सोमवार, 11 मई 2015

कबीर की जाति
(कंवल भारती)
मैंने 1968 के आसपास ‘वैदिक संस्कृति में स्त्री और शूद्र’ नाम से एक छोटी सी किताब लिखी थी, जो तथ्यात्मक से ज्यादा उत्तेजनात्मक थी। 1971 में मैं उसके प्रकाशन के लिए चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु के पास लखनऊ गया था। पाण्डुलिपि को सरसरी निगाह से देखने के बाद उन्होंने मुझसे कहा था, ‘इसमें परिपक्वता दिखाई नहीं है। अगर तथ्यों के साथ बात कहोगे, तो विजन स्पष्ट होगा।’ फिर उसके बाद उन्होंने एक वाकया सुनाया कि एक बार एक आर्य समाजी पंडित उनके पास आकर बोला, ‘आपको इस विषय पर एक किताब छापना है।’ जिज्ञासुजी ने पूछा, