बुधवार, 1 जनवरी 2014

नयी राजनीति की सम्भावनाएॅं-
‘आप’ को जनता पार्टी बनने से रोकना होगा।
कॅंवल भारती
भारतीय राजनीति का इतिहास बताता है कि जनता ने हमेशा नयी राजनीति के विकल्प को पसन्द किया है। हम काॅंगे्रस से ही बात करें, तो लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद इन्दिरा गाॅंधी जब प्रधानमन्त्री बनीं, तो उन्होंने 1969 में पूॅंजीवादी अर्थव्यवस्था के ढाॅंचे को तोड़ते हुए 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और 1970 में राजघरानों की सुविधाएॅं खत्म कर ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया। इससे काॅंगे्रस की पूॅंजीवादी ताकतें नाराज हो गयीं और काॅंगे्रस के दो टुकड़े हो गये। सरकार गिरी और मध्यावधि चुनाव हुए। पर दलित और गरीब वर्ग ने इन्दिरा गाॅंधी की काॅंगे्रस का साथ दिया और परिणामतः 1971 में वे पुनः प्रधानमन्त्री बन गयीं। इसी अवधि में उन्होंने बीमा का राष्ट्रीयकरण किया, भूमि सुधारों को लागू कर भूमिहीनों को जमीनें बाॅंटीं और गरीबों के उत्थान के लिये बीस सूत्री कार्यक्रम बनाया। तब राजनीति में इस समाजवादी ढाॅंचा खड़ा करने की उनकी कोशिश को वंचित वर्ग ने बहुत सराहा था और वह उसका वोट बैंक बन गया था।
पर, 1975 में देश में आपातकाल लगाने के बाद इन्दिरा गाॅंधी का एक दूसरा ही चेहरा सामने आया, जो गरीब-विरोधी, लोकतन्त्र-विरोधी, फासीवादी और दमनकारी था। इसके विरुद्ध लोकतन्त्र की बहाली के लिये जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक देश-व्यापी आन्दोलन चला, जिसे उन्होंने ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का नाम दिया। इसी आन्दोलन के गर्भ से ‘जनता पार्टी’ का जन्म हुआ, जिसमें इन्दिरा-काॅंगे्रस से अलग हुए धड़ों के साथ-साथ जनसंघ भी शामिल थी। चूॅंकि यह पार्टी गैर-काॅंगे्रसवाद के विकल्प के तौर पर अस्तित्व में आयी थी, इसलिये जनता ने इस नये विकल्प को अपना भरपूर समर्थन दिया। जनता पार्टी की सरकार बनी और मोरारजी देसाई प्रधानमन्त्री बने। पर जनसंघ की दोहरी सदस्यता को लेकर विवाद हुआ और दो साल बाद ही जनता सरकार का पतन हो गया। जनसंघ ने अलग होकर ‘भारतीय जनता पार्टी’ बना ली और जनता पार्टी भी खण्ड-खण्ड हो गयी। इसके बाद ‘समाजवादी पार्टी’ और ‘बहुजन समाज पार्टी’ के विकल्पों ने जन्म लिया। लेकिन इन सारे विकल्पों के नेता धर्म और जाति की राजनीति करने वाले ही नहीं थे, बल्कि तानाशाह और भ्रष्ट भी थे। इसलिये इनमें से एक भी जनता की आकांक्षा पर खरा नहीं उतर सका। साधारण परिवारों से आये ये नेता करोड़ों नहीं, अरबों रुपयों की सम्पत्ति के मालिक बन गये। और जनता बेरोजगारी, गरीबी और मॅंहगाई से त्रस्त होकर त्राहि-त्राहि कर उठी। ऊपर से निरंकुश शासकों ने जनता के प्रतिरोध को उभरने ही नहीं दिया। जो भी उसके खिलाफ बोला, उसे कुचल दिया गया।
एक लम्बे समय के बाद एक बार फिर जेपी की तर्ज पर अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़े देश-व्यापी जन-आन्दोलन को खड़ा किया, जिसके गर्भ से अरविन्द केजरीवाल निकले और ‘आम आदमी पार्टी’ का जन्म हुआ। राजनीति को उन्होंने एक नयी ‘चाल’ दी। हालाॅंकि उन्होंने अपनी चिन्ता के केन्द्र में मध्यवर्गीय समाज को रखा। मध्यवर्गीय समाज की समस्या रोजी-रोटी की नहीं है, बल्कि बिजली-पानी की है। उन्होंने उसे भरोसा दिलाया कि वे सत्ता में आने पर बिजली का बिल आधा कर देंगे और हर महीने 700 लीटर पानी मुफ्त देंगे। इन्हीं दो मुद्दों पर वे सत्ता में आ गये और उन्होंने यह साबित करके भी दिखा दिया। वे जानते हैं कि समस्याएॅं भ्रष्टाचार से पैदा होती हैं, और जब भ्रष्टाचार नहीं रहेगा, तो जनता की कोई भी समस्या ऐसी नहीं है, जो स्वतः हल न हो जाये। अगर केन्द्र की मनमोहन सरकार ने शरद पवार को हटा दिया होता, तो मॅंहगाई पर कभी का काबू पा लिया होता। पर उसने उन्हंे नहीं हटाया और वह बाकायदा घोषणा करके मॅंहगाई बढ़ाते रहे। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि काॅंगे्रस सरकार की इच्छा-शक्ति ही मॅंहगाई कम करने की नहीं थी? अब भी अगर काॅंगे्रस यह नहीं सोच रही है कि इसी मॅंहगाई ने उसका दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सफाया किया है, तो इसका मतलब यही है कि वह अब भी जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को नहीं समझ रही है।
केजरीवाल की चिन्ता में अभी निम्नवर्ग नहीं है, जिसकी समस्या बिजली-पानी से ज्यादा रोजगार की है। इसलिये अभी उनके एजेण्डे में भी रोजगार नहीं आया है। लेकिन उसे आना ही होगा, क्योंकि निम्नवर्ग भी एक बेहतर विकल्प की तलाश में ‘आम आदमी पार्टी’ से ही आशा लगाये बैठा है। क्या उसकी वह आशा पूरी होगी? यह एक बड़ा सवाल है, लेकिन असम्भव बिल्कुल भी नहीं है। पर चिन्ता इस बात की है कि ‘आम आदमी पार्टी’ कहीं ‘जनता पार्टी’ न बन जाये और इतिहास की पुनरावृत्ति न हो जाये। इसकी सम्भावना इसलिये ज्यादा लगती है, क्योंकि स्थापित पार्टियों के शातिर लोग भी ‘आम आदमी पार्टी’ की पूॅंछ पकड़ कर लोकसभा चुनाव जीतने की इच्छा से उसमें शामिल होने की हर जुगत भिड़ाने में लग गये हैं। कुछ तो उसमें शामिल भी हो गये हैं और काफी संख्या में ऐसे लोग अरविन्द केजरीवाल के सम्पर्क में भी हैं। यह भी विद्रूप ही है कि कई भाजपाई नेता ‘आप’ के टिकट पर दिल्ली में चुनाव लड़े है और बरेली के तौकीर रजा जैसे घोर साम्प्रदायिक नेता को भी ‘आप’ से जोड़ने के लिये केजरीवाल ने उनसे मुलाकात की है। हो सकता है कि ‘आप’ में शामिल होने के लिये ही तौकीर रजा ने सपा से इस्तीफा दिया है। अगर केजरीवाल अपनी पार्टी में काॅंगे्रस, भाजपा, सपा, बसपा आदि पार्टियों से आने वाले लोगों के प्रवेश पर पाबन्दी लगाते हैं, तब तो आशा की जा सकती है कि वे भारत की राजनीति को नयी चाल में ढाल सकेंगे और यदि वे ऐसा नहीं कर सके तो ‘आप’ के भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
(1 जनवरी 2014)  





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