मंगलवार, 16 जुलाई 2013

                   हिन्दी दलित साहित्य 
                            कॅंवल भारती

मोहनदास नैमिशराय की ‘हिन्दी दलित साहित्य’ पुस्तक को पढ़ते हूए यह साफ दिखाई देता है कि लेखक ने इसमें  मेहनत बहुत की है, लोगों के बीच जा कर बहुत सारे ब्यौरे इकट्ठे किये हैं और उन्हें एक तरतीब दी है। यह अपने आप में एक बड़ा काम है। लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि इस पुस्तक का लेखन इतिहास की शक्ल में होना चाहिए था, क्योंकि यह इतिहास का विषय है और ‘मेरी अपनी बात’ में लेखक कहता भी है कि उनका ‘लम्बे समय से हिन्दी दलित साहित्य के इतिहास पर लिखने का मन था।’ इसका कारण भी उन्होंने बताया है कि मेरठ उनकी जन्मभूमि रही है, जिसका ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्व है। मेरठ दलित आन्दोलन का भी गढ़ रहा है, डा0 आंबेडकर से लेकर बडे़-बड़े दलित नेताओं तक ने वहाॅं दलितों के बीच जाकर जनजागरण किया है पर उनके अनुसार कोई लिखित इतिहास नहीं मिलता। इसलिये यदि उन्होंने मेरठ को भी दलित साहित्य की दृष्टि से ऐतिहासिक बनाने की सोची, तो उनकी सोच बिल्कुल दुरस्त थी। पर उन्होंने इस किताब को इतिहास की तरह नहीं लिखा, यह सवाल मेरे जैसे बहुत से पाठकों का उनसे बना रहेगा। इस किताब का पहला अध्याय, जो पृष्ठभूमि या इन्ट्रोडक्शन की तरह है, ‘आजादी से पूर्व का दलित साहित्य’ है। यह एक अच्छा और महत्वपूर्ण विषय हैं। इसमें लेखक को इतिहास लिखने की पूरी गुंजाइश थी, पर यह अध्याय कुछ लेखकों और नेताओं के विचारों का संग्रह बनकर रह गया है। इससे आजादी से पूर्व के दलित साहित्य को समझने में शोध छात्रों को कुछ भी मदद नहीं मिलेगी। मसलन, आजादी से पहले ‘दलित साहित्य’ का टर्म ही नहीं था। पहले ‘अछूत’ शब्द था। हीरा डोम की जो कविता ‘सरस्वती’ में मिलती है, उसका शीर्षक ‘एक अछूत की शिकायत’ है, एक दलित की नहीं। दलित शब्द तब प्रचलन में ही नहीं था। ‘अछूत’ के बाद ‘हरिजन’ शब्द आया। उसका विरोध हुआ, अछूतानन्द जी ने इसके विरोध में एक बहुत ही विचारोत्तेजक कविता लिखी थी। जब आदि हिन्दू आन्दोलन चला तो हमारा साहित्य भी आदि हिन्दू साहित्य हो गया। यह भी एक टर्म था। ‘दलित’ शब्द सत्तर के दशक में आया, जो आज भी चल रहा है। आजादी से पूर्व के दलित साहित्य का यह इतिहास इस अध्याय में नहीं है। इस अध्याय में जो अनेक लेखकों के विचार दिये गये हैं, उन्हें सभी जानते हैं, पर इतिहास कहाॅं है? 
जब हम आजादी से पूर्व की बात करते हैं तो उसका एक काल खण्ड निश्चित करना होगा। हम अधिक-अधिक सौ साल का समय चुन सकते हैं। लेकिन हम उसे कबीर और रैदास तक खींच कर नहीं ले जा सकते। कबीर-रैदास दिखाई देते हैं, इसलिए वहाॅं आसानी से पहुॅंच जाते हैं। यह बहुत आसान टारगेट है।, इतिहास-लेखन का टारगेट वे लोग होने चाहिए, जो दिखाई नहीं देते। इस अध्याय में प्रेमचन्द और निराला पर भी बात की गयी है, जबकि इसकी जरूरत ही नहीं थी, क्योंकि यह तुलनात्मक साहित्य की किताब नहीं है, दलित साहित्य के इतिहास की किताब है। आजादी से पूर्व के दलित साहित्य के बाद आजादी के बाद के दलित साहित्य पर चर्चा होनी चाहिए थी।  पर, किताब का दूसरा अध्याय लोक साहित्य पर है। अध्याय का नाम है-‘लोकगीत और दलित अस्मिता’। यह दस पृष्ठों का सबसे छोटा अध्याय है और इसमें भी विभिन्न लेखकों और चिन्तकों के मतों का संग्रह मात्र है। यदि इसमें आजादी के बाद के उन दलित लोक कवियों को शामिल कर लिया जाता, जिन्होंने अपनी रागनियों, भजनों और गानों से दलितों में आंबेडकर आन्दोलन खड़ा किया था, तो यह बहुत महत्वपूर्ण अध्याय बन जाता। इनमें रूपचन्द महाशय, अनेगसिंह ‘दास’, प्रकाश लखनवी, लालचन्द्र ‘राही’, बुद्ध संघ प्रेमी, मौजी लाल मौर्य और अमर सिंह तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही मशहूर लोक कवि हुए हैं, पूर्वी उत्तर प्रदेश से तो यह संख्या और भी ज्यादा हो सकती है। दलितों में दलित-चेतना इन्हीं लोगों ने पैदा की थी, ओमप्रकाश वाल्मीकि, नैमिशराय या मेरे जैसे लोगों ने नहीं। तीसरे अध्याय को लेते हैं, जिसका नाम ‘आजादी के बाद का दलित साहित्य’ है। नैमिशराय जी ने बिल्कुल सही लिखा है कि ‘देश को जब आजादी मिली तो दलितों के लिए वैसी स्वतन्त्रता न थी जैसी दलित-मुक्ति के बारे में आंबेडकर ने कल्पना की थी।’ इस दर्द को उस समय के कई दलित कवियों ने रेखांकित भी किया है। पंजाबी के दलित कवि गुरदास आलम ने इस आजादी को ‘जनता के पिछाड़ी’ और ‘बिरला के अगाड़ी’ मुॅंह करके खड़ी कहा था, तो  हिन्दी के प्रकाश लखनवी ने भी अपनी कविता में पन्द्रह अगस्त को पूॅंजीपतियों की आजादी का दिन कहा था। इस अध्याय में इसका जिक्र तक नहीं है। आजादी की अभिव्यक्ति दलित कविता में किस रूप में हुई कम-से-कम यह तो आना चाहिए था। इस अध्याय में भी जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल राहुल साॅंकृत्यायन और प्रेमचन्द पर चर्चा बेमतलब की है। पृष्ठ 81 पर लिखा है कि ‘आदि वंश की कथा’ पुस्तक के लेखक चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु थे। यह भ्रामक सूचना है। शोध छात्र इसी का अनुसरण करेंगे। तब गलत सूचना पर आधारित शोध दलित साहित्य को कहाॅं ले जायेगा? अगर लेखक ने थोड़ी जाॅंच-पड़ताल कर ली होती, तो वह अपनी गलती सुधार सकते थे। ‘आदि वंश की कथा’ शीर्षक से दो पुस्तकें लिखी गयीं थीं, जिनमें एक के लेखक डा0 अॅंगने लाल और दूसरी के डा0 गयाप्रसाद प्रशान्त हैं। चद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु के हवाले से जिस ‘आदि वंश कथा’ का जिक्र नैमिशराय जी ने किया है, वह डा0 अॅंगने लाल ने लिखी थी। चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने उसे अपने ‘बहुजन कल्याण प्रकाशन’ से प्रकाशित किया था। दिलचस्प यह है कि इसी पुस्तक के विषय में संदर्भ टिप्पणियों में क्रमाॅंक 19 में नैमिशराय जी  लिखते हैं कि ‘20 दिसम्बर 2004 को डा0 अॅंगने लाल से उनके निचास पर बातचीत के आधार पर।’ जब उनकी डा0 अॅंगने लाल से बात हो गयी थी, तो  उन्होंने ‘आदि वंश की कथा’ का लेखक चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु को क्यों बताया ? इसी तरह पृष्ठ 82 पर लेखक ने बताया है कि ‘लखनऊ में स्थापित प्रबुद्ध अम्बेडकर सांस्कृतिक संस्थान ने ‘लोकायन’ वार्षिक पत्रिका का कई वर्षों तक प्रकाशन किया। ’बात सही है, पर क्या ही अच्छा होता, इस संस्थान के संस्थापक और लोकायन के सम्पादक के रूप में डा0 अॅंगने लाल को भी याद कर लिया जाता। यह जानकारी भी उन्हें उस बातचीत में जरूर मिली होगी। फिर इतिहास के छा़त्र को पूरी जानकारी क्यों नहीं दी गयी ? जब हम इसी अध्याय में दलित कविताओं पर चर्चा देखते हैं, तो एक विद्यार्थी के नाते बहुत निराशा होती है। अधिकाॅंश कवियों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। भागीरथ मेघवाल, कुसुम मेघवाल, शिवचरन ंिसह गौतम, नाथूराम, हरीश चन्द्र सुदर्शन, नीरा परमार, ठाकुर दास सिख, शरद कोकाश, एन॰आर॰ सागर, महेन्द्र बेनीवाल, हिमांशु राय, मंसाराम विद्रोही आदि बहुत से कवि हैं, जिनका कोई परिचय उनकी कविता के साथ नहीं मिलता है। यह उस किताब की सबसे बड़ी कमजोरी है, जिसे इतिहास बताया जा रहा है। यदि उनके गृह जनपद का नाम भी रहता, तो भी इतिहास की कुछ लाज रह जाती। इस अध्याय में आजादी के बाद की दलित कविता का कोई परिदृश्य उभर कर नहीं आता। 
