बुधवार, 9 जुलाई 2014


(पुन्य तिथि के अवसर पर विशेष)
दलित साहित्य का सौन्दर्य-बोध और भिखारी ठाकुर
कॅंवल भारती
हीरा डोम और भिखारी ठाकुर दोनों ही बिहार से थे और दलित वर्ग से आते थे। दोनों ही भोजपुरी के कवि थे और समकालीन भी। 1914 में जब हीरा डोम की कविता अछूत की शिकायत’ ‘सरस्वतीमें छपी थी, तो भिखारी ठाकुर उस समय 27 साल के थे। सरस्वतीमें हीरा डोम की कविता के छपने का अर्थ था कि वह चर्चित कवि थे, क्योंकि सरस्वतीमें वह कविता हीरा डोम के किसी प्रशंसक द्वारा भेजी गयी थी और महावीरप्रसाद द्विवेदी पर उसे छापने का सामाजिक दबाव भी जरूर रहा होगा। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि भिखारी ठाकुर हीरा डोम को न जानते हों। लेकिन मेरे सामने विचारणीय सवाल यह है कि हीरा डोम की जिस क्रान्तिकारी चेतना ने दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, वैसी कोई भूमिका भिखारी ठाकुर का विपुल लोक साहित्य भी नहीं निभा सका। निस्सन्देह भिखारी ठाकुर कला-साहित्य की एक पूरी संस्था थे। वह कवि, गायक, रंगकर्मी और कलाकार के साथ-साथ नाटककार भी थे। उन्होंने लगभग 29 लोककाव्य-नाटकों की रचना की, जो लोक में प्रतिरोध की महत्वपूर्ण दस्तक हैं। किन्तु जिस परिवर्तनवादी सौन्दर्य-चेतना उनसे अपेक्षा थी, वह उनके लोकनाटकों में अनुपस्थित है। भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों में वर्ण और जाति के सामन्ती ढाॅंचे पर कोई प्रहार नहीं किया है, वरन् वे उन समस्याओं को उठाते हैं, जो पिछड़े समाज में अपनी बेटियों को बेचने, विधवा स्त्रियों की उपेक्षा, नशाखोरी, जुआ, व्यभिचार, जिसे वे कलियुग-प्रेम कहते हैं, वृद्धों की बेकद्री और रोजगार के लिये गरीबों का गाँव से पलायन की समस्यायें थीं। वे कहीं भी वर्णव्यवस्था और जाति की समस्या पर प्रहार नहीं करते, ब्राह्यणवाद पर भी चोट नहीं करते और न सामन्तवादी दमन के खिलाफ आवाज उठाते हैं। यद्यपि, उनके नाटक इस आधार पर अवष्य ही लोक साहित्य में प्रतिरोध की भूमिका निभाते हैं कि पौराणिक नाटकों के उस युग में उन्होंने यथार्थवादी नाटकों का सृजन और मंचन किया, पर वे अपने नाटकों में उन समस्याओं के लिये उत्तरदायी धर्म-व्यवस्था पर कोई सवाल खड़ा नहीं करते हैं, जबकि दलित कवि हीरा डोम की एक मात्र उपलब्ध कविता अछूत की शिकायतन केवल वर्णव्यवस्था, बल्कि ईष्वर की भी पूरी सत्ता को कटघरे में खड़ा कर देती है। क्या कारण है कि शोषित वर्ग से आने वाले इन दोनों कवियों की सौन्दर्य चेतना अलग-अलग है? क्यों भिखारी ठाकुर अपने समय के सामाजिक परिवर्तनवादी आन्दोलन से भी परिचित दिखाई नहीं देते हैं? क्या इसका कारण यह माना जाय कि सामाजिक स्तर पर अस्पृष्यता के जिस अलगाववादी वातावरण में अछूत जातियाॅं रह रही थीं, पिछड़ी जातियाॅं उससे मुक्त थीं? अस्पृष्यता से मुक्ति की आकांक्षा ने ही हीरा डोम समेत उस दौर के सभी अस्पृष्य कवियों को वर्णव्यवस्था का विद्रोही बनाया, और इसीलिये उनका साहित्य समतावादी समाज के निर्माण का घोषणा-पत्र है। लेकिन यह आष्चर्यजनक ही है कि भिखारी ठाकुर अपने समय के दलित नवजागरण के उस आन्दोलन से, जो वर्णव्यवस्था के विरोध में था, कैसे बेखबर रहे, जबकि उसमें पिछड़ा वर्ग भी उतना ही सक्रिय था, जितना कि अस्पृष्य वर्ग था?
