रविवार, 11 मई 2014


क्या बसपा का पतन होगा?

(कँवल भारती)

ख़बरें यह आ रही हैं कि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) 9 या 10 सीटों पर सिमट रही है. साफ है कि उसे बहुत भारी नुकसान होने जा रहा है. मेरा गृह जनपद रामपुर है और मंडल मुरादाबाद है, जिसमें दलितों की जाटव और वाल्मीकि दोनों उपजातियों ने मोदी के पक्ष में भाजपा को वोट दिया है. मुझे इसकी बिलकुल अपेक्षा नहीं थी. यह तो लगता था कि इस बार कुछ दलित वोट कांग्रेस को जा सकता है, पर वो भाजपा को जायेगा, यह अप्रत्याशित था. मैंने इसका कारण पता लगाया तो मालूम हुआ कि दलित लोग बसपा के स्थानीय नेताओं से परेशान थे, जो नेता कम और दलाल ज्यादा थे. लेकिन मेरी नजर में यह मोदी-लहर का परिणाम है. गहन छानबीन से यही हकीकत सामने भी आई. इससे साफ़ पता चलता है कि बसपा की राजनीति दम तोड़ रही  है. डाक्टर आंबेडकर ने दलित आन्दोलन की शुरुआत ब्राह्मणवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के खिलाफ की थी, जिसे कांशीराम ने दलितों की सरकार बनाने के लिए उसे सत्ता-प्रतिष्ठान की राजनीति में बदल दिया था, और जिसके लिए उन्होंने भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (यानी फासीवाद) से हाथ मिलाने में भी कोई परहेज नहीं किया था. इसी के तहत उन्होंने भाजपा के साथ दो बार गठबंधन करके उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनायी. भाजपा और सवर्णों को खुश करने के लिए मुख्यमंत्री मायावती ने शिक्षा और संस्कृति के विभाग भाजपा को दिए, जहाँ तेजी से उन्होंने निजीकरण को हरी झंडी दिखाई और दलित एक्ट को निष्प्रभावी करने के लिए बाकायदा शासनादेश जारी किया. उन्होंने अपने जिलाध्यक्षों को दर्जा राज्यमंत्री बनाया और उन्हें दलाली की खुली छूट दी. यही नहीं, उनकी पार्टी ने दलित उत्पीड़न और हत्याकांड के खिलाफ भी कहीं कोई आन्दोलन नहीं चलाया. दिल्ली में जन्तर-मन्तर पर भगाणा (हरियाणा) गाँव की बलात्कार की शिकार चार दलित लड़कियां लगभग एक महीने से धरने पर बैठी है, पर मायावती ने उनके लिए आन्दोलन करना तो दूर, उनका दुःख बाँटने के लिए धरना-स्थल पर झाँक कर भी नहीं देखा. ऐसी दलित या बहुजन राजनीति किस काम की?

आंबेडकर की राजनीति सांस्कृतिक रूपांतरण की राजनीति थी. इसके लिए उन्होंने दलितों को शिक्षित और संगठित होकर संघर्ष करने का नारा दिया था. मायावती और उनकी पार्टी ने आंबेडकर के इसी कैडर को तबाह कर दिया. उन्हें जिस हिन्दू राष्ट्रवाद के फोल्ड से दलित-बहुजनों को निकालना था, उन्होंने उसी हिंदुत्व को दलितों में मजबूत करने का काम किया. मतलब यह कि सामाजिक परिवर्तन का जो कैडर कांशीराम ने बामसेफ में शुरू किया था, उसे उन्होंने बसपा पार्टी बनाकर ख़त्म कर दिया था. इस तरह 1990 के बाद दलितों में जो नयी पीढ़ी पैदा हुई, वह हिंदुत्व के फोल्ड में ही पैदा हुई और हिन्दूराष्ट्रवाद से आकर्षित होकर आगे बढ़ी. इसलिए यदि वह इन चुनावों में मोदी से प्रभावित हुई है, तो आश्चर्य कैसा?

(11 मई 2014)

कोई टिप्पणी नहीं: