आरक्षण और धर्म
कँवल भारती
2004 में प्रशांत भूषण द्वारा सुप्रीम कोर्ट में संविधान की धारा 32 के अन्तर्गत दलित ईसाईयों के पक्ष में यह याचिका डाली गयी कि दलित ईसाईयों को अनुसूचित जाति में शामिल किया जाये और उन्हें वे सारे लाभ दिए जाएँ, जो अनुसूचित जाति के लोगों को मिल रहे हैं. बाद में दलित मुसलमानों की ओर से भी इसी धारा में यही मांग की गयी. इस मामले में अनुसूचित जातिओं की ओर से उत्तर प्रदेश के पूर्व IPS अधिकारी श्री चमन लाल ने पक्षकार बनते हुए याचिका दायर करके दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों की मांग का विरोध किया है। कोर्ट का जो फैसला होगा, वह बाद का विषय है. पर इस मुद्दे ने आरक्षण की नीति पर एक बहस जरूर छेड़ दी है.
आइये पहले यह देखें कि दलित ईसाईयों का तर्क क्या है? उनका कहना है कि वे हिन्दुओं से धर्मान्तरित ईसाई हैं. पर ईसाई बनने के बाद भी उनकी हालत पहले जैसी ही है. छुआछूत के शिकार वे अब भी पहले जैसे ही होते हैं. उनके चर्च तक अलग हैं. उनका सामाजिक अलगाव और भेदभाव सब पहले जैसा ही है. वे पहले भी दलित थे और अब भी दलित हैं. लगभग यही तर्क दलित मुसलमानों के हैं. उनके साथ भी अशराफ (उच्च) मुसलमान वही व्यवहार करते हैं, जैसा उच्च हिन्दू दलितों के साथ करते हैं. मस्जिद में वे जरूर पांच मिनट के लिए बराबरी अनुभव करते हैं, पर मस्जिद से बाहर आते ही वे फिर दलित हो जाते हें.
अगर हम कानून की बात करें, तो दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों की अनुसूचित जाति में शामिल होने की मांग गलत भी नहीं है, क्योंकि इसी आधार पर 1956 में दलित सिखों को और 1990 में नव बौद्धों को, जो दलितों से धर्मान्तरित हुए हैं, अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जा चुका है. धर्म की दृष्टि से न दलित सिख अपने को हिन्दू मानते हैं और न नव बौद्ध. फिर भी वे अनुसूचित वर्ग में आते हैं, जबकि नियम यह कहता है कि हिन्दू धर्म में शामिल अछूत जातियां ही अनुसूचित जातियां हैं. इसीलिए अनुसूचित जाति के प्रमाण पत्र में व्यक्ति के हिन्दू होने का भी उल्लेख रहता है. नव बौद्ध के प्रमाण पत्र में भी पूर्व धर्म 'हिन्दू' लिखना आवश्यक होता है. चूँकि नव बौद्धों ने पूर्व धर्म हिन्दू लिखने की शर्त को स्वीकार किया, इसलिए उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया. इस नियम के तहत क्या दलित ईसाई और दलित मुसलमान अपना पूर्व धर्म 'हिन्दू' लिखना पसंद करेंगे? मुझे नहीं लगता कि वे ऐसा करेंगे. शायद दलित ईसाई ऐसा करने को तैयार हो भी जाएँ, पर दलित मुसलमान कभी भी अपना पूर्व धर्म 'हिन्दू' लिखने को तैयार नहीं होंगे.
न्यायिक विवाद में मूल अधिकारों का हनन मुख्य 'पेच' बना रहेगा. इसलिए इसमें बहस भी दिलचस्प होगी और फैसला भी. लेकिन मै दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों से यह जरूर कहना चाहूँगा कि उन्हें अपने-अपने धर्मों में भी जाति के आधार पर अपने शोषण तथा असमानता के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए. चूंकि ईसाइयत और इस्लाम दोनों धर्मों में जातिवाद नहीं है, इसलिए इस लड़ाई में उनका धर्म भी उनका साथ देगा. हिन्दू धर्म जातिवाद को मानता है, इसलिए जब दलित हिन्दुओं ने जातिवाद के खिलाफ विगुल बजाया, तो हिन्दू धर्म ने उनका साथ नहीं दिया. लेकिन दलितों ने हिन्दू धर्म और उसके ठेकेदार ब्राह्मणों के विरुद्ध अपनी लड़ाई जारी रखी. इधर लोकतंत्र ने उनका साथ दिया और उन्हें कामयाबी मिली. दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों को भी अपने धर्मों में अपने अधिकारों की लोकतान्त्रिक लड़ाई लड़नी होगी. यदि उनकी इस लड़ाई में उनके धर्मों के ठेकेदार और नेता बाधक बनते हैं, तो उन्हें उनके खिलाफ भी आवाज उठानी होगी. क्योंकि यदि आरक्षण मिल भी गया, तो, इससे कुछ लोगों को नौकरी तो मिल जायगी, पर वे अपने समाजों में वह परिवर्तन नहीं ला पाएंगे, जिसकी उन्हें जरूरत है.
इसमें संदेह नहीं कि दलितों ने सम्मान के लिए धर्मान्तरण किया था. वे सम्मान के लिए मुसलमान बने, सम्मान के लिए ईसाई बने, सम्मान के लिए सिख बने और सम्मान के लिए बौद्ध बने. पर, हिन्दू धर्म छोड़ने के बाद भी उनकी सामाजिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया. जो काम वे हिन्दू रहकर कर रहे थे, वही पुस्तैनी काम उन्हें ईसाई, मुसलमान और सिख बनकर भी करना पड़ा. नव बौद्ध अपवाद इसलिए हैं, क्योंकि उनका धर्मान्तरण बाबा साहेब डा. आंबेडकर के आन्दोलन का परिणाम है, जिसने उन्हें गुलामी का एहसास और उससे मुक्ति का बोध कराया था. दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों में ऐसा कोई आन्दोलन और नेतृत्व नहीं उभर सका, जो उन्हें उनकी गुलामी का एहसास और उससे मुक्ति का बोध कराता.
दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों को चाहिए कि वे अपने मूल धर्मों में वापस आ जाएँ और अनुसूचित जाति का स्वाभाविक लाभ पायें. और यदि पूर्ण मानवीय गरिमा के साथ स्वतंत्र मनुष्य की हैसियत से जीना चाहते हैं तो बौद्ध धर्म का विकल्प भी उनके लिए खुला है, जहाँ उन्हें आरक्षण का लाभ भी स्वत: मिल जायगा.
( 13 जुलाई 2012 )
3 टिप्पणियां:
नवबौद्ध को आरक्षण है तो अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र कैसे बनाए ।
वैसे भी मुस्लिम और ईसाइयो को नही मिलना चाहिए आरक्षण ये भारत के दुश्मन है. पाकिस्तान और बांगलादेश इसका उदाहरन है. ईसाई तो इटली का है जब मुस्लिम बढ़ेंगे तब भाग जाएंगे मेरा तो ये मानना है अब नया हिन्दू बदल रहा है जाती में विश्वास नही रखता क्योकि बीजेपी उसके मन मे सिर्फ हिन्दू धर्म भर रही है न कि जाति.
ईसाई और मुस्लिम दलित अपने Documents साम्भलके रखने चाहिए थे ताकि हिन्दू धर्म अपनाकर आरक्षण ले सके.
मैं विरोध करता हु ईसाई और मुस्लिम आरक्षण से....
हम सब खतरे में आ जाएंगे और साथ ही भारत. हमारे हाथों में किताबो की जगह बंदूके होगी.
ऐसा नही चलेगा. कुरान पहिलेसे ही बहुत कट्टर है दुसरो धर्मो के प्रति.
हिन्दू बौद्ध जैन और सिख ही भारत के धर्म है अन्य दूसरे कथहि नही...
ईसाई और मुस्लिमो को एक और बात के लिए आरक्षण नही मिलना चाहिए ये बड़े बड़े डींगें मारते फिरते है कि इसाई और इस्लाम मे जातिप्रथा नही है. कोर्ट तो यही सवाल कहेगा आरक्षण जातिवाद खत्म करने के लिए जो कि हिन्दू धर्म है अब कम हो गयी है. तो हम तुम्हे कैसे दे बेटा अगर ऐसी बात है तो सबको आरक्षण देना पड़ेगा..
इन कुत्तों को नही मिलना चाहिए ये हमारे भारत के लिए खतरा है. मैं मानता हूं हमपर ब्राह्मणों ने अत्याचार किये लेकिन अगले आनेवाले समय बहुत कम हो जाएगा क्योकि हिन्दू धर्म हमे बचाना है क्योकि यही एक सच्चा धर्म है जो अंग्रेजो ने मिलावट की.
सदियोसे ही चामर जात नही थी जब अंग्रेज आये तब मनुसमूर्ति में चमार जात डाल्दी और ब्राह्मणों ने मिलावट करदी.
वेद तो पूर्णता जातिप्रथा के खिलाप है यही नही रंग रूप स्त्री हो या पुरुष इसके भी खिलाप है मेरा मतलब है कि सबको समान अधिकार थे इसका मतलब है कि ब्राह्मणों ने कुछ ग्रंथो में मिलावट कर दी थी अपने फायदे के लिए....
बुद्ध को मानिए या फिर किसी और को लेकिन भगवान भारतीय ही हो.
अंग्रेजो की बातो पर विश्वास न करे. मैं तो नही करता तोड़ो और राज्य करने वाले में. अंग्रेज कहिके...कुत्ते
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