मंगलवार, 16 जुलाई 2013

निराला का वर्णाश्रम-प्रेम
(कॅंवल भारती)
उन्नीस सौ बीस के दशक में पंजाब के आर्य समाजी नेताओं ने ‘जातपात तोड़क मण्डल’ बनाया था। यह वही ‘जातपात तोड़क मण्डल’ था, जिसने 1935 में डा. आंबेडकर को लाहौर में व्याख्यान देने के लिये आमन्त्रित किया था। इस मण्डल के सचिव सन्तराम बी.ए. थे, जिनकी सक्रियता से ‘जातपात तोड़क मण्डल’ पूरे देश में चर्चित हो गया था। डा. आंबेडकर के प्रसिद्ध व्याख्यान ‘जाति का उन्मूलन’ का श्रेय भी इसी मण्डल को जाता है, जिसे मधु लिमये ने दलित आन्दोलन का पहला घोषणा-पत्र कहा है। ‘जातपात तोड़क मण्डल’ अपने समय में जाति के खिलाफ एक व्यापक आन्दोलन था, जिसने  सामाजिक परिवर्तन में एक बड़ी भूमिका निभायी थी। ब्राह्मण वर्ग में उसके विरोधी भी कम न थे। इन्हीं में सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ भी थे, जो मण्डल के घोर  विरोधी थे। उन्होंने न केवल जाति तोड़ने के अभियान का विरोध किया, बल्कि शूद्रों के प्रति शास्त्रों के कठोर प्रतिबन्धों और वर्णव्यवस्था का समर्थन भी किया। उनके ये वर्णवादी विचार उनके लेख ‘वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान स्थिति’ में देखे जा सकते हैं, जो उनके निबन्ध संग्रह ‘चाबुक’ में संकलित है।  वे इस लेख में द्विजों को परम पावन जाति मानते हुए लिखते हैं-‘जातपात तोड़क मण्डल के मन्त्री सन्तराम जी के करार देने से संसार का सर्वश्रेष्ठ विद्वान महामेधावी त्यागीश्वर शंकर शूद्रों के शत्रु नहीं हो जाते हैं। शूद्रों के प्रति उनके अनुशासन कठोर से कठोर होने पर भी उनका अपने समय की मर्यादा से दृढ़ सम्बन्ध है।’ इसी क्रम में निराला आगे लिखते हैं-‘एक बालक को राह पर लाने के लिये कभी तिरस्कार की भी जरूरत होती है, पर समझदार के लिये इशारा काफी कहा गया है। तत्कालीन एक ब्राह्मण का उत्कर्ष और एक शूद्र का, बराबर नहीं हो सकता। अतः दोनों के दण्ड भी बराबर नहीं हो सकते। लघु दण्ड से शूद्रों की बुद्धि भी ठिकाने न आती।’ निराला आगे लिखते हैं कि शूद्रों के लिये कठोर दण्ड की व्यवस्था इसलिये थी, क्योंकि वे अपने दूषित बीजाणु से ब्राह्मणों को नुकसान पहुॅंचाते थे। देखिए उनके ये शब्द- ‘शूद्रों के जरा से उपकार पर सहस्र-सहस्र उपकार होते थे। उनके दूषित बीजाणु तत्कालीन समाज के मंगलमय शरीर को अस्वस्थ करते थे, उनकी इतर वृत्तियों का प्रतिघात प्रतिदिन और प्रतिमुहूर्त समाज को सहना पड़ता था। निष्कलुष होकर मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर होने वाले परमाणुकाय (ब्राह्मण) समाज को शूद्रों से कितना बड़ा नुकसान पहुॅंचता था, यह ‘मण्डल’ के सदस्य समझते, यदि वे भागवादी, अधिकारवादी, मानवादी-इस तरह जड़वादी न होकर, त्यागवादी या अध्यात्मवादी होते। इतने पीड़नों को सहते हुए अपने जरा से बचाव के लिये- आदर्श की रक्षा के लिये- समाज को पतन से बचाने के लिये अगर द्विज समाज ने शूद्रों के प्रति कुछ कठोर अनुशासन कर भी दिये, तो हिसाब में शूद्रों द्वारा किये गये अत्याचार द्विज समाज को अधिक सहने पड़े थे, या द्विज समाज द्वारा किये गये शूद्रों को?’
इतने अवैज्ञानिक और संकीर्ण विचारों वाले निराला, जो शूद्रों को द्विजों के मंगलमय शरीरों को अस्वस्थ करने वाले दूषित बीजाणु मानते थे, क्या प्रगतिशील कहे जा सकते हैं? इस भाषा को देख कर लगता है कि निराला से तो अच्छी हिन्दी भी लिखनी नहीं आती थी।
16-7-2013


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