मंगलवार, 19 जनवरी 2016

रोहित वेमुला का हत्यारा कौन?
(कॅंवल भारती)
                हैदराबाद सेण्ट्रल यूनिवर्सिटी के दलित शोध छात्र और अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन (एएसए) के कार्यकर्ता रोहित चक्रवर्ती वेमुला ने आत्महत्या के अन्तिम विकल्प को क्यों चुना? वे कौन सी परिस्थितियाँ  थीं, जिनके दबाव में उसने यह आत्मघाती कदम उठाया? दूसरे शब्दों में उसका हत्यारा कौन है- एचसीयू? एएसए? या अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी)? या ये तीनों या रोहित स्वयं?
                इस आत्महत्या में न तो यूनिवर्सिटी का; न अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन का और न अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का कोई अहित हुआ है, अगर कोई अहित हुआ है, तो वह गरीब छात्र रोहित का ही हुआ है, जिसने आत्महत्या करके अपने और अपने माँ-बाप, तीनों के सपने तोड़ दिए। वह विज्ञान का लेखक बनना चाहता था, पर उसने मौत को गले लगाया। आखिर क्यों?
                कुछ बेहद जरूरी सवालों पर विचार करना जरूरी है। प्रथम दृष्टया, रोहित वेमुला हिन्दूवादी राजनीति का शिकार हुआ है, जिसे एएसए और एबीवीपी दोनों ने मिलकर खेला है। दलित संगठनों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वे अपने अलगाववादी विचारों के साथ काम करते हैं। सबको साथ लेकर चलने की भावना उनमें नहीं है। इसका कारण उनका घोर जातिवादी होना है, क्योंकि  वे मुद्दों की राजनीति नहीं करते, बल्कि ब्राह्मणवाद-विरोधी पुराना राग अलापने में ही अपनी ऊर्जा ज्यादा खर्च करते हैं। इससे वे दूसरों की नजर में हमेशा अछूत बने रहते हैं। इसके विपरीत, एबीवीपी जैसे हिन्दू संगठन भीतर से ब्राह्मणवादी होते हुए भी देश और राष्ट्रवाद के नाम पर सभी जातियों को साथ लेकर चलने की भावना से काम करते हैं। ऐसे संगठनों को जातिवादी तरीके से टक्कर नहीं दी जा सकती, और जो दलित संगठन इसी तरीके से उनसे टक्कर लेते हैं, वे हद दर्जे की मूर्खता करते हैं। अगर वे केवल मुद्दों को उठाएँ,  तो वे हिन्दू संगठनों को टक्कर दे भी सकते हैं, और संविधान भी उनकी सहायता कर सकता है।
                रोहित सबसे ज्यादा दुखी इस बात से था कि उसे शोध के लिए मिलने वाली 25 हजार रुपए की मासिक छात्रवृत्ति जुलाई 2015 में बन्द हो गई थी, जिसके कारण उसकी पढ़ाई संकट में पड़ गई थी। वह बहुत ही गरीब परिवार से था, और विश्वविद्यालय में रहकर पढ़ने का छात्रवृत्ति ही उसका एकमात्र आधार था। ऐसी स्थिति में, उसे एएसए की राजनीति से दूर रहने की जरूरत थी, पर वह उसमें सक्रिय था।
अगस्त 2015 के प्रथम सप्ताह में, स्थिति और बिगड़ गई, जब दलित संगठन एएसए ने मुम्बई विस्फोट के दोषी याकूब मेनन की फांसी के खिलाफ प्रदर्शन किया, और दिल्ली विश्वविद्यालय में एबीवीपी के मुजफ्फरनगर बाकी हैडाक्यूमेन्टरी के मंचन का विरोध किया। एबीवीपी का सीधा सम्बन्ध भाजपा से है। भाजपा के लिए एएसए का विरोध-प्रदर्शन अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का मामला नहीं, बल्कि देश-द्रोह का मामला है। फलतः, एबीवीपी के छात्र नेता सुशील कुमार ने विश्वविद्यालय प्रशासन में और पुलिस में भी, एएसए के छात्रों के खिलाफ मारपीट करने की शिकायत दर्ज कराई। दूसरी तरफ एबीवीपी ने सिकन्दराबाद के भाजपा सांसद और केन्द्रीय मन्त्री दत्तात्रेय को पत्र लिखा कि दलित छात्र संगठन एएसए विश्वविद्यालय कैम्पस में जातिवादी और राष्ट्रविरोधी गतिविधियां चला रहा है। मन्त्री दत्तात्रेय