गुरुवार, 8 मई 2014

जाति-धर्म के शिकन्जे में लोकतन्त्र
(कॅंवल भारती)
 निस्सन्देह इस बार के लोकसभा चुनावों में एक बड़ा सवाल भ्रष्टाचार का उभर कर आया है। अरविन्द केजरीवाल से शुरु हुई इस लड़ाई ने यदि भ्रष्टाचार के सवाल पर युवा मध्य वर्ग को गम्भीर न बनाया होता, तो शायद भाजपा भी इसे अपने एजेण्डे में रखने वाली नहीं थी। केजरीवाल की भ्रष्टाचार-उन्मूलन की लड़ाई कहीं जनक्रान्ति में सफल न हो जाये, इसलिये आरएसएस, भाजपा और बड़े कारपोरेट ने मिलकर केजरीवाल के ही मुद्दों को मोदी के मुॅंह में डाला और उन्हें एक जननायक के रूप में उभारा। दरअसल मोदीे केजरीवाल के विरुद्ध संघपरिपवार की प्रतिक्रान्ति के साधन बने हैं। चूॅंकि भ्रष्टाचार से त्रस्त दिल्ली की जनता ने आम आदमी पार्टी को विजय दिला कर अरविन्द केजरीवाल को अपना नायक मान लिया था, इसलिये इस से चिन्तित भाजपा और संघ-परिवार ने नये अवतार में मोदी को गढ़ा। बाकायदा इस नये अवतार के लिये मोदी को प्रशिक्षित किया गया और उसी के फलस्वरूप मोदी ने जनता की नब्ज को छूने वाले सवाल उठाये और दोनों हाथ उठाकर चिल्ला-चिल्ला कर कहा कि वे भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म कर देंगे। यह विद्रूप ही है कि जिन मोदी के चुनाव-प्रचार में पानी की तरह काला धन बहाया जा रहा है, वह मोदी भ्रष्टाचार खत्म करने की बात कर रहे हैं। कोई उनसे पूछने वाला नहीं है कि जिन धन-कुबेरों ने उनके लिये अपनी तिजोरी के मुॅंह खोले हुए हैं, क्या वे उसका ‘बदल’ नहीं चाहेंगे? और क्या यह ‘बदल’ भारत के संसाधनों की लूट और भ्रष्टाचार के तरीके अपनाये बगैर सम्भव हो सकता है? फिर वे किसे धोखा दे रहे हैं? जिन युवाओं को मोदी ने सपने दिखाये हैं और जिन हसीन सपनों में मस्त होकर वे नमो-नमो कर रहे हैं, अगर बदकिस्मती से मोदी की सरकार बनती है, तो वह दिन दूर नहीं, जब वे अपनी आॅंखों से अपने सपनों को चूर-चूर होते देखेंगे और यह जान जायेंगे कि वे ठगे गये हैं। 
 अरविन्द केजरीवाल ने सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आवाज नहीं उठायी है, बल्कि आम आदमी के हित में  राजनीतिक सुधार का भी माहौल बनाया है। आज इसी माहौल की वजह से वे लोग भी चुनाव लड़ने का साहस कर सकते हैं, जो व्यवस्था से पीडि़त हैं और व्यवस्था को बदलना चाहते हैं। क्या मौजूदा व्यवस्था में गरीब और ईमानदार आदमी के लिये चुनाव लड़ना और जीतना सम्भव है? अगर असम्भव नहीं, तो कठिन तो है ही। क्या इसीलिये राजनीति में धनबलियों और बाहुबलियों के ही चुनाव लड़ने और जीतने की शर्मनाक परम्परा नहीं बनी हुई है? इसमें यदि हम धर्म-बल और जाति-बल को भी जोड़ लें, तो भारतीय राजनीति का जो सच उभर कर सामने आता है, क्या वह आम आदमी के हित में है? क्या सिर के बल खड़ी इस व्यवस्था को आम आदमी के हित में बदले जाने की जरूरत नहीं है? कौन बदलेगा इस व्यवस्था को? क्या मोदी बदलेंगे, जिनकी सारी राजनीति ही धन-बल और धर्म-बल पर चल रही है और जिन्होंने अपनी जाति के नाम पर भी ब्राह्मणवाद का नया खेल खेला है? भाजपा के लोग प्रचार कर रहे हैं कि हिन्दू समाज पिछड़ी जाति के नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जातिविहीन हो गया है। अगर ऐसा ही है, तो वह मायावती के नेतृत्व में जातिविहीन क्यों नहीं हुआ? सच यह है कि नरेन्द्र मोदी पर हिन्दुत्ववादी इसलिये मुग्ध हैं, क्योंकि वे संघपरिवार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में आस्था रखते हैं और उसी के आधार पर वे मुस्लिम-विरोधी हैं। अगर मायावती की तरह मोदी भी लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष होते, तो हिन्दुत्ववादियों का उन्हें नायक मानना तो दूर, वे संघ और भाजपा में ही नहीं होते। 
धन और भ्रष्टाचार के सन्दर्भ में मुझे याद आता है, एक बार लखनऊ में मायावती के जन्मदिन की रैली में कांशीराम जी ने मायावती को धन की महिमा का पाठ पढ़ाया था। उस वक्त उनकी आलोचना हुई थी। पर आज लगता है कि वे अपनी जगह बिल्कुल सही थे। अगर दलित राजनीति को मुख्यधारा की राजनीति में अपना स्थान बनाना है या किसी भी राजनीति को, जो बदलाव चाहती है, और मुख्य धारा में अपना स्थान बनाना चाहती  है, तो धन के बगैर वह कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिये संगठन का ढाॅंचा खड़ा करने से लेकर प्रचार करने तक में धन चाहिए। धन कहाॅं पर है? वह गरीब या शोषित जनता के पास नहीं है, बल्कि व्यापारियों, पूॅंजीपतियों और उद्योगपतियों के पास है। पर वे उन दलों को क्यों धन देंगे, जो शोषण और संसाधनों की लूट के खिलाफ कानून बनाने वाले हैं? वे जानते हैं कि परिवर्तनवादी शक्तियों के हाथों में सत्ता आने का मतलब क्या होता है? भारत की सत्ता अगर उनके हाथों में आती है, तो लूट और भ्रष्टाचार से खड़ा किया गया उनका साम्राज्य कैसे बचा रह सकता है? ऐसी स्थिति में दलित राजनीति या परिवर्तनवादी राजनीति के पास दो ही विकल्प बचते हैं- या तो वह जनता से चन्दा लेकर धन की व्यवस्था करे या फिर धन-संग्रह के लिये भ्रष्टाचार का रास्ता अपनाये। चूॅंकि जनता के चन्दे से करोड़ों रुपये इकट्ठे नहीं किये जा सकते, इसलिये उनके लिये एकमात्र रास्ता भ्रष्टाचार का ही बचता है। मायावती ने भी इसी रास्ते पर चलना ठीक समझा और वे सफल हुईं, पर व्यवस्था बदलना उनके लिये सम्भव नहीं है। उन्हें लूट-खसोट करने वाले वर्ग का धन और समर्थन तभी मिला, जब वे उनके लिये घातक नहीं रह गयीं। यही सिद्धान्त उदित राज पर भी लागू होता है। जब वे ब्राह्मणवाद के लिये गरजते थे, तो हिन्दुत्ववाद के लिये खतरनाक थे। इसीलिये वे भी अपनी पार्टी खड़ी करने में सफल नहीं हो सके। अब जब वे भाजपा में शामिल हो कर संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक हो गये हैं, तो वही हिन्दुत्व उनका गुणगान क्यों नहीं करेगा?
 अतः, समस्या यह है कि कोई भी पार्टी, चाहे उसने भ्रष्टाचार से धन इकट्ठा किया हो या उसे पूॅंजीपतियों ने धन दिया हो, गरीबोें के विकास की राजनीति नहीं कर सकती। कारण साफ है कि वह धन-दाताओं के विरुद्ध मोरचा खोलने का साहस नहीं कर सकती। इसलिये ये पार्टियाॅं जन-हित की प्रतीकात्मक राजनीति ही कर सकती हैं। भाजपा, काॅंग्रेस, सपा, बसपा आदि पार्टियाॅं यही कर रही हैं। वे जनता को सुलाने के लिये धर्म और जाति की अफीम का सहारा ले रही हैं। इसी अफीम से वे मुसलमानों को हिन्दुओं से और हिन्दुओं को सिखों से लड़वाती हैं और इसी से वे दलित-सवर्ण-संघर्ष कराती हैं। इसके लिये वे अपने तरीके से इतिहास का पुनर्पाठ कराती हैं, नफरत को जगाती हैं, और अस्पृश्यता तथा पुरानी सामन्ती-धार्मिक परम्पराओं को जिन्दा रखने वाली संस्थाओं को पालती-पोसती हैं।
 परिणामतः, जाति-धर्म और भ्रष्टाचार के विरुद्ध ‘आम आदमी पार्टी’ के उभार के बावजूद लोकसभा-2014 के इस महासमर में, जिसे मोदी-लहर कहा जा रहा है, यही धर्म और जाति की राजनीति चारो तरफ हावी है। सिर्फ हावी ही नहीं है, वरन् उसी के शिकन्जे में लोकतन्त्र जकड़ा हुआ भी है। विकास के तमाम दावों के बावजूद तीनो ‘एम’ (मोदी, मुलायम, माया) जाति-धर्म की ही राजनीति कर रहे हैं। भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति के विरुद्ध सपा की मुस्लिम राजनीति चल रही है, तो मायावती आरक्षण जारी रखने का वादा करके दलित जातियों को लुभा रही हैं। भाजपा का परम्परागत हिन्दू वोट जितना अन्धा है, उतना ही बसपा का दलित वोट बैंक अन्धा है। इन राजनेताओं के हित जातियों और समुदायों के बीच संघर्ष और तनाव कायम रखने में ही पूरे होते हैं। सब एक-दूसरे से लड़ते रहें, यही वे चाहते हैं और यही वे कर रहे हैं। इसके सिवा रोजी-रोटी, मकान, चिकित्सा और सुरक्षा के मुद्दे उनके लिये कोई मायने नहीं रखते हैं। ऐसे राजनीतिक हालात देश की गरीब जनता को हमेशा जहालत और दहशत के माहौल में रखते हैं। इसलिये लोकतन्त्र की मुक्ति के लिये इस स्थिति को खत्म करना जरूरी है। अब देखना यह है कि अरविन्द केजरीवाल की मेहनत और मुहिम रंग लाती है या जाति और धर्म की राजनीतिक प्रतिक्रान्ति ही लोकतन्त्र का माडल बनी रहती है।
(8 मई 2014)
 

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