
जैसे-जैसे मैं इस पुस्तक के पृष्ठ पलटता गया, मुझे लगा, जैसे जीवन का एक अध्याय मेरे
सामने उघड़ गया है। ऐसा अध्याय जिससे मैं अनजान था। डा. अंबेडकर के जीवन-संघर्ष ने
मुझे झकझोर दिया था।’ इस किताब ने उनमें अंबेडकर के प्रति गहरी रुचि पैदा कर दी, परिणामतः पुस्तकालय में
अंबेडकर की जो किताबें उन्हें मिल सकीं, उनको भी उन्होंने पढ़ लिया। उन दिनों हिन्दी में चार
पुस्तकें ही उपलब्ध थीं। वाल्मीकि जी ने लिखा है- ‘इन पुस्तकों के अध्ययन से मेरे
भीतर एक प्रवाहमान चेतना जागृत हो उठी थी। इन पुस्तकों ने मेरे गूॅंगेपन को शब्द
दे दिये थे। व्यवस्था के प्रति विरोध की भावना मेरे मन में इन्हीं दिनों पुख्ता
हुई थी।’ (जूठन, पृष्ठ 89)
यही वह समय है, जब ओमप्रकाश वाल्मीकि के भीतर एक
लेखक ने जन्म लिया। उन्होंने कविताएॅं लिखीं, जो उस समय की दलित पत्रिका ‘निर्णायक भीम’ में छपती थीं। इन्हीं
कविताओं का एक संग्रह उन्होंने ‘सदियों का संताप’ नाम से 1989 में अपने पैसों से छपवाया था। दलित साहित्य
में इसी कविता-संग्रह ने हिन्दी की
मुख्यधारा की आधुनिक कविता को आईना दिखाया था। यह 30 पृष्ठों की पुस्तिका थी,
जिसमें उनकी 19 कविताएॅं संकलित हैं।
यह वह समय था, जब न मुख्यधारा के अखबार दलितों की रचनाएॅं छापते थे और न आज की तरह प्रकाशक
उनकी किताबें छापते थे। इसलिये इस संग्रह पर कहीं कोई हलचल नहीं मची थी। मुख्यधारा
ने उन्हें तब अपनाया, जब 1996 में राजेन्द्र यादव ने अपने वार्षिक कार्यक्रम में उन्हें प्रस्तुत किया और
उन्हीं के प्रयास से 1997 में उनकी आत्मकथा ‘जूठन’ को राधाकृष्ण प्रकाशन ने प्रकाशित किया। इससे पहले
उनकी ही नहीं, किसी भी दलित लेखक की कोई किताब किसी हिन्दी प्रकाशक ने नहीं छापी थी। ‘जूठन’ को जबरदस्त प्रसिद्धि
मिली और साथ ही दलित साहित्य को भी। लेकिन इसी समय दलित साहित्य को लेकर हिन्दी
में एक तीखी बहस शुरू हुई, जिसमें वामपंथी लेखकों ने सकारात्मक रुख न अपनाया होता,
तो ब्राह्मणवादी
लेखकों ने उसे खारिज ही कर दिया था, हांलाकि आज भी वे इसके प्रति बिल्कुल भी संवेदनशील
नजर नहीं आते हैं।
इस बहस में जो सबसे बड़ा सवाल उठाया गया था और जो आज
भी उठाया जाता है, वह यह है कि क्या दलित साहित्य दलित ही लिख सकता है? इस सवाल पर थोड़ी चर्चा करना यहाॅं
इसलिये जरूरी लगता है, क्योंकि इससे ओमप्रकाश वाल्मीकि के साहित्य को और दलित
साहित्य की अवधारणा दोनों को ठीक से समझा जा सकता है। इस सन्दर्भ में पहला
प्रतिप्रश्न यह है कि ‘जूठन’ की रचना ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ही क्यों की? किसी गैर-दलित लेखक ने
ऐसा लेखन क्यों नहीं किया? माना कि ‘जूठन’ आत्मकथा है और शायद यह किसी सवर्ण की आत्मकथा नहीं हो सकती।
पर यह नहीं माना जा सकता कि किसी गैर-दलित लेखक ने अपने जीवन में जूठन खाने वाली
दलित जाति को बिल्कुल न देखा हो? तब किसी गैर-दलित लेखक ने उस देखे हुए यथार्थ को ही संवेदना
के साथ चित्रित करने की आवश्यकता क्यों नहीं समझी? क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि
दलित का जीवन उनकी सम्वेदना और चेतना में था ही नहीं। कहना न होगा कि दलित लेखकों
ने जिस सामाजिक यथार्थ को अपने साहित्य में दिखाया है, उसे गैर-दलित लेखक कैसे दिखा
सकते थे, जबकि
दलितों के साथ उनका सामाजिक व्यवहार ही नहीं था।
ओमप्रकाश वाल्मीकि के कविता-कर्म पर आता हूॅं। उनके
पहले कविता-संग्रह ‘सदियों का संताप’ में पहली कविता है- ‘ठाकुर का कुंआ’। इस कविता ने हिन्दी साहित्य के भद्रलोक को,
जो हिन्दुत्व के
तहत शीर्षासन कर रहा था, पैरों के बल खड़ा कर दिया था। इस कविता में ‘ठाकुर का कुंआ’ जातिव्यवस्था का प्रतीक
नहीं है, बल्कि
सामन्तवादी और पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक है। कुंआ का अर्थ है पानी, जिसके बिना जीवन की
कल्पना नहीं की जा सकती। जीवन के ये सारे संसाधन इसी सामन्ती और पूंजीवादी
व्यवस्था के हाथों में हैं। उत्पादन करने वाली जातियां और मेहनतकश लोग सब-के सब
इसी व्यवस्था के गुलाम हैं. इसी यथार्थ को ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस कविता में
व्यक्त किया है-“चूल्हा मिट्टी का/मिट्टी तालाब की/तालाब ठाकुर का/भूख रोटी की/रोटी बाजरे
की/बाजरा खेत का/खेत ठाकुर का/बैल ठाकुर का/हल ठाकुर का/हल की मूठ पर हथेली
अपनी/फसल ठाकुर की/कुंआ ठाकुर का/पानी ठाकुर का/खेत-खलिहान ठाकुर के/गली-मुहल्ले
ठाकुर के/फिर अपना क्या? गाँव? शहर? देश?” इस कविता में सबसे विचारोत्तेजक पंक्ति यही है- ‘फिर अपना क्या?’ यह सवाल उस जन का है,
जो इस तंत्र में
धर्मतंत्र और जातितंत्र के नाम पर सबसे ज्यादा शोषित है, और जिसकी पीड़ा का कोई अंत नहीं
है। यह जन मुट्ठी तानकर सड़क पर उतरता है, व्यवस्था को ललकारता है-“किन्तु इतना याद रखो/ जिस रोज
इन्कार कर दिया/दीया बनने से मेरे जिस्म ने/अँधेरे में खो जायोगे/हमेशा-हमेशा के
लिये,’’ तो
यह तंत्र उसे कुचलने के लिए नृशंसता की हर हद से गुजर जाता है. लेकिन ‘सदियों का संताप’
कविता में
वाल्मीकि कहते हैं कि दुश्मन के खिलाफ इस चीख को जिन्दा रखना है, क्योंकि भयानक त्रासदी
के युग का खात्मा होने के इन्तजार में हमने हजारों वर्ष बिता दिये, अब और नहीं-“दोस्तों, इस चीख को जगाकर पूछो/कि
अभी और कितने दिन/इसी तरह गुमसुम रहकर/सदियों का संताप सहना है?”
‘तब तुम क्या करोगे?’ इस संग्रह की सबसे चर्चित कविता
है, जिसमे
कवि ने दर्द और आक्रोश को व्यक्त करने की अपनी अलग ही प्रश्नात्मक शैली ईजाद की
है। यह शैली इतनी लोकप्रिय हुई कि इससे प्रभावित होकर कितनी ही दलित कविताएँ लिखी
गयीं। मेरी कविता ‘तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?’ की शैली भी इसी कविता से ली गयी है। वाल्मीकि ने इस
कविता में उन लोगों की चेतना को झकझोरा है, जो दलितों के प्रति पूरी तरह संवेदना-विहीन
हैं। ऐसे ही लोगों से वे सवाल करते हैं-“यदि तुम्हें, मरे जानवर को खींचकर/ले जाने के
लिए कहा जाये/और, कहा जाय ढोने को/पूरे परिवार का मैला/पहनने को दी जाय उतरन/तब तुम क्या करोगे?/यदि तुम्हें/रहने को
दिया जाय/फूंस का कच्चा घर/वक्त-बे-वक्त फूंककर जिसे/स्वाह कर दिया जाय/बरसात की
रातों में/ घुटने-घुटने पानी में/सोने को कहा जाय,/तब तुम क्या करोगे?” यह लम्बी कविता है,
जिसमे दलित जीवन
का वह यथार्थ भद्र वर्ग के सामने रखा गया है, जिसे वह देखना तक पसंद नहीं
करता। इसलिए अंत में कवि कहता है-“साफ-सुथरा रंग तुम्हारा/झुलसकर सांवला पड़ जायेगा/खो जायेगा
आँखों का सलोनापन/तब तुम कागज पर/नहीं लिख पाओगे/सत्यम, शिवम, सुन्दरम।”
हालांकि ओमप्रकाश वाल्मीकि को सबसे ज्यादा सफलता
उनकी आत्मकथा ‘जूठन’ से मिली, पर सच यह है कि उनकी अनुभूतियों का सर्वाधिक विस्तार उनकी कहानियों में हुआ
है. उन्होंने नयी कहानी के दौर में दलित कहानी की रचना करके नयी कहानी के
अलमबरदारों को यह बताया कि नयी कहानी में व्यक्ति की अपेक्षा समाज तो अस्तित्व में
है, पर
दलित समाज उसमें भी मौजूद नहीं है. सलाम, पच्चीस चैका डेढ़ सौ, रिहाई, सपना, बैल की खाल, गो-हत्या, ग्रहण, जिनावर, अम्मा, खानाबदोश, कुचक्र, घुसपैठिये, प्रोमोशन, हत्यारे, मैं ब्राह्मण नहीं हूँ
और कूड़ाघर जैसी कहानियों ने यह बताया कि यथार्थ में नयी कहानी वह नहीं है,
जिसे राजेन्द्र
यादव और कमलेश्वर लिख रहे थे, बल्कि वह है जिसमे हाशिये का समाज अपने सवालों के साथ मौजूद
है.
वाल्मीकि की जिस एक
कहानी पर सबसे ज्यादा विवाद हुआ, वह ‘शवयात्रा’ है. यह विवाद वाल्मीकि-जाटव-विवाद बन गया था. पर यह विवाद
जिन्होंने भी खड़ा किया, उन्होंने वाल्मीकि को ही सही साबित किया। जातीय भेदभाव
सिर्फ दलित और सवर्ण के बीच की व्यवस्था नहीं है, वरन् यह हर वर्ग और समाज में
मौजूद है। ‘शवयात्रा’ के जरिए कुछ लेखकों ने उनपर यह आरोप लगाने की कोशिश की कि वाल्मीकि जाटव-विरोध
की नयी इबारत लिख रहे हैं। पर ऐसा नहीं है। उनकी ‘सलाम’ कहानी देखिए, जिसमें वे गाॅंव में
वाल्मीकि समाज में प्रचलित सलाम की रस्म को तोड़ते हैं। इस रस्म में शादी के बाद
दुल्हा या दुल्हन को सवर्ण-घरों में सलाम करने के लिये जाना होता था। यह दलित के
स्वाभिमान को कुचलने वाली रस्म थी। इस कहानी में नायक हरीश, जो दूल्हा भी है, इस रस्म के खिलाफ आवाज
उठाता है और उसे तोड़ता है। पर अन्त में इसी कहानी में वह वाल्मीकि समाज का
अन्तर्विरोध भी दिखाते है, जिसमें वाल्मीकि जाति का ही एक बालक उस शादी में मुसलमान के
हाथ की बनी रोटी खाने से मना कर देता है। बालक का बाप उसे यह समझाता है कि रोटी
बनाने वाला मुसलमान नहीं है, हिन्दू है। ओमप्रकाश वाल्मीकि चाहते तो उसके मुॅंह से यह
कहलवा सकते थे कि रोटी हिन्दू-मुसलमान की नहीं होती, आटे की होती है। वे इस प्रसंग को
निकाल भी सकते थे, क्योंकि इससे कहानी कमजोर हो गयी है, पर उन्होंने न यह प्रसंग निकाला और न बालक के बाप के
मुॅंह में काल्पनिक शब्द डलवाये, आलोचना बरदाश्त कर ली।
निस्सन्देह ओमप्रकाश
वाल्मीकि ने दलित साहित्य को उस ऊॅंचाई पर पहुॅंचाया है, जहाॅं से वह मुख्यधारा के
साहित्य का भी मार्ग-प्रशस्त करता है।
(शिमला, 13 अपे्रल 2014)
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