मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

आरक्षण, जातिवाद और दलित-मुक्ति का प्रश्न
(कॅंवल भारती)
दलित वर्ग के लिये आरक्षण भारतीय समाज में सबसे ज्यादा विवाद का विषय है, शायद ही कोई दूसरा विषय हो, जिस पर इतनी ज्यादा बहस होती हो और  सिर्फ बहस ही नहीं, बल्कि यह  दलित और सवर्ण के बीच नफरत और तनाव का कारण है। यह स्थिति दो कारणों से पैदा हुई है। एक इस वजह से कि दलित-मुक्ति के सवाल को कमजोर जातियों की मुक्ति के रूप में एक सामाजिक क्रान्ति के अर्थ में समझने की कोशिश नहीं की गयी, जो भारतीय राष्ट्र और लोकतन्त्र की की महान सेवा है। और, दूसरे इस वजह से कि वोट की राजनीति ने इसे जातीय रंग दे कर दलित बनाम सवर्ण का संवेदनशील मुद्दा बना दिया। यही राजनीति आरक्षण के सवाल पर अलोकतान्त्रिक बहस का जन्मदाता है।
इसलिये दलित-आरक्षण के सवाल को लोकतान्त्रिक नजरिये से समझने की जरूरत है। क्या  हजारों वर्षों से समान अधिकारों और हर तरह की आजादी से वंचित करके रखी गयीं दलित जातियों की मुक्ति सरकार की सहायता के बिना सम्भव हो सकती थी? राज्य के संरक्षण की जरूरत कमजोर लोगों को ही होती है। लेकिन इसी तथ्य के आधार पर आज आरक्षण-विरोधी लोग गरीबी का सवाल उठाते हैं और जाति के आधार पर दलितों के आरक्षण का विरोध करते हैं। निस्सन्देह वे अपने तर्क में सही हैं। पर यहाॅं इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि दलित जातियाॅं गरीबी की वजह से समान अधिकारों और सुविधाओं से वंचित नहीं थीं, बहुत सी दलित जातियाॅं उत्पादन से जुड़ी थीं और उनके पास पैसा था। वे पैसा देकर पढ़ सकते थे, पर उनके लिये शिक्षा के दरवाजे बन्द थे। उनकी इतनी हैसियत थी कि वे सोने के जेवर खरीद सकते थे और पक्का घर बना सकते थे। पर उन्हें साफ कपड़े और जेवर पहनने की मनाही थी, पक्के मकान बनाने की मुनादी थी, मन्दिरों में घुसने और राजमार्गों पर चलने तक पर पाबन्दी थी। यहाॅं तक कि उन्हें गन्दे, घृणित और कठोर काम करने के सिवा स्वच्छ और सम्मानजनक व्यवसाय करने की भी आजादी नहीं थी। वे भारतीय समाज-व्यवस्था में अछूत थे, जिन्हें छूना तो दूर, सवर्ण हिन्दू उनकी परछाॅंई से भी बच कर चलते थे। ये भारत माॅं के वे सपूत थे, जो दिन भर माॅं की कठोर सेवा करते थे, पर माॅं की ममता का आॅंचल उनके सिर पर नहीं था। इतिहास में पहली बार उनके मानवीय अधिकारों की आवाज डा0 आंबेडकर ने उठायी थी। यह भारत के ज्ञात इतिहास में दलित-मुक्ति की पहली लड़ाई थी। यह देश की आजादी से भी बड़ी लड़ाई थी, क्योंकि यह देश के उन करोड़ों लोगों की आजादी की लड़ाई थी, जो हजारों साल से मनुष्य होने की गरिमा से वंचित गुलाम बन कर जी रहे थे। इसी लड़ाई की बदौलत दलितों के लिये शिक्षा के दरवाजे खुले और उन्हें नौकरियों और विधायिका में आरक्षण मिला।
यह कहना बिल्कुल भी सही नहीं होगा कि आरक्षण से दलितों को फायदा नहीं पहुॅंचा है। जो दलित जातियाॅं निम्न से भी निम्नतम वर्ग में थीं, उनमें आज यदि एक मध्यवर्ग विकसित हुआ है, तो उसका कारण आरक्षण ही है। आज वे शासन से लेकर प्रशासन तक हर क्षेत्र में सक्रिय हैं। साहित्य, कला, विमर्श और रंगकर्म के क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी विशिष्ट पहिचान बनायी है। यह एक बड़ा सामाजिक परिवर्तन है, जो आरक्षण की वजह से ही इस देश में हुआ है। यहाॅं यह बताना बहुत जरूरी है कि शिक्षा के सिर्फ दरवाजे खुले थे, सब कुछ मुफ्त नहीं था। वजीफा मिलता था, जो बहुत मामूली  था, फीस भी देनी पड़ती थी और कापी-किताबें भी खुद ही खरीदना पड़ती थीं। लेकिन सच यह है कि वजीफे ने हमारी पढ़ाई-लिखाई में कोई भूमिका नहीं निभायी थी। हमारे लिये महत्वपूर्ण सिर्फ यह था कि हम अब पढ़ सकते थे। लेकिन उस वक्त फीस के दस-बीस पैसे भी देने की औकात हमारे लोगों की नहीं होती थी। इसलिये काफी सारे बच्चे तीसरी-चैथी और बहुत हुआ तो आठवीं क्लास के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते थे। सरकार ने यदि उस समय मुफ्त शिक्षा और मुफ्त किताबों की व्यवस्था की होती, तो वह दलित-शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा परिवर्तन होता। लेकिन सरकार दलितों की शिक्षा के प्रति गम्भीर नहीं थी। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस स्कूल में मेरी प्राइमरी पढ़ाई हुई, वह एक पुरानी बदसूरत बिल्डिंग में टाट-पट्टियों वाला स्कूल था, जिसे नगरपालिका चलाती थी। वह बिल्डिंग और भी जर्जर होती गयी, तब ऊपर के कमरे बन्द कर दिये गये, आॅंगन में कक्षाएॅं लगने लगीं, यहाॅं तक कि एक कमरे में दो-दो क्लासों के बच्चे बैठाये जाने लगे थे। अब तो वहाॅं एक मार्कीट बनी हुई है, स्कूल न जाने कहाॅं चला गया? उत्तरप्रदेश में सरकारी प्राइमरी स्कूलों की स्थिति आज भी लगभग वैसी ही है। लेकिन यह तो सच है ही कि अगर ये स्कूल भी नहीं खुलते, तो गरीब दलित कोई तरक्की नहीं कर सकते थे।
मेरे लिये यह मानना मुश्किल है कि आरक्षण सिर्फ एक सियासी मामला है। पर हाॅं यह सच है कि यह अब वोट की सियासत से जुड़ गया है और कोई भी पार्टी इसके विरोध में नहीं जा सकती। लेकिन सियासत इस बात को लेकर होती है कि उन लोगों को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए, जो लगातार लाभ उठा रहे हैं और अब जो इतने सक्षम हैं कि उनकी गिनती एक खास वर्ग में होने लगी है। वे सम्पन्न हैं और अपने बच्चों को बढि़या से बढि़या और ऊॅंची से ऊॅंची शिक्षा दिलाने की हैसियत रखते हैं। इसलिये यह माॅंग गलत भी नहीं है कि दूसरे जरूरतमन्द गरीब दलितों के हित में  सम्पन्न वर्ग को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा ही जाना चाहिए। सियासी मामला इस बात को लेकर भी है कि आरक्षण को कब तक जारी रखा जाय, जबकि निजीकरण की वजह से सरकारी क्षेत्र में नौकरियाॅं लगातार कम होती जा रही हैं। इसीलिये कुछ दलित संगठन निजी क्षेत्र में भी आरक्षण के लिये आन्दोलन कर रहे हैं। निजी क्षेत्र के उपक्रम इसके विरोध में इसलिये हैं, क्योंकि वे दलितों को अयोग्य मानने की अपनी सामन्ती मानसिकता से ग्रस्त हैं।
अब सबसे मुख्य सवाल यह है कि क्या दलित समाज आरक्षण के सहारे आगे बढ़ेगा? मौजूदा दलित राजनीति और संगठन इसी विचार को लेकर चल रहे हैं। लेकिन यह आरक्षण अब दलित जातियों के उन करोड़ों लोगों के लिये, जो बेरोजगार, गरीब और शिक्षा से वंचित हैं, कोई मायने नहीं रखता है, क्योंकि आरक्षण का फायदा लेने के लिये पढ़ाई-लिखाई जरूरी है और पढ़ाई-लिखाई के सारे संसाधन मॅंहगाई और निजीकरण की वजह से गरीब दलितों की पहुॅंच से दूर होते जा रहे हैं। मिड डे मील और मनरेगा के बल पर वे अपने बच्चों का भविष्य नहीं बना सकते। इसलिये आरक्षण की राजनीति केवल धनी दलित वर्ग की राजनीति के सिवा कुछ नहीं है।
बेहतर तो यह होगा कि भारत से जातिवाद खत्म हो और बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों को शिक्षा, विकास और नौकरियों के समान अवसर मिलें। मगर यह खत्म इसलिये नहीं हो रहा है, क्योंकि जहाॅं इसे धर्म और जाति की राजनीति  पाल-पोस रही ह,ै वहाॅं हिन्दू धर्माचार्य भी ब्राह्मणवाद और ब्राह्मण शास्त्रों में जनता के अन्धविश्वास को निरन्तर मजबूत कर रहे है। इसलिये हमारे लोकतन्त्र में यह एक बड़ी समस्या है कि ब्राह्मणवाद का खात्मा कैसे हो? जब तक ब्राह्मणवाद मानसिकता में जिन्दा रहेगा, जब तक दलितों के प्रति हिन्दू समाज की नफरत मिटने वाली नहीं है और आरक्षण एक सियासी मामला बना रहेगा।
21 अक्टूबर 2013

   



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