गुरुवार, 9 जनवरी 2014

सब मदमाते कोई न जाग
(कँवल भारती)
      हमने रोम के शासक नीरो के बारे में सुना था कि रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था. कहानी कुछ इस तरह है कि राजमहल में पार्टी का आयोजन था, जिसमे रौशनी करने के लिए जेलों से कैदियों को निकाल कर उन्हें खंबों पर लटकाकर उनमें आग लगा दी गयी थी. लोग आग की लपटों में जल रहे थे, चीख रहे थे और राजमहल के लोग उसी आग की रौशनी में जश्न मना रहे थे. अखिलेश यादव का ‘सैफई महोत्सव’ भी ऐसा ही जश्न है, जो मुजफ्फरनगर दंगों की लपटों की रौशनी में मनाया गया है. जी-भर कर नाच-गाना हुआ, सरकारी खजाने से करोड़ों रूपये इस नाच-गाने पर उड़ाये गये, और करोड़ों रूपये बख्शीस में दिए गये. जैसे कोई बदचलन औलाद अपने बाप की दौलत को बरबाद करती है, वैसे ही नाच-गाने के शौक़ीन अखिलेश यादव और उनके मंत्री जनता के पैसे को अपने बाप का माल समझकर उड़ा रहे हैं. अफ़सोस कि जनता विरोध नहीं करती, और इसका कारण यही है कि तमाम सामाजिक आन्दोलन भी जनता को जागरूक नहीं कर पा रहे हैं. जनता सिर्फ वोट के समय जागती है और अगले चुनाव तक फिर सो जाती है. इस दौरान भी वह या तो जाति के नाम पर जागती है या धर्म के नाम पर; और यहाँ भी वह ऐसा जागती है कि एक-दूसरे के खून की प्यासी हो जाती है और इस जागरण में शासकों पर जरा भी आंच नहीं आती. लेकिन यह जाग भी उसकी अपनी नहीं है, शासक वर्ग की है. इसलिए शासक वर्ग वह अच्छी तरह जानता है कि जनता को कब जगाना है और कब सुलाना है. और उसे जगाने और सुलाने के लिए उसके पास जाति और धर्म ही सबसे बड़े अस्त्र हैं.
      पूरे उत्तर प्रदेश में कहीं भी विकास नहीं हो रहा है. मैं इस एक साल में बीसियो जिलों में गया हूँ, लखनऊ, इलाहबाद, गोरखपुर और बनारस जैसे नगरों में मैं पैदल और रिक्शों से घूमा हूँ, कहीं भी विकास दिखायी नहीं दिया. सड़कें इतनी खराब कि पैदल चलने में भी दिक्कत हो रही थी. जब बड़े शहरों का यह हाल है, तो छोटे शहरों का हाल कितना खस्ता होगा? मेरे अपने शहर में सड़कों में इतने गड्ढे हैं कि रिक्शे तक पलट जाते हैं. पर अखिलेश और उनके मंत्रियों को तो उन सड़कों पर चलना नहीं है, फिर क्यों बनवाएं वो सड़कें? उन्हें तो हवा में चलना है. आम आदमी पार्टी ने भले ही राजनीति को आम आदमी की सेवा का नाम दिया हो, पर अपने आप को आम आदमी से ऊपर मानने वाले उत्तर प्रदेश के मदमाते मंत्रियों पर इसका कुछ भी असर पड़ने वाला नहीं है. वे मोटी चमड़ी वाले इतने विशिष्ट श्रेणी के लोग हैं कि सरकारी खजाने से उनकी सुख-सुविधाओं और निजी यात्राओं पर एक वर्ष में लगभग एक हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा का खर्च होता है. क्या इसे विशिष्ट लोगों से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे राजनीति को बदलेंगे?
      क्या सैफई महोत्सव मनाने वाले अखिलेश यादव और जनता के पैसे से पांच देशों में सैर-सपाटा करने के लिए विदेश जाने वाले मंत्रियों और विधायकों के चेहरों पर मुजफ्फरनगर दंगों में मारे गये बेकसूरों, टेंटों में ठंड से मरने वाले मासूम बच्चों और विस्थापितों का कोई रंजोगम दिखायी देता है? क्या दर्द की हल्की सी भी कोई शिकन है आज़म खां के माथे पर? अगर होती तो पूरे साल मातम मनाते और सारे महोत्सव और सैर-सपाटे स्थगित कर देते. पर ये तो नीरो हैं, मौतों पर जश्न मनाने का हक बनता ही है. विदेश यात्रा का औचित्य साबित करने वाला तर्क तो देखिये, कहा जा रहा है कि इस यात्रा का उद्देश्य, (जिस पर कम से कम 50 लाख रुपया रोजाना खर्च आयेगा,) दूसरे देशों में यह जाकर देखना है कि वहां लोकतान्त्रिक संस्थाएं किस तरह काम करती हैं? कुछ तो शर्म करो अखिलेश यादव ! जो आपके मंत्री अपने जिलों में लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं, जो अपनी तानाशाही के आगे किसी नियम-कानून को नहीं मानते, जिनके लिए उनका हुक्म ही लोकतंत्र है, वे दूसरे देशों में जाकर लोकतंत्र सीखेंगे? किसे बेवकूफ बना रहे हैं आप? इस विदेश-यात्रा में वे क्या करने गये हैं यह अखिलेश जी आप अच्छी तरह जानते हैं. पर इस सैर-सपाटे को स्टडीज-टूर का नाम तो मत दीजिये.
      कबीर ने ऐसे ही लोगों के लिए कहा है—‘सब मदमाते कोई न जाग. ताथे संग ही चोर घर मुंसन लाग,’
(9 जनवरी 2013)



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