जाति, सम्प्रदाय और लोकतन्त्र
सामाजिक न्याय की
दृष्टि से लोकतन्त्र पर एक विचार
(अर्थात लोकतन्त्र
का दलित पाठ)
(कॅंवल भारती)
लोकतन्त्र को सामन्तवाद से आगे की
व्यवस्था माना जाता है, यानी उसके विरोध
की स्वराज-व्यवस्था। परन्तु वह वह कभी भी स्वराज-व्यवस्था नहीं बन सकी। हालाँकि लोकतन्त्र
स्वयं एक विचारधारा है, पर विचारधारा के
आधार पर भी लोकतन्त्र की अवधारणायें अलग-अलग हैं। इसलिये जहाँ उसकी एक वर्गीय अवधारणा बनी, वहाँ जाति तथा सम्प्रदाय की राजनीति में भी
उसका अर्थ कम महत्वपूर्ण नहीं है। जिस तरह अलग-अलग विचारधाराओं के अलग-अलग गाँधी-आंबेडकर
हैं, उसी तरह उनके अलग-अलग
लोकतन्त्र भी हैं। विशुद्ध वर्ग की राजनीति करने वाली वामपंथी सरकार ने भी एक
सम्प्रदाय विशेष के हित में तसलीमा नसरीन को कोलकाता में नहीं रहने दिया था। यह
वर्गीय राजनीति में भी लोकतन्त्र की साम्प्रदायिक अवधारणा को तसलीम करना था। अभी
मैं फेसबुक पर एक पोस्ट में पढ़ रहा था कि फासीवाद जातिवाद और साम्प्रदायिकतावाद
का चोला पहनकर आता है। यह उस कम्युनिस्ट विचारधारा की पोस्ट थी, जिसने खुद साम्प्रदायिकतावाद के आगे घुटने टेके
हैं और जिसकी उससे निपटने की कोई कार्ययोजना अब तक अमल में नहीं आयी है। किन्तु
क्या जातिवाद और सम्प्रदायवाद वास्तव में फासीवाद की व्यवस्थायें हैं? मुझे लगता है कि जाति और धर्म तभी फासीवाद का
चोला पहनते हैं, जब वे नस्लवाद की भूमिका में आते हैं और इस नस्लवाद में भी
श्रेष्ठतावाद की चेतना काम करती है।
मैं पूरी दुनिया की बात तो नहीं करता, पर अगर भारत के सन्दर्भ में ही बात करूॅं,
तो इतिहास में अनार्यों, बौद्धों, जैनों, शूद्रों, दलितों और आजाद भारत में ईसाईयों और मुसलमानों पर जो
अत्याचार हुए हैं, उसका मूल कारण
श्रेष्ठतावाद से ग्रस्त यही नस्लवाद है, जिसे दलित चिन्तन ब्राह्मणवाद कहता है। आजाद भारत में इस ब्राह्मणवाद को समूल
नष्ट किया जा सकता था, अगर
साम्राज्यवाद-पूंजीवाद-विरोधी समाजवादी शक्तियां कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो जातीं। लेकिन वे
नहीं हुईं, यहाँ तक कि एम0 एन0 राय और स्वामी
सहजानन्द जैसे प्रखर सोशलिस्ट तक कांग्रेस से अलग होने को तैयार नहीं थे। इसका एक
ही कारण आंबेडकर की दृष्टि में था कि वे समाजवादी तो थे, पर ब्राह्मणवादी ग्रन्थि से मुक्त नहीं थे। यही कारण था कि
जब डा0 आंबेडकर ने कांग्रेस से
पृथक वर्गीय आधार पर ‘इंडिपेंडेंट लेबर
पार्टी’ का गठन किया, तो उसका सबसे ज्यादा विरोध इन्हीं सोशलिस्टों
ने किया था, जिनमें एम0 एन0 राय प्रमुख थे। इस पर आंबेडकर ने टिप्पणी की थी कि एम0 एन0 राय के इस
स्टैण्ड से कब्र में लेनिन की आत्मा भी बेचैन हो गयी होगी। इन्हीं तथाकथित
समाजवादियों की वजह से साम्राज्यवाद और पूॅंजीवाद के विरुद्ध कोई संयुक्त मोर्चा
नहीं बन सका और भारत में अंगे्रजों ने ब्राह्मणों, पूंजीपतियों और सामन्तों के हाथों में ही शासन-सत्ता सौंप
दी। शायद धनिकों के वर्ग से आये वे समाजवादी भी यही चाहते थे। इसलिये कहना न होगा
कि जिस स्वतन्त्र भारत का प्रथम नागरिक 108 ब्राह्मणों के पैर धोकर राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठा हो, उस देश का लोकतन्त्र असाम्प्रदायिक और
जातिविहीन चरित्र का हो भी नहीं सकता था।
भारत में जाति और
धर्म की साम्प्रदायिक राजनीति की शुरुआत यहीं से होती है। आंबेडकर का दलित आन्दोलन
जाति का आन्दोलन नहीं था, बल्कि मानवीय
गौरव और अधिकारों से वंचित अस्पृश्य जातियों की आजादी का आन्दोलन था। इसे समझने की
कोशिश न समाजवादियों ने की और न ब्राह्मणवादियों ने। इसलिये यह आन्दोलन शीघ्र ही
जातिवादी आन्दोलन में बदल गया और नवें तथा दशवें दशकों में और भी उग्र हो गया,
जब पिछड़े वर्गों ने मण्डल कमीशन को लागू करने
के लिये आन्दोलन चलाया। इसे व्यापक बनाने का काम किया कांशीराम की बहुजन राजनीति
और उसकी प्रतिक्रान्ति में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रामरथ यात्रा ने। हालांकि
यह आन्दोलन भी जन्म नहीं ले पाता, अगर कांग्रेस सरकार
ने काका कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया होता। लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री
गोबिन्दबल्लभ पन्त ने इन सिफारिशों को यह कह कर खारिज कर दिया कि इनके आधार पर तो
पूरा देश ही पिछड़ा हुआ है। वे यह नहीं समझ सके कि अगर वंचित वर्गों को आजादी में
भागीदारी नहीं मिलेगी, तो उनके लिये
गणतन्त्र का कोई भी अर्थ नहीं रह जायेगा। इस प्रकार कांग्रेस की ब्राह्मणवादी और
पॅूंजीवादी ताकतों ने भारत में जातिवादी राजनीति का मार्ग प्रशस्त किया। परिणामत: विश्वनाथप्रताप
सिंह ने देर से ही सही मण्डल आयोग को लागू किया, जिसके रथ पर सवार होकर सामाजिक न्याय और हिन्दूगर्व की
राजनीति ने एक साथ देश की राजीनति में प्रवेश किया। इसने पूरे देश को गरमा दिया।
फलतः, जहाँ सामाजिक न्याय की राजनीति के तमाम नायक और
पुरौधा पैदा हो गये, वहीं रातों-रात
हिन्दुत्व की भी तमाम रक्षा-वाहिनियां पैदा हो गयीं। उत्तर प्रदेश में
मण्डल-समर्थक मुलायमसिंह यादव और हिन्दुत्व-समर्थक कल्याण सिंह इसी राजनीतिक
बवण्डर की देन हैं। इसमें सबसे बड़ा विद्रूप यह है कि कांग्रेस ने भी इस
साम्प्रदायिक राजनीति में खूब हिन्दुत्व का कार्ड खेला। 1992 में कल्याण सिंह के नेतृत्व में अयोध्या में बाबरी मस्जिद
तोड़ी गयी, और केन्द्र की कांग्रेस सरकार
ने उसमें पूरी मदद की। उसकी प्रतिक्रिया में देश भर में दंगे हुए और उसने उत्तर
प्रदेश में भारतीय राजनीति का इतिहास बदल दिया। परिणामतः दशकों से कांग्रेस के
मजबूत पाये ऐसे भरभरा कर टूटे कि वह आज तक अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पा रही है। भारतीय
राजनीति के इतिहास का यह वह महत्वपूर्ण दौर है, जिसमें राजनीति के कई मिथक टूटे हैं और कई नये मिथक बने
हैं। जो सबसे बड़ा मिथक टूटा, वह यह था कि दलित
जातियों के लोग सरकारी ब्राह्मण कहे जाते थे और उन्हें कांग्रेस का जरखरीद गुलाम
समझा जाता था। पर इसी दौर में कांशीराम के आन्दोलन ने इस मिथक को तोड़ दिया। वे न
केवल कांग्रेस से अलग हुए, बल्कि उन्हें यह
भी अहसास हो गया कि कांग्रेस उनकी ही जमीन पर खड़ी हुई थी। यह जादुई काम कांशीराम
के ‘वोट हमारा राज तुम्हारा
नहीं चलेगा’ के नारे ने किया;
और यह नारा लोकतन्त्र में बहुत महत्व रखता है।
फलतः एक इंडिपेंडेन्ट बहुजन राजनीति अस्तित्व में आयी, जिसके गर्भ से कई जातिवादी राजनीतिक धारायें निकलीं। अब यहाँ
सवाल यह पैदा होता है कि लोकतन्त्र में इस
जातिवादी और साम्प्रदायिक राजनीति की भूमिका रचनात्मक है या विनाशकारी? मतलब, तीन सवाल इस सन्दर्भ में उठाये जाते हैं-
1- इस राजनीति ने
दलित जातियों का कितना भला किया?
2- इसने जातिवाद को
कितना उभारा? और,
3- इस राजनीति ने
लोकतन्त्र को मजबूत किया या कमजोर?
पहले सवाल के
सन्दर्भ में मुझे लगता है कि अगर नवें दशक के बाद दलित या बहुजन राजनीति का उभार न
होता, तो दलित कभी भी कांग्रेस को
चुनौती देने की स्थिति में नहीं होते। इस चुनौती से ही यह मिथक टूटा कि कांग्रेस हमेशा
सत्ता में बनी रहने वाली अजरामर पार्टी है। यहाँ सवाल दलितों के आर्थिक लाभ का
नहीं है, वरन् उस राजनीतिक
स्वतन्त्रता का है, जिसे इस आन्दोलन
के जरिये उन्होंने हासिल किया है। उनके लिये यह प्राप्ति एक बड़ी क्रान्ति है। इसे
अगर कोई जातिवाद कहता है, तो वह हजारों साल
से सत्ता में मौजूद ब्राह्मणवाद को नकारने का अपराध करता है, जिससे लड़े बिना जातिवाद को खत्म किया ही नहीं
जा सकता। दलित-पिछड़ी जातियों का सत्ता के केन्द्र में आना, उनमें नेतृत्व का उभरना, मण्डल कमीशन का लागू होना, जिसके कारण पिछड़े वर्गों को शिक्षा, चिकित्सा और अन्य संस्थानों में कानूनन प्रवेश मिलना,
बड़ी संख्या में दलित वर्गों का प्रशासनिक और
शिक्षा के केन्द्रों में नौकरियों में आना और राज्यों में अपने नेतृत्व में
सरकारें बनाना दलित-पिछड़ी जातियों के लिये बहुत बड़ा राजनीतिक लाभ है। यह कोई कम
बड़ा परिवर्तन नहीं है कि अनेक राज्यों में ब्राह्मण सत्ता से बेदखल हो गया है और
दलित-पिछड़ी जातियों के हाथों में सत्ता का सूत्र आ गया है।
क्या इसने जातिवाद को उभारा? मेरी दृष्टि में
यह सवाल कम और आरोप ज्यादा है। जातिवाद कब नहीं था, जो जाति की राजनीति ने उसे उभारा? जब जाति की राजनीति नहीं थी, तब भी जातिवाद था और ज्यादा भयानक था। दलितों पर अत्याचार
के लोमहर्षक काण्ड सबसे ज्यादा इसी दौर में हुए। तब दलित अगर थोड़ा भी सिर उठाकर
चलने और सवर्णों के खिलाफ जाने का साहस करते थे, तो तुरन्त उन्हें उनकी औकात दिखा दी जाती थी। अगर यह
जातिवाद नहीं था, तो क्या था?
आज भी जिन राज्यों में दलित राजनीति का उभार
नहीं है, वहाँ उन पर सबसे ज्यादा जुल्म होते हैं। लेकिन
शायद ही वहाँ की राजनीति को जातिवादी कहा जाता हो। लेकिन उत्तर प्रदेश में दलित-पिछड़ों
की राजनीति को जातिवादी कहा जाता है। ऐसा क्यों? मुझे इसका एक ही कारण नजर आता है और वह यह है कि यहाँ दलित-पिछड़ी
जातियां अपने सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर ज्यादा जागरूक और मुखर हो गयी हैं।
वर्गीय राजनीति के पैरोकार उत्तर प्रदेश में दलित-पिछड़ों की इसी जागरूकता को
जातिवाद का उभार समझने की भूल कर रहे हैं । यह भूल इसलिये है, क्योंकि वे यहाँ मार्क्सवाद की सैद्धान्तिकी से
समाजवाद का अध्ययन करने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि भारत में उपेक्षित जातियों के उत्थान के मुद्दे ही
लोकतन्त्र में कल्याण के अनिवार्य मुद्दे हैं।
क्या यह कहा जा सकता है कि दलित राजनीति ने लोकतन्त्र को कमजोर किया है?
मुझे लगता है कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं हुआ है।
सच तो यह हैं कि सामाजिक न्याय की राजनीति ने लोकतन्त्र को और भी मजबूत किया है,
क्योंकि जिस लोकतन्त्र में देश की विशाल आबादी
की भागीदारी उपेक्षित रहती है, वहाँ लोकतन्त्र
हमेशा कमजोर रहता है और देश की सीमायें भी। दलित राजनीति के विरोधियों को इतिहास
से यह समझना चाहिए कि वह देश हमेशा अराजकता से ग्रस्त रहता है, जिसमें सत्ता पर अल्पसंख्यक वर्ग का वर्चस्व
होता है और बहुसंख्यक वर्ग हाशिये पर रहता है।
24 जनवरी 2014
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