चैथा अध्याय ‘दलित उत्पीड़न का कविताएॅं’ है, जो एक स्वतन्त्र लेख लगता है। यद्यपि, दलित साहित्य के इतिहास से इसका सम्बन्ध नहीं बनता है, परन्तु जिस तरह इसमें कुछ कुख्यात दलित हत्याकाण्डों पर दलित कविता के विद्रोह को रेखाॅंकित किया गया है, वह पठनीय है। कविता के बाद कहानी, उपन्यास, आत्मकथा और नाटक पर एक-एक अध्याय है। पाॅंचवा अध्याय दलित कहानी पर है और यही सबसे ज्यादा निराश करता है। लेखक का यह कहना कि ‘हिन्दी दलित साहित्य की पहली कहानी कौन सी है, ‐‐‐‐‐‐‐ इस दिशा में शोध की जरूरत है’, (पृ॰134) इतिहास की भाषा नहीं है। इस अध्याय में दलित कहानी का जो इतिहास आना चाहिए था, वह तो सिरे से गायब है, बस कुछ कहानीकारों की कहानियों पर चर्च की गयी है। इसमें भी नैमिशराय जी ने अपनी कहानियों को ज्यादा ही प्राथमिकता दी है। दलित कहानी क्यों अस्तित्व में आयी, उसका विकास कैसे हुआ, दरअसल यही इस अध्याय का केन्द्र बिन्दु होना चाहिए था। इस दृष्टिकोण से पाठक को निराश ही होना पड़ेगा। छठा अध्याय दलित उपन्यास पर है और उसकी भी यही कमजोरी है। यहाॅं भी इतिहास अनुपस्थित है, सिर्फ उपन्यासों की ही चर्चा है। नैमिशराय जी ने यहाॅं भी अपने उपन्यासों की ज्यादा प्रशंसा की है। इसमें वे आत्ममुग्धता के भी शिकार हो गये है। उपन्यास की दृष्टि से हिन्दी का दलित साहित्य वैसे भी सबसे गरीब है। अभी तक उॅंगलियों पर गिनने लायक उपन्यास ही प्रकाश में आये हैं। दलित आन्दोलन के किसी भी मुद्दे पर एक भी उपन्यास दलित लेखक का नहीं है, यहाॅं तक कि डा0 आंबेडकर के जीवन-संघर्ष पर भी कोई उपन्यास दलित साहित्य में नहीं है। यह उन दलित लेखकों के लिये आत्ममंथन का सवाल होना चाहिए, जो अपनी एक-एक आत्मकथा को लेकर अकड़े बैठे हुए हैं। सातवें अध्याय में दलितों की आत्मकथाओं  के संसार पर प्रकाश डाला गया है। किन्तु, इस अध्याय का आरम्भ भी नैमिशराय जी ने अपनी ही आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ की प्रशंसा से किया हैै और उसका अन्त भी। अपनी किताब में अपनी ही कृतियों की प्रशंसा में पन्ने रॅंगना कोई अच्छा काम नहीं है। आठवाॅं अध्याय ‘हिन्दी दलित नाटक’ है। बस यही एक अध्याय कुल मिला कर ठीक-ठाक है, जिसमें इतिहास के दर्शन होते हैं। नैमिशराय जी के लेखन की यह एक प्रवृति है कि वे उद्धरणों का सहारा बहुत ज्यादा लेते हैं। एक भी अध्याय इसका अपवाद नहीं है। कुछ लोग भले ही इसे उनकी विशेषता कहें, पर मैं इसे उनकी बहुत बड़ी कमजोरी मानता हूॅं। यहाॅं मेरा अपना दृष्टिकोण यह है कि किसी भी विद्वान का उद्धरण उसी समय दिया जाय, जब उसके खण्डन की पूरी वैचारिकी आपके दिमाग में हो, केवल प्रशंसा या समर्थन के लिये उद्धरण देने से लेखक की अपनी मौलिकता खत्म हो जाती है। आगे के अध्यायों में ‘दलित साहित्य में सौन्दर्यशास्त्र’, ‘दलित साहित्य के आलोचकों के कुतर्क’, ‘नई शताब्दी में दलित साहित्य’, ‘दलित साहित्य का दायरा सीमित नहीं है’ और ‘दलित साहित्य का भविष्य’ लेखक के स्वतन्त्र लेख हैं, इस किताब में विषयान्तर लगते हैं। इस किताब को हिन्दी दलित साहित्य का इतिहास कहना गलत होगा, क्योंकि इसमें लेखन की इतिहास-दृष्टि ही नहीं है। ( 4 जुलाई 2012 )

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