बताया जाता है कि भिखारी ठाकुर पर बंगाल के नवजागरण का प्रभाव पड़ा था। भिखारी ठाकुर रचनावलीके सम्पादक नागेन्द्र प्रसाद सिंह अपने सम्पादकीय में लिखते हैं-भिखारी ठाकुर बंगाल के पुनर्जागरण आन्दोलन से प्रभावित होकर जब अपने गाँव कुतुबपुर (सारण) लौटे, तो उन्होंने अपने समाज और उसकी विविध सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक समस्याओं को बड़ी सूक्ष्मता तथा सम्वेदनशीलता से देखा। पहले से चल रहे किसी आन्दोलन की धारा में सम्मिलित हो विलीन हो जाने के बदले उन्होंने अपनी शैक्षिक क्षमता, जातीय स्थिति और अन्तर्निहित वैयक्तिक विषेषताओं पर चिन्तन किया तथा सकारात्मक ढंग से पुनर्जागरण को लोकनाटक, लोकभजन, गीत, कविता और तमासाके माध्यम से भोजपुरिया समाज में पहुँचाने का निर्णय लिया।लेकिन जब वह आगे लिखते हैं कि उस काल-खण्ड में भोजपुरी क्षेत्र के सामन्तों और जमींदारों ने भी भिखारी ठाकुर को सम्मान, संरक्षण और सहयोग प्रदान किया, तो साफ हो जाता है कि भिखारी ठाकुर का नाट्य-लेखन और रंग-कर्म समाज के मूल ढांचे को नहीं तोड़ रहा था, इसलिये सामन्तवाद-विरोधी नहीं था।
बेहतर होगा यदि हम भिखारी ठाकुर के सौन्दर्य-बोध को उनके नाटकों से ही समझें। उनका एक नाटक है बिरहा-बहार’, जिसमें धोबी-नाचऔर धोबी-कर्म की महिमा गायी गयी है। इस नाटक में भिखारी ठाकुर ने धोबी और धोबिन के मुख से जिस तरह ब्राह्यणवाद और देवी-देवताओं में अन्धविष्वास का प्रचार कराया है, उससे साफ हो जाता है कि वह सामन्तों के लिये कितने जरूरी कवि थे। नाटक आरम्भ होने से पहले सूत्रधार की कुछ पंक्तियों में हलके प्रतिरोध की एक झलक भी हमें मिलती है, पर वे पंक्तियां  भिखारी ठाकुर की नहीं हैं, बिहारी कवि की हैं। वे पंक्तियां  इस प्रकार हैं-
                सिन्धु की कुमारी, देख दीनता हमारी, वर्षा वो धूप, जाड़ा, तीनों सहना पड़ा।

                जोहना पड़ा आनन्दहिं दिमागदार लोगन को, अधम अबुधन को बोल सहना पड़ा।
                कहे बिहारीकवि, लक्ष्मी तुम्हारी हेतु, भारी-भारी चूतियन को चतुर कहना पड़ा।
                                            (भिखारी ठाकुर रचनावली, पृष्ठ 180)
इसके बाद अनेक देवी-देवताओं की आरती करते हुए धोबी और धोबिन नाचते हैं और एक-दूसरे से सम्वाद करते हैं। कुछ सम्वाद यहाँ  द्रष्टव्य हैं-
धोबी-  चलती बहुत बा तोहार मइया डांकनी, कि विद्या से बानी कमजोर।
                कहे भिखारी’  लाजे   मरत  बानीनईया   भइल चहूँ ओर।।
धोबिन- आमी के अम्बिका-भवानी के मनावत बानी, जहाँ  बहे गंगा के धार।
                कहे  भिखारी  दया  करिके देवी, भव-जाल से करहू  हमें  पार।।
धोबी-  साधू   पंडित   के   चरनन   में,    सदा    रहऽ    लवलीन।
                कहे  भिखारी’  तूं सेखी  देखइबूहो  जइबू कउड़ी के तीन।।
धोबिन- चार   वेद   जिनका   मुख  में,   चरनन   में   चारों   धाम।
                कहे   भिखारी’   ब्राह्यण-पद   के,   सुमिरऽ   आठों   जाम।।
                                                (वही, पृष्ठ 180-81)

धोबी और धोबिन के बीच यह सम्वाद लम्बा चलता है। आगे इसी सम्वाद में धोबी- शिव की शरण जाने, धोबिन- उमा उमा और फिर आगे राम राम, सीताराम, राधे रमन और कृष्ण-कृष्ण कहने में ही दानों प्राणी सकल पापों से मुक्ति मानते हैं। यहाँ भिखारी ठाकुर ब्राह्यणवाद में अपनी पूरी आस्था व्यक्त करते हुए ब्राह्यण के चरणों की वन्दना करने में ही चारों वेदों को पढ़ने और चारों धामों की यात्रा करने का पुण्य मानते हैं। ब्राह्यणवाद के प्रति जिस लोककवि का यह सौन्दर्यबोध हो, उसका विरोध ब्राह्यण और सामन्त क्यों करेंगे?
आगे चलकर इसी सम्वाद में वर्णकर्म का समर्थन और धोबी के जातीय पेशे का आध्यात्मीकरण भी मिलता है। धोबिन कहती है-
                जातिक के काम सब केहु छोड़ देतु बाटे, छोड़ऽ दऽ  धोअलाका के नेम।
                सेत छोड़ी के खेती करऽ, बोअऽ, तरकारी, फर हाट में बेचबऽ साग-सेम।।
                                                            (वही, पृष्ठ 182)

इस नाटक का रचना-काल 1924 का है। यह भारत में दलित आन्दोलन के चरम उत्कर्ष का दौर था। स्वतन्त्रता, समानता और स्वाभिमान की इस लड़ाई में अछूत जातियां सभी राज्यों में अपने पारम्परिक गन्दे पेशों का परित्याग कर रहीं थीं। भिखारी ठाकुर ने इसी के विरोध में इस नाटक की रचना की थी। धोबिन कहती है, सब लोग जाति के पेशे छोड़ रहे हैं। क्या हम भी अपने धोबन का काम छोड़ दें? परम्परा छोड़कर खेती करें और तरकारी बोकर हाट में जाकर बेचें? धोबी जवाब देता है- कोइरी (सब्जी उगाने वाली जाति)  साग को धोता है, तमोली पान को धोता है और पुरोहित कथा का ज्ञान बांच कर जजमान के मन को धोता है। यथा-
कोइरी   धोअत  साग  केधोवत  तमोली   पान।
                जजमानिका के पुरोहित धोवत, कर्मकाण्ड कथी ज्ञान।।
                                                    (वही)
धोबी के इन शब्दों से भिखारी ठाकुर सन्देश दे रहे थे कि धोबी का पेशा गन्दा नहीं है, क्योंकि सभी लोग धोने का काम करते हैं। अछूत जातियों को हिन्दू गांवों में सिर पर साफा, हाथ में घड़ी और नया कपड़ा पहनने की इजाजत नहीं थी। वे घुटनों से नीचे चुन्नट वाली धोती भी नहीं पहन सकते थे। इसका उल्लंघन अपराध माना जाता था। इस पर भिखारी ठाकुर एक हल्का सा विरोध धोबी से कराते हैं। वह कहता है-
                मथवा में बवडि़या जोडि़या, हथवा बान्हल घडि़या,
                अगवा लटकल बाटे धोतिया के चून।
                हमहू पहिरबऽ नया कपड़ा, देख लीह बिहान से।
                कहे भिखारीनेह लगाव, सीताराम भगवान से।।
                                              (वही)
धोबी धोबिन से कह रहा है कि देख लेना, वह कल से हाथ में घड़ी भी बांधेगा, नया कपड़ा भी पहनेगा और घुटनों के नीचे चुन्नट वाली धोती भी। अवष्य ही अछूत जातियां स्वाभिमान के साथ जीने का साहस कर रहीं थीं, पर भिखारी ठाकुर यहाँ धोबी को सीताराम भगवान से नेह लगाने की भी सीख दे रहे हैं, जिसका अर्थ है, ब्राह्यणों और सामन्तों के प्रति भक्ति-भाव बनाये रखना, अर्थात् उनकी व्यवस्था को बनाये रखना। भिखारी ठाकुर की यह सामन्तवादी सौन्दर्य-चेतना समकालीन दलित आन्दोलन के लिये कितनी घातक थी?

भिखारी ठाकुर का एक नाटक है गंगा-स्नान’, जिसमें वह उस हिन्दू स्त्री के आदर्श को प्रतिष्ठित करते हैं, जिसके लिये पति-सेवा ही स्त्री-धर्म है। इस नाटक का रचना-काल 1934 का है। इस नाटक में, नागेन्द्र प्रसाद सिंह के अनुसार, 1934 में आयी गंगा की बाढ़ का संकेत मिलता है। (वही, पृष्ठ 132)  नाटक के आरम्भ में ही एक सखी दूसरी सखी से कहती है-
                हम ना जाइब गंगा का तीर।  घर हीं बाड़न श्री रघुबीर।।
                पतिब्रत छाडि़ धर्म नहीं दूजा। करब न और देव के पूजा।।
                                            (वही, पृष्ठ 133)
जिस तरह तुलसीदास ने कलियुग को अधर्म का युग कहा है और जिस तरह सारे हिन्दू धर्मगुरु भ्रष्टयुग के रूप में कलियुग की निन्दा करते हैं, उसी तरह के विचार भिखारी ठाकुर के भी थे। वे भी कलियुग को अधर्म का युग मानते थे, जिसमें सारी नैतिक मर्यादायें टूट जाती हैं, लोग शराबी, व्यभिचारी, हर तरह का पाप करने वाले, नास्तिक और अधर्मी हो जाते हैं, इत्यादि। इसी कलियुग-प्रेम पर उन्होंने एक नाटक लिखा था, जिसका शीर्षक है-पियवा निसइल’, यानी शराबी पति। शराबी भी ऐसा-वैसा नहींबल्कि चैबीसो घण्टे नशे में रहने वाला। नशे के लिये वह अपना सब-कुछ बेच देता है, खेत-जमीन, घर का सामान, यहाँ तक कि घर की चैखट-किबाड़ भी उखाड़ कर बेच देता है। पत्नी और दोनों बच्चे इतने दुखी हैं कि उन्हें दो वक्त की रोटी तक मयस्सर नहीं हो रही है। इसी बीच बड़ा बेटा भाग कर कलकत्ता चला जाता है। लेकिन इसी दरम्यान शराबी पति दूसरी औरत को रखैल बनाकर घर में ले आता है। उसकी पत्नी और भी दुखी होती है। पर सब्र करती है और उस औरत को भी रहने देती है। वह उस दूसरी औरत से विनती करती है कि वह उसके पति को नशा छोड़ने के लिये मनाये, पर वह औरत उल्टे उसी को बुरा-भला कह कर धमकाने लगती है। यह नाटक दलित स्त्री को मनु के कानून के तहत पति के चरणों में ही रहने की शिक्षा देता है, भले ही उसका पति कितना ही पतित और अत्याचारी क्यों न हो।
(पूरा लेख मेरी पुस्तक लोक में प्रतिरोधमें मौजूद है, जो प्रकाशनाधीन है)  





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