संघ परिवार का दलित आन्दोलन
(कँवल भारती)
पिछले चार साल से
संघ परिवार की ओर से हिन्दी में “दलित आन्दोलन पत्रिका” मासिक निकल रही है, जो
अपनी भव्यता में किसी भी दलित पत्रिका का मुकाबला नहीं कर सकती. बढ़िया चिकने
मैपलीथो कागज पर छपने वाली, बड़े आकार की इस बारह पृष्ठीय पत्रिका का हर पृष्ठ
रंगीन होता है. इसके प्रकाशक-संपादक डा. विजय सोनकर शास्त्री हैं, जो एक समय
केन्द्र की बाजपेयी सरकार में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के अध्यक्ष हुआ
करते थे.
अभी तक हम हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता में दलित विमर्श का मूल्यांकन करते
रहे हैं, पर अब हमे हिंदू पत्रकारिता में भी दलित विमर्श का अवलोकन करना होगा. यद्यपि
हम दलित सवालों पर हिदू नजरिये से अनभिज्ञ नहीं हैं, संघ परिवार के हिंदू लेखकों
द्वारा कबीर-रैदास को हिंदूधर्म का रक्षक और डा. आंबेडकर को हिंदुत्व-समर्थक और मुस्लिम-विरोधी
बताया ही जाता रहता है. इसी मुहिम के तहत 1992 में बम्बई के ‘ब्लिट्ज’ में “डा.
आंबेडकर और इस्लाम” लेखमाला छपी थी. उसी क्रम में 1993 में ‘राष्ट्रीय सहारा’ में रामकृष्ण
बजाज ने आंबेडकर को मुस्लिम-विरोधी बताते हुए दो लेख लिखे थे. इसी वैचारिकी को लेकर
1994 में ‘पांचजन्य’ ने ‘सामाजिक न्याय अंक’ निकला था, और 1996 में की गयी अरुण
शौरी की टिप्पणी तो सबको ही पता है. लेकिन इस हिन्दूवादी चिन्तन का प्रभाव दलितों
पर इसलिए ज्यादा नहीं पड़ा था, क्योंकि उसके वे लेखक गैर दलित (द्विज) थे. संघ का
निशाना यहाँ चूक रहा था. उसे दलित वर्गों में आंबेडकर के दलित आन्दोलन की
प्रतिक्रांति में शंकराचार्य की सांस्कृतिक एकता, हेडगेवार का हिन्दू राष्ट्रवाद,
गोलवलकर का समरसतावाद और दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद स्थापित करना था. इसके
लिए उसे जरूरत थी एक दलित की. वह भी ऐसे दलित की, जो संघ की विचारधारा में पला-बढ़ा
हो और हिंदुत्व ही जिसका ओढ़ना-बिछौना हो. संघ की यह खोज विजय सोनकर शास्त्री पर
जाकर पूरी हुई. और भव्य ‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ अस्तित्व में आयी. अब जो काम
‘पांचजन्य’ और ‘वर्तमान कमल ज्योति’ (भाजपा का मुख पत्र) के द्वारा नहीं हो पा रहा
था, वह अब ‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ के जरिये पटरी पर दौड़ने लगा है. अब उसका हर अंक
डा. आंबेडकर के दलित आन्दोलन को हिन्दू फोल्ड में लाने वाली सामग्री पूरी सज-धज से
दलितों को प्रस्तुत कर रहा है.
इसी मई माह के अंक में डा. विजय सोनकर शास्त्री अपने सम्पादकीय में लिखते हैं-
“दलितोत्थान की दिशा में आदि शंकराचार्य द्वारा चलाये गए सांस्कृतिक एकता का
प्रयास अतुल्य था. चार धामों की स्थापना एवं वर्तमान समय में उन धामों की
सर्वस्पर्शिता देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के स्थूल उदाहरण हैं. इतना ही नहीं,
पूर्व काल में चाणक्य की राजनीतिक एकता और अखण्ड भारत के एक लम्बे कालखण्ड का
स्वरूप आज राजनीतिक परिदृश्य में चिंतकों एवं विशेषज्ञों को भारतीय राजनीति का
पुनरावलोकन के लिए बाध्य कर रही है...(अत:) दलित राजनीति के राष्ट्रवादी स्वरूप की
आज परीक्षा की घड़ी है. अद्वतीय राष्ट्रवाद के लिए जानी जाने वाली दलितवर्ग की 1208
जातियों की वर्तमान समय में अग्नि-परीक्षा होगी. सम्पूर्ण दलित समाज भारत की
आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा जैसे मुद्दे पर भी राष्ट्रवादियों के साथ खड़ा दिखायी
देगा.” इसमें संघ परिवार का मूल एजेण्डा मौजूद है. आंतरिक सुरक्षा का मतलब है
हिन्दूधर्म और समाज को बचाना और बाह्य सुरक्षा का मतलब है सीमा के मुद्दे पर भाजपा
का समर्थन करना. शंकराचार्य की सांस्कृतिक एकता में दलित कहाँ हैं? विजय सोनकर
शास्त्री से यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए.
इसी सम्पादकीय में आगे डा. आंबेडकर भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक बना
दिए गए हैं. वे लिखते हैं- “डा. आंबेडकर
द्वारा संविधान-निर्माण के साथ एक सांस्कृतिक राष्ट्र भारत को एक नयी पहचान दिए
जाने के उपरान्त देश में सामाजिक क्रान्ति के आधार पर आर्थिक विकास एवं राजनीतिक
क्षेत्र के संचालन को देखा जा सकता है.” वे अन्त में लिखते हैं- “अब आवश्यकता है
कि एक बार पुनः डाक्टर आंबेडकर के हिन्दू कोड बिल, महिला सशक्तिकरण, आर्थिक उत्थान
के सिद्धांत, मजदूर सगठनों की भूमिका और सामाजिक क्षेत्र में सामाजिक समरसता की
संस्तुति का स्वागत किया जाये.” इसमें नयी बात ‘सामाजिक समरसता’ है, जिसे डा.
आंबेडकर के नाम से जोड़ा गया है और यही संघ परिवार का मूल सामाजिक कार्यक्रम है.
‘सामाजिक समरसता’ का मतलब है जातीय और वर्गीय संघर्ष को रोकना. संघ के नेता कहते
हैं, सामाजिक असमानता का सवाल न उठायो, जिस तरह हाथ की सभी अंगुलियां समान नहीं
हैं, पर उनके बीच समरसता है, उसी तरह समाज में जातीय समानता पर जोर मत दो, उनके
बीच समरसता बनायो. और यही वर्ण-व्यवस्था
का दार्शनिक समर्थन है.
इसी अंक में दलितों को भाजपा से जोड़ने वाला दूसरा लेख है- ‘बाबासाहब डा.
आंबेडकर नरेन्द्र मोदी की डायरी में.’ इसमें दो उपशीर्षक हैं—‘डा. आंबेडकर ने
वंचित समाज को दी एक नयी पहचान’ और ‘दलित समाज के लिए समभाव और ममभाव आवश्यक.’
दलितों के लिए ‘वंचित’ शब्द संघ का दिया हुआ है. एक समय मायावती जी ने भी ‘वंचित’
शब्द का खूब प्रयोग किया था, जब उन्होंने भाजपा से गठबंधन किया था.
२३ मई २०१३
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें