गुरुवार, 7 जनवरी 2016



नथाराम और श्रीकृष्ण पहलवान
( कँवल भारती)
जिस तरह हरियाणा के लोक कलाकारों ने रागनी गायकी को बचाकर रखा है और उसको आगे बढ़ा रहे हैं, उस तरह वे सांग को नहीं बचा सके। शायद ही सांग अब प्रचलन में भी हो।
इसी तरह उत्तर प्रदेश की नौटँकी और राजस्थान का ख्याल अथवा खेल भी अब शायद ही अस्तित्व में हो। मेरी जानकारी गलत भी हो सकती है।
लेकिन इन सांग और नोटंकियों का भी एक दौर था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उत्तर भारत में दो लोक नाट्य प्रचलित थे--- राजस्थानी ख्याल या खेल और हिन्दुस्तानी सांगीत या सांग। राजस्थानी खेल की जो सबसे प्राचीन किताबें ब्रिटिश लाइब्रेरी में मिलती हैं, उनके नाम हैं-- प्रह्लाद सांगीत (1866) और गोपीचन्द भरथरी (1867)। इन दोनों किताबों के रचयिता लक्ष्मण दास थे। जब इनके मंचन हुए, तो जनता में उनकी मांग को देखते हुए ये किताबें छापी गयीं थीं। ये दोनों सांगीत नाटक दिल्ली से छपे थे। आज हिंदी साहित्य की स्थिति यह है कि बड़े से बड़े लेखक की किताब भी 500 से ज्यादा संख्या में नहीं छापी जातीं। अगर वे सरकारी खरीद में न बिकें, तो दूसरा एडिशन उसका होता ही नहीं। लेकिन इन दोनों सांगीत नाटकों की एक-एक हजार प्रतियों के 1866 और 1883 के बीच क्रमशः 16 और 27 संस्करण प्रकाशित हुए थे। हिन्दी न जानने वालों के लिए इनके दो संस्करण पर्सियन लिपि यानी उर्दू में भी छापे गए थे।
यही समय था जब अलीगढ़ के हाथरस में लावनी और ख्याल गायकी में एक बड़ा परिवर्तन आया था। यह इंदरमन का अखाड़ा था। इंदरमन अनपढ़ थे, लेकिन ख्याल लावनी खुद बनाकर गाते थे। वह छीपी जाति के थे और बुलंदशहर के जहांगीराबाद से आकर हाथरस में बसे थे। उनके अखाड़े के बहुत से शिष्य थे। वह अपनी कवितायेँ बोलकर लिखाते थे। इस अखाड़े का समय 1892 से 1920 तक है।
इसी बीच एक गरीब अंधा ब्राह्मण भीख मांगता हुआ हाथरस में घूमता था। उसके साथ एक सोलह साल का लड़का भजन गाता था। दोनों बाप बेटे इसी तरह गाकर भीख मांग कर गुजारा करते थे। लड़के की आवाज बहुत मधुर थी। चेहरा भी आकर्षक था। इंदरमन के एक शिष्य चिरंजी लाल की उस पर नज़र पड़ गयी और उसने उसे इन्दर मन से मिलवाया। उसकी गायकी सुनकर उसे अखाड़े में शामिल कर लिया गया। लड़के की वहां अच्छे से परवरिश हुई, उसे पढ़ाया लिखाया और गायकी तथा नृत्य कला की शिक्षा दी गयी। लड़का प्रतिभाशाली था। उसे अवसर मिला और वह अखाड़े का सबसे प्रखर कवि, गायक और अभिनेता के रूप में संगीत शिरोमणि हिन्दी भूषण कवि पंडित नथाराम शर्मा गौड़ के नाम से विख्यात हुआ।
वह दो सौ से भी ज्यादा संगीत नाटकों के लेखक माने जाते हैं। पर वास्तव में उनमें अधिकांश के लेखक उस्ताद इंदरमन, चिरंजीलाल, और रूपराम थे। 1920 तक इन सभी की मृत्यु हो चुकी थी। इसलिए जितने भी नाटक प्रकाशित हुए, उन पर नथाराम शर्मा गौड़ का ही नाम गया। पर हर किताब पर "अखाड़ा उस्ताद इंदरमन" जरूर लिखा होता था। जब तक अखाड़े के कवियों ने अपना प्रेस नहीं लगा लिया था, तब तक नाटक कानपूर में छपते थे।
अगर यहां श्रीकृष्ण पहलवान का जिक्र नहीं किया जाय, तो बात पूरी नहीं होगी। उन्होंने कानपुर में नौटँकी को स्थापित किया था। क्या संयोग है कि 1891 में उन्नाव में जन्मे श्री कृष्ण पहलवान भी अल्पायु में ही कानपुर में आए थे। वह पहलवानों के परिवार से थे और स्वयं भी पहलवानी करते थे। कानपुर में उनका झुकाव ख्याल यानी नोटँकी की तरफ हो गया था। नोटँकी लिखने में उन्होंने भी नथाराम शर्मा की तरह नाम कमाया था। कहते हैं कि 16 साल की उम्र में उन्होंने आर्यसमाजी शहीद हकीकत राय पर पूरी नोटँकी लिख डाली थी। यह नोटँकी 1913 में खेली गयी थी। इसी वर्ष उन्होंने "श्रीकृष्ण संगीत कम्पनी" बनाई थी। उन्होंने 250 से भी ज्यादा संगीत नाटक लिखे थे। उनकी किताबों पर लंगोट बांधे हाथ में मुदगर लिए पहलवान का फोटो छपता था, जो उन्हीं का होता था। छंद लगभग उनके भी वही थे, जो इंदरमन अखाड़े के थे, पर उनकी धुन निराली थी और इसी धुन के कारण वह सबसे अलग थे। यह महान विभूति 1972 में देह छोड़ गयी थी।

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