ने उस पत्र को अपनी टिप्पणी के साथ मानव संसाधन विकास मन्त्री स्मृति ईरानी को अग्रसारित कर दिया, जिस पर उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलपति से रिपोर्ट मांग ली। कुलपति द्वारा जाँच कराई गई। जाँच में एबीवीपी के छात्र की पिटाई के विरुद्ध कोई निर्णायक सुबूत नहीं मिला, इसके बाद भी जाँच अधिकारी ने कुमार के द्वारा पेश किए गए फोटोग्राफ्स और गवाहों के साक्ष्यों को आधार बनाकर एएसए के रोहित समेत पांच छात्रों को कुमार के साथ मारपीट करने का मुख्य दोषी माना। ये पाँचों छात्र निलम्बित कर दिए गए, उनके छात्रावास में रहने और कैम्पस में उनकी गतिविधियों पर भी रोक लगा दी गई।
इस सम्पूर्ण कार्यवाही ने रोहित को मानसिक रूप से बेचैन कर दिया। वह डिप्रेशन में चला गया, जिसकी सम्भावना भी थी। छात्रवृत्ति न मिलने से वह लगभग 40 हजार रुपए का कर्जदार भी हो गया था, जिसे चुकाने का दबाव भी उस पर था। हास्टल से भी वह निष्कासित था। गरीब घर से होने के कारण वह अपने रहने की निजी व्यवस्था कर नहीं सकता था। एएसए भी सिवाए राजनीति के, उसे डिप्रेशन से नहीं निकाल सकता था। ये सारी स्थितियां  उसके लिए भयानक और यन्त्रणादायक थीं। और इस सबका अन्त उसने आत्महत्या करने में बेहतर समझा।
दलित करोड़पतियों की बात करने वाले दलित बुद्धिजीवी इस आत्महत्या पर क्या कहेंगे, जो एक गरीब और होनहार छात्र ने की? कहाँ है उनका या उनकी डिक्की का कोई फण्ड, जो ऐसे गरीब छात्रों को आत्महत्या करने से रोके? यह सवाल इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि ऐसे बुद्धिजीवी मंचों से कहते हैं कि दलित गरीब नहीं हैं।
अब रही बात एएसए की, तो मुख्य सवाल यह है कि अम्बेडकर नाम से बना यह छात्र संगठन छात्रों की समस्याओं को लेकर गम्भीर है, या याकूब मेनन और मुजफ्फरनगर दंगे जैसे साम्प्रदायिक विषयों को लेकर, जिनसे उनका कुछ भी लेना-देना नहीं है? यह जानते हुए कि केन्द्र में हिन्दुत्ववादियों की सरकार है, एबीवीपी भी भाजपा और संघपरिवार का संगठन है, उससे अपने हकों की लड़ाई लड़ने की बजाए वामपंथियों के सुर में सुर मिलाकर यह संगठन याकूब की फांसी का विरोध करके दलित छात्रों का कौन सा हित कर रहा था? जिस संगठन को अपना लक्ष्य नहीं पता है कि उसे छात्र हित की राजनीति करनी है, या राष्ट्रवाद के मुद्दे उठाने हैं, वह संगठन अपने सदस्यों को ऐसी ही संकट में डालने का काम करता है। दलित संगठनों और छात्रों को यह बात अच्छी तरह क्यों नहीं समझ में आती कि किसी भी विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थान में उनके पक्ष में माहौल नहीं है। वहाँ  का प्रशासन उन लोगों के नियन्त्रण में है, जो उन्हें बिल्कुल भी शिक्षित देखना नहीं चाहते। अगर वे इन संस्थानों में थोड़ा-बहुत प्रवेश पा गए हैं, तो संवैधानिक अधिकार के कारण। और प्रवेश के बाद का सारा विकास उनकी इच्छा या भावना पर निर्भर करता है। ऐसी स्थिति में दलित छात्र और संगठन अलगाववादी रवैया छोड़कर ही अपने पक्ष में माहौल बना सकते हैं। वे अगर अपनी गतिविधियों को संविधान के दायरे में आने वाली समस्याओं तक सीमित रखेंगे, तो उन्हें दूसरे वर्गों का सहयोग भी मिलेगा और सफलता भी मिलेगी। ऐसी लड़ाइयों में अगर प्रशासन पक्षपात भी करता है, तो उसके लिए न्यायिक प्रक्रिया का विकल्प मौजूद है। आज शत्रु प्रशासन से यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वह उस तन्त्र के विरुद्ध जायगा, जिससे भाजपा और संघ परिवार का संगठन जुड़ा है।

(19 जनवरी 2016)

कोई टिप्पणी नहीं: