गुरुवार, 28 जनवरी 2016

31 जनवरी 2016 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में मध्यकालीन सन्त: स्त्री सन्दर्भविषय
पर आयोजित कार्यशाला में दिया गया व्याख्यान
सन्त रैदास: स्त्री सन्दर्भ
कॅंवल भारती
                कबीर और रैदास उस तरह के कवि नहीं थे, जिस तरह के जायसी, सूर और तुलसी थे, जिन्होंने राजा-रानी की कहानियों को आधार बनाकर महाकाव्य लिखे। खण्डकाव्यों और महाकाव्यों में स्त्री या अन्य सन्दर्भों को आसानी से तलाशा जा सकता है, किन्तु कबीर और रैदास के काव्य में यह सन्दर्भ नहीं तलाशा जा सकता, क्योंकि उन्होंने किसी खण्डकाव्य और महाकाव्य की रचना नहीं की है। ऐसी स्थिति में तो और भी नहीं, जब वे आॅंखों देखा कहते थे, और स्वयं अपने हाथ से कुछ नहीं लिखते थे। कबीर की चलिए ग्रन्थावली उपलब्ध है, तो स्त्री के प्रति उनकी सन्जीदगी का पता भी चल जाता है। परन्तु, रैदास साहेब का तो साहित्य ही जला दिया गया। अगर गुरुग्रन्थ साहेब में और दलित जातियों के कण्ठों में मौजूद वाणी ही आज उनकी एकमात्र साहित्य-धरोहर है, जिसमें भी काफी कुछ प्रक्षिप्त है।
                कबीर साहेब हों या रैदास साहेब, स्त्रियों के प्रति उनके दृष्टिकोण को उनकी विचारधारा से ही समझा जा सकता है। मैं कुछ तथ्य आपके समक्ष रखना चाहूॅंगा, ताकि इस वैचारिकी के मूल तत्व को समझा जा सके। पहला तथ्य यह ध्यान में रखने का है कि स्त्री-निन्दा, स्त्री-उपेक्षा अथवा स्त्री-पराधीनता उस वैचारिकी के विषय हैं, जो सामाजिक असमानता में विश्वास करती है। मुख्य रूप से यह धार्मिक विचारधारा है। सभी सभी धर्म स्त्री को लेकर दोयम दर्जे का विचार रखते हैं। बौद्ध और जैनधर्म भी अपवाद नहीं हैं। जैनधर्म में तो स्त्री की ही अधिकारी नहीं है। आरम्भ में बुद्ध भी स्त्री की दीक्षा के पक्ष में नहीं थे। प्रायः सभी 24 अवतार, सभी पैगम्बर, सभी 28 बुद्ध, सभी 24 तीर्थंकर और सभी दसों गुरु पुरुष हैं। यह आकस्मिक नहीं हो सकता। पितृसत्ता समाज ने कभी स्त्री को धर्म-उपदेष्टा के रूप में स्वीकार नहीं किया। दरअसल, धर्मों ने किसी न किसी स्तर पर सामाजिक असमानता को स्वीकार किया है। लेकिन, मध्यकालीन कोई भी दलित सन्त कवि, ऐसे धर्म का पैरोकार नहीं है।
                दूसरा तथ्य, जैसे बुद्ध ने अपने धर्म की एक कसौटी दी है कि जो अनुभव से सही है, वह सत्य मानो, उसी तरह कबीर और रैदास साहेब के यहाॅं भी एक कसौटी मिलती है। वह कसौटी है वर्णव्यवस्था के खण्डन की। यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि मध्यकलीन सन्तों का एक वर्ग वर्णव्यवस्था का समर्थन करता था, वह उसे छोड़ने को तैयार नहीं था। दूसरा वर्ग निगुर्णवादी दलित सन्तों का था, जो वर्णव्यवस्था का खण्डन करता था। वह किसी भी रूप में उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं था। वर्णव्यवस्था में सामाजिक समानता नहीं थी। उसमें स्त्री-शूद्रों के लिए समान अधिकार प्राप्त नहीं थे। इस सम्बन्ध में विश्वनाथ त्रिपाठी बिल्कुल सही लिखते हैं कि वर्णव्यवस्था और स्त्री-पराधीनता दोनों में गहरा सम्बन्ध है। निराला की साहित्य साधनामें डा. रामविलास शर्मा तो यहाॅं तक लिखते हैं कि जैसे वर्णव्यवस्था विश्वव्यापी है, वैसे ही नारी की पराधीनता भी विश्वव्यापी है।तो, कबीर और रैदास साहेब की वैचारिकी में हमें इस कसौटी को ध्यान में रखना होगा। कबीर और रैदास दोनों ही वर्णव्यवस्था के समर्थक नहीं हैं। रैदास साहेब ने सर्वथा नई सौन्दर्यदृष्टि दी, जब उन्होंने यह कहा-
रैदास ब्राह्मण मत पूजिए, जो होवे गुनहीन।
पूजिए चरन चण्डाल के, जो हो ज्ञानप्रबीन।
                वे चारों वेदों का खण्डन करते हैं-
चारि वेद किया खंडौती।
ताकौ बिप्र करें डंडौती।
                वर्णव्यवस्था और जाति भेद का जबरदस्त खण्डन उनके काव्य में मिलता है। जैसे-
रविदास इक ही नूर से, जिमि उपज्यो संसार।
ऊॅंच-नीच केहि विधि भयौ, ब्राह्मण और चमार।
ब्राह्मण उसको जानिए, जो ब्रह्म में लीन।
जाति वर्ण माने नहीं, रैदास यही कह दीन।
रविदास जनम के कारने, होत न कोउ नीच।
नर को नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।
जात पात के फेर में, उरझि रहे सभ लोग।
मानुषता को खात है, रविदास जात का रोग।
                यह एक कसौटी है रैदास साहेब को समझने की कि जहाॅं वर्णव्यवस्था का खण्डन है, वहाॅं स्त्री की पराधीनता का विचार नहीं हो सकता। स्त्री की ही नहीं, वहाॅं हम किसी भी मनुष्य की पराधीनता के विचार का आधार ही समाप्त हो जाता है। पराधीनता पर उनका एक बहुत ही मार्मिक पद है-
पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रविदास दास पराधीन सो, कौन करे है प्रीत।
                जिन रैदास साहेब का पराधीनता मात्र से विरोध है, वे भला स्त्री-पराधीनता का समर्थन कैसे कर सकते हैं?
                तीसरा तथ्य, और यह सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है। निर्गुणवादी दलित सन्त गृह-त्यागी सन्त नहीं थे। वे गृहस्थ थे, पत्नी-बच्चों वाले थे। वे परिवार में रहते थे, उनका योग-भोग सब घर में ही था। वे मेहनत-मजदूरी करके जीविका चलाने वाले थे। वे स्त्री को हीन कैसे मान सकते थे, जबकि वे स्त्री के साथ रहते थे। विवाहित रैदास स्त्री को साधना में बन्धन नहीं मानते थे, जैसाकि वैष्णवी सन्त मानते थे।  दुर्भाग्य से वैषणवी सन्त आज भी इसी व्यवस्था में जीते हैं। इस तथ्य को भी एक कसौटी के रूप में ध्यान में रखना चाहिए। अगर कबीर और रैदास साहेब स्त्री-विरोधी होते, तो क्या विवाह करके स्त्री के साथ रहते? कबीर साहेब ने तो दो विवाह किए थे। उनकी पहली पत्नी दुःशीला थी। वह उनको छोड़कर किसी अन्य के साथ चली गई थी। तब उन्होंने दूसरा विवाह किया था। अगर वे स्त्री विरोधी होते, तो दूसरी स्त्री से भी विवाह क्यों करते? उनके लिए तो फिर सभी स्त्रियाॅं दुःशील होती! रैदास साहेब के गृहस्थ होने का अर्थ है कि वे स्त्री को परिवार की एक अहम इकाई समझते थे।
                चैथा तथ्य यह ध्यान में रखने का है कि वर्णव्यवस्था-विरोधी निर्गुणवादी भक्तिधारा में अवर्णों की भाॅंति स्त्रियों ने भी भारी योगदान किया था। भारत का यह पहला धार्मिक आन्दोलन था, जिसमें स्त्रियों ने भाग लिया था। भक्तमाल में एक छप्पय है, जिसका नाम कलियुग युवतीजन भक्तहै। भक्तमाल का लेखक ऐसी स्त्रियों को कलियुगी स्त्रियाॅं कह रहा था, कबीर और रैदास साहेब के निर्गुण आन्दोलन में शामिल हो रही थीं। इस छप्पय में तीस से ज्यादा स्त्रियों के नाम दिए गए हैं। ये सभी सभी स्त्रियाॅं या तो कबीर साहेब की शिष्या थीं, या रैदास साहेब की। इस सूची में मीरा, झाली, कर्मा और सहजोबाई का नाम नहीं है। इनमें मीरा और झाली रैदास साहेब की शिष्या थीं। अब इस इस तथ्य पर अधिकांश पंडितों को आपत्तियाॅं हैं। उनके लिए रामानन्द जी रैदास साहेब के शिष्य हो सकते हैं, परन्तु मीराबाई रैदास साहेब की शिष्या नहीं हो सकतीं। क्यों नहीं हो सकतीं? इसका कारण वही पूर्वाग्रह है कि गुरु तो ब्राह्मण ही हो सकता है, कोई चमार कैसे हो सकता है? किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि ब्राह्मणों के आचार्य-धर्म में स्त्री को संन्यास लेने का ही अधिकार नहीं था। न तो रामानन्दी सम्प्रदाय ने और न वल्लभ सम्प्रदाय ने स्त्री को दीक्षा दी थी। वल्लभ सम्प्रदाय ने तो मीरा को अपने मन्दिर तक में नहीं घुसने दिया था। इसलिए यह कदाचित असम्भव नहीं है कि मीरा पर रैदास साहेब की वैचारिकी का इस हद तक प्रभाव पड़ा हो कि उन्होंने रैदास जी को गुरु मान लिया हो। मीरा ने पूरे आदर के साथ अपनी वाणी में रैदास साहेब का स्मरण किया है। डा. परशुराम चतुर्वेदी भी, रैदास के साथ मीरा की तुलना को गलत नहीं मानते, पर रैदास को उनका गुरु मानने पर मौन हैं। पर, ‘मीरा के प्रभु हरि अविनासीमें रैदास साहेब के निर्गुण का ही प्रभाव है।
                चित्तौर की झाली रानी भी रैदास साहेब की शिष्या थीं। भक्तमाल में लिखा है कि चित्तौर में ही वह परमधाम को गए। चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने लिखा है कि मीरा के आग्रह पर रैदास साहेब चित्तौर गए थे। वहाॅं उनके गाए पद पर ब्राह्मण क्रोधित हो गए थे और उन्होंने धारदार हथियार से उन पर हमला कर दिया था, जिसमें वह मारे गए थे। कहानी यह प्रचारित की गई कि रैदास साहेब ने राॅंपी से पेट चीरकर अपना जनेऊ दिखाया था। भला जनेऊ शरीर के बाहर पहिना जाता है, या भीतर? और रैदास साहेब भला जनेऊ में क्यों विश्वास करेंगे, जब वे वर्णव्यवस्था को ही नहीं मानते हैं?
                पाॅंचवाॅं तथ्य रैदास साहेब का बेगमपुराहै। यह उनका बहुत ही प्रसिद्ध पद है, जिसमें उन्होंने शोषणविहीन और वर्गविहीन समाज की कल्पना की है। इस पद में वह कहते हैं-
अब मोहि खूब वतन गह पाई।
ऊहाॅं खैर सदा मेरे भाई।
बेगमपुरा सहर को नाउ।
दुख अन्दोहु नहीं तिहि ठाउ।
काइमु दाइमु सदा पातिसाही।
दोम न सोम एक सौ आही।
कहि रैदास खलास चमारा।
जो हम सहरी सो मीतु हमारा।
                यह उनका वह काल्पनिक समाजवादी यूटोपिया है, जिसमें सब समान हैं, कोई भी दोयम और तीसरे दर्जे का प्राणी नहीं है। उन्होंने इसका नाम बेगमपुरा रखा है, जिसमें ऊॅंच-नीच का भय नहीं है। ऐसे समाज में स्त्री भी दोयम दर्जे की कैसे हो सकती है?
26 जनवरी 2016




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