सोमवार, 25 नवंबर 2013

मुस्लिम हित या पक्षपात की राजनीति
(कँवल भारती)
      उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ित मुसलमानों को पांच लाख रूपये प्रति परिवार मुआवजा देने सम्बन्धी जिस अधिसूचना को सुप्रीम कोर्ट ने पक्षपात पूर्ण बताते हुए वापस लेने के निर्देश दिए थे, उस अधिसूचना को सपा सुप्रीमो मुलायमसिंह यादव ने सही ठहराया है. उन्होंने पीड़ित मुसलमानों को मुआवजा देने का बचाव करते हुए कहा है कि उन मुस्लिम परिवारों के साथ अन्याय नहीं किया जा सकता, जिन्होंने अपने जान-माल को खोया है और जो राहत कैम्पों से अपने गाँव वापिस जाना नहीं चाहते हैं. उनका कहना सही है कि जो जानें गयी हैं, वे वापिस नहीं आ सकतीं, पर  मुआवजा देकर उन परिवारों की कुछ मदद जरूर की जा सकती है. बकौल मुलायमसिंह यादव 47 मुस्लिमों और 16 गैर-मुस्लिमों की जानें इस दंगे में गयी हैं. और यह पहली बार हुआ है, जब किसी राज्य-सरकार ने दंगा-प्रभावित परिवारों के लिए इतनी बड़ी धन राशि का पैकेज दिया है.
      ये सभी बातें सही हैं. पर दो सवाल यहाँ गौर-तलब हैं. पहला यह कि मुलायमसिंह यादव को तो पार्टी चलानी है, पर क्या अखिलेश यादव को भी पार्टी चलानी है, सरकार नहीं? पार्टी मुस्लिमवाद पर खड़ी हो सकती है, जैसाकि भाजपा हिन्दूवाद पर खड़ी है. यह लोकतंत्र में जायज भी है, जिसे जुड़ना होगा, वह जुड़ेगा और जिसे नहीं जुड़ना होगा, वह नहीं जुड़ेगा. पर ये पार्टियाँ जब सरकार बनायेंगी, तो किस तरह चलायेंगी, यह अनुमान मुस्लिमों को भी हो जाता है और हिन्दुओं को भी. इसलिए मुस्लिमों का सपा से जुड़ना स्वाभाविक है और हिन्दुओं का भाजपा से. दलितवाद पर खड़ी पार्टी से दलितों का जुड़ना भी स्वाभाविक है. अब वे लोग कहाँ जायें, जिनकी अपनी कोई हितैषी पार्टी नहीं है? अखिलेश सरकार की अधिसूचना को इस सन्दर्भ में क्यों नहीं देखा जाना चाहिए? पीड़ित मुस्लिम परिवारों को मुआवजा जरूर मिलना चाहिए, पर जो गैर-मुस्लिम पीड़ित परिवार हैं, उनके हित क्या इसलिए सरकार के लिए मायने नहीं रखते कि वे सपा के वोटर नहीं हैं? क्या बिगड़ जाता, अगर एकाध करोड़ का मुआवजा गैर-मुस्लिम पीड़ित परिवारों को भी मिल जाता? क्या इससे सपा के मुस्लिम वोटर नाराज हो जाते? आखिर अखिलेश अपनी जेब से तो पैसा दे नहीं रहे हैं. पैसा तो जनता का ही है, फिर पक्षपात क्यों? क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होता कि अखिलेश सरकार की  अधिसूचना में “मुस्लिम” शब्द आता ही नहीं, सिर्फ “पीड़ित परिवार” शब्द ही आता. जिले में मुआवजा बाँटने का काम तो आखिर उनकी ही मशीनरी को करना था, जैसा चाहे बंटवाते, या उसे अपनी ही मशीनरी पर भरोसा नहीं था. हालाँकि बेहतर तो यह होता कि समाजवादी पार्टी 90 करोड़ रूपये का मुआवजा अपनी पार्टी-फंड से देती.
      दूसरा सवाल यह गौर-तलब है कि लोकतंत्र में यह कब तक चलेगा कि पहले दंगा कराओ, फिर हत्यारों को खुली छूट दो, उसके बाद लाशें गिनो और मुआवजा देकर राजनीति करो?
(25 नवम्बर 2013)

   




     

कोई टिप्पणी नहीं: