शनिवार, 14 जुलाई 2012

nastik ke viruddh ghrina


नास्तिक के खिलाफ घृणा  
कँवल भारती 

          फेसबुक पर सिराज फैसल खान ने अपनी वाल पर लिखा है कि नास्तिक जब मरें, तो उनकी लाश सडक  के किनारे या नाले में फेंक  देनी चाहिए, ताकि जानवर उन्हें खा सकें. यह उनकी नास्तिकों के प्रति घृणा है, जो उनकी एक कट्टर तालिबानी छवि बनाती है. सिराज अभी युवा हैं, और इतिहास और दर्शन की कोई समझ भी उन्हें नहीं है. उन्हें यह भी नहीं मालूम कि सूफीवाद के मूल में नास्तिकता थी. ये सूफी रोज़ा, नमाज और हज से कोसों दूर थे. उनका दर्शन 'मै अल्लाह हूँ' पर जोर देता था. बादशाह ने इसी बिना पर सरमद सूफी को मरवा डाला था. इसलिए बहुत से सूफी सत्ता के खौफ से अल्लाह- अल्लाह बोलने लगे थे. कई सूफियों का कलाम मेरे पास है, जिसमें रोज़ा और नमाज का खंडन किया गया है. इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद के समय में मक्का- मदीना में आस्तिकों से ज्यादा नास्तिक लोग थे, जो आस्तिकों से पूछते थे कि बताओ, अगर इन्सान को अल्लाह ने बनाया है, तो अल्लाह को किसने बनाया है? आस्तिकों के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं होता था और आज भी नहीं है. सिराज के पास भी नहीं है. इस्लाम ने इन नास्तिकों को 'शैतान' का नाम दिया और कहा-- शैतान से दूर रहो.  मुहम्मद ने कहा कि अगर कोई यह पूछे कि अल्लाह को किसने पैदा किया, तो बाई ओर तीन बार थूको और दूर हट जाओ. यह तर्क और विज्ञानं से भागना है, और इस्लाम ने यही शिक्षा मुसलमानों को दी है. हिन्दू दर्शन भी आस्तिक है, पर नास्तिकता के सवालों को वह ख़ारिज नहीं करता है. हिन्दुओं के छह  दर्शनों में एक दर्शन पूरा नास्तिक है. दर्शन की यह उदारता अन्य किसी धर्म में नहीं है. ग्यारहवीं सदी में मुहम्मद गजाली तेहरान में एक महान इस्लामिक दार्शनिक हुआ था, जो मुल्लाओं को शैतान कहता था. वो नास्तिक था. पर सुल्तान के खौफ से वह सूफी बन गया था. 
        सिराज को यह नहीं मालूम कि आस्तिक होना हिम्मत की बात नहीं है, हिम्मत की बात है नास्तिक होना. नास्तिक होने के लिए तर्क और विज्ञानं से जुड़ना पड़ता है, जबकि आस्तिक होने का मतलब ही है धर्म की किताब को सर पर लादना. आस्तिक होने के लिए न पढाई- लिखाई  की जरूरत होती है और न दिमाग की. एक जाहिल भी आस्तिक होता है, पर नास्तिक जाहिल नहीं हो सकता. आस्तिक पुस्तकवादी होता है, पर नास्तिक पुस्तकवादी नहीं होता, मनुष्यवादी होता है. 
        और सिराज यह तुमसे किसने कह दिया कि जलाना और दफनाना धर्म की क्रियाएँ हैं? जब कोई भी धर्म नहीं था, तब भी मरने वालों को जलाया या दफनाया ही जाता था. धर्म तो बाद में आया. कुरान में इस क्रिया का जिक्र कहाँ है?  आपके पैगम्बरेइस्लाम ने तो यहाँ कहा है कि मरने वाला अगर विधर्मी भी है, तो उसकी मैयत का एहतराम करो. और तुम विधर्मी या नास्तिक की लाश को नाले में फेंकने की बात कह कर इस्लाम की तौहीन कर रहे हो.  तुम फतवा तो ऐसे दे रहे हो, जैसे दारुल उलूम के मुफ्ती हो. तुम्हें मालूम नहीं कि मानव गरिमा का हनन करने वाली इस  हरकत के लिए  तुम्हारे खिलाफ  फिर दर्ज कराई जा सकती है. तुम अगर मुसलमान हो, तो कुरान की यह सीख गाँठ बाँध लो कि दूसरे लोगों की आस्थाओं पर चोट मत करो, वरना वे तुम्हारी आस्थाओं पर चोट करना शुरू कर देंगे.
Kanwal Bharti
C - 260\6, Aavas Vikas Colony,

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