सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

कानून को इतना अन्धा नहीं होना चाहिए
कॅंवल भारती
31 दिसम्बर 1930 को गोलमेज सम्मेलन, लन्दन में दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व पर बोलते हुए डा0 आंबेडकर ने कहा था कि दलित वर्गों को यह भय है कि भारत का भावी संविधान इस देश की सत्ता को जिन बहुसंख्यकों के हाथों में सौंपेगा, वे और कोई नहीं, रूढि़वादी हिन्दू ही होंगे। अतः दलित वर्ग को आशंका है कि रूढि़वादी हिन्दू अपनी रूढि़यों और पूर्वाग्रहों को नहीं छोड़ेंगे। और जब तक वे अपनी रूढि़यों, कट्टरपन और पूर्वाग्रहों को नहीं छोड़ते, दलितों के लिये न्याय, समानता और विवेक पर आधारित समाज एक सपना ही रहेगा। इसी सम्मेलन में आंबेडकर ने यहाॅं तक कहा था कि भारतीयों की मानसिकता साम्प्रदायिक है, हालांकि हम आशा कर सकते हैं कि एक समय आयेगा, जब वे साम्प्रदायिक दृष्टि का परित्याग कर देंगे; पर यह आशा ही है, सत्य नहीं है। इसलिये उन्होंने जोर देकर कहा कि कुछ समय के लिये भारतीय सेवाओं में अंग्रेजों को ही रखा जाय और भारतीयों को न लिया जाय, क्योंकि भारतीयों को लेने से दलितों पर अत्याचार बढ़ जायेगा।
डा0 आंबेडकर के ये शब्द आजादी के बाद दलितों पर हुए दमन और अत्याचार के हर काण्ड के सन्दर्भ में प्रासंगिक हो जाते हैं। आंबेडकर अपनी शंका में गलत नहीं थे। जिन रूढि़वादी हिन्दुओं के हाथों में स्वतन्त्र भारत की सत्ता आयी, उसका प्रथम राष्ट्रपति 108 ब्राह्मणों के पैर धोकर अपनी कुर्सी पर बैठा था। केन्द्र में पंडित नेहरू प्रधानमन्त्री थे, तो सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री भी ब्राह्मण बनाये गये थे। सिर्फ यही नहीं, कार्यपालिका और न्यायपालिका सहित पूरे प्रशासन-तन्त्र पर ब्राह्मणों के वर्चस्व ने भारत में एक ऐसे साम्प्रदायिक और रूढि़वादी शासन की आधारशिला रख दी थी, जिससे यह आशा करना ही व्यर्थ था कि वह दलित वर्गों के प्रति सम्वेदनशील और न्यायप्रिय होगा। परिणामतः,  स्वतन्त्र भारत में दलितों पर जुल्मों की जो बाढ़ शुरु हुई, वह अब तक थम नहीं रही है। जिस देश का संविधान सबके लिये समान न्याय पर आधारित हो, उस देश में यदि दलितों पर जुल्म और हिन्सा के बेलछी, लक्ष्मणपुर-बाथे, देहुली, परसबीघा, कफल्टा, साढूपुर, कुम्हेर, पूरनपुर, गुलबर्गा, पनवारी, खैरलान्जी और मिर्चपुर जैसे नृशंस काण्ड-पर-काण्ड होतेे हैं, तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि उसके मूल में वही रूढि़वादी हिन्दुत्व (और सामन्तवाद) है, जिसकी आशंका डा0 आंबेडकर ने की थी।
 1989 में सरकार ने इन अत्याचारों को रोकने के लिये अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम बनाया। किन्तु जब उसका कोई असर नहीं पड़ा, तो 1995 में उसमें संशोधन कर उसे और भी सशक्त बनाया गया। पर दलितों पर अत्याचार इसके बाद भी बन्द नहीं हुए। और इसलिये बन्द नहीं हुए, क्योंकि रूढि़वादी हिन्दू देश के कानून को अपने ठेंगे पर रखते हैं और मनु के कानून को अपने दिल में। अब सवाल यह है कि इतने सशक्त कानून के बाद भी दलितों को न्याय क्यों नहीं मिल रहा है? रूढि़वादी हिन्दुओं के हौसले क्यों बुलन्द हैं? कारण इसका भी यही है कि न्यायपालिका में न्याय करने वाले काबिज तत्व उसी रूढि़वादी समाज से आते हैं, जिनके हाथों में देश की शासन-सत्ता आयी। अतः, कहना न होगा कि सत्ता, पुलिस और न्यायपालिका के गठजोड़ ने दलितों के लिये न्याय को भी दुर्लभ और दमनकारी बना दिया है। रूढि़वादी हिन्दू समुदाय आज भी देश को अपनी बपौती समझते हैं और दलित वर्गों को अपना गुलाम। वे उन्हें न सामाजिक सम्मान देना चाहते हैं और न उनका आर्थिक विकास चाहते हैं। यही कारण है कि जब सामाजिक न्याय की राजनीति ने जाति को आधार बनाया, तो रूढि़वादी हिन्दुओं ने उसे अपने वर्चस्व के लिये चुनौती के रूप में लिया और परिवर्तन की हर धारा को अवरुद्ध करने के लिये वे अमानवीयता की किसी भी हद तक जाने के लिये तैयार हो गये। इसलिये यह सवाल उठना जरूरी है कि क्या 1977 में लक्ष्मणपुर-बाथे में 58 दलितों के हत्यारे, जो सामन्ती रणवीर सेना के लोग थे, बाइज्जत बरी हो सकते थे? कदापि नहीं। हम किसे न्याय कहें-निचली अदालत द्वारा 26 हत्यारों को फाॅंसी की सजा सुनाने के फैसले को या पटना हाईकोर्ट द्वारा उन हत्यारों को बाइज्जत बरी करने के आदेश को? एक अदालत हत्यारों को फाॅंसी की सजा सुना रही है, यह साबित करके कि दलित मजदूरों की हत्याएॅं उनके ही द्वारा की गयीं थीं। किन्तु, दूसरी अदालत, जो उच्च मानी जाती है, पिछले फैसले को उलट देती है, यह साबित करके कि दलितों की हत्याएॅं करने में उनका हाथ नहीं है और वह उन्हें निर्दोष मान कर रिहा कर देती है। यह किस तरह का न्याय है? जो सच निचली अदालत को दिखायी दे रहा था, वह सच उच्च न्यायालय को दिखायी क्यों नहीं दे रहा था? कौन मानेगा कि यह (अ)न्याय सत्ता और न्याय-तन्त्र का वीभत्स चेहरा नहीं है? अगर उच्च न्यायालय के मुताबिक रणवीर सेना के लोगों ने हत्याएॅं नहीं की थीं, तो क्या उन 58 लोगों ने स्वयं ही अपनी नृशंस हत्याएॅं कर ली थीं? अगर उन्होंने ही आत्महत्याएॅं की थीं, तो क्या बच्चों ने भी अपना कत्ल स्वयं कर लिया था? न्याय के नाम पर दलितों के साथ यह कैसी विवेकहीनता है? क्या न्याय के नाम पर यही दमन-चक्र चलेगा? अगर इसका जवाब हाॅं में है, तो भले ही गरीब दलित मजदूर इस हालत में नहीं हैं कि वे प्रतिकार कर सकें, पर याद रहे कि वे नक्सलवाद का आसान शिकार हैं।
1997 में मैंने फूलनदेवी पर लिखे अपने एक लेख (देखिए मेरी पुस्तक ‘समाज, राजनीति और जनतन्त्र’, पृष्ठ 72) में लिखा था- ‘माना कि कानून की देवी देख नहीं सकती, उसकी आॅंखों पर पट्टी बॅंधी होती है। लेकिन यह प्रश्न भी अब उठाया जाना चाहिए कि कानून की देवी (खास तौर से दलित वर्ग के सन्दर्भ में) अन्धी क्यों होती है? अब उसकी आॅखों पर से पट्टी हटाने की जरूरत है, ताकि वह सिर्फ तर्कों, बहसों और साक्षों की आॅखों से ही नहीं, बल्कि अपनी नंगी आॅंखों से भी सत्य को देख सके, यथार्थ का साक्षात कर सके। तर्क और साक्ष्य झूठे और फर्जी हो सकते हैं और ऐसे मामले भी कम नहीं हैं, जब झूठे और फर्जी साक्ष्यों के आधार पर निर्दोष लोगों को अदालतों ने जेल भेजा है। यह अन्याय उनके साथ इसीलिये हुआ कि कानून की देवी अन्धी होती है।’
14 अक्टूबर 2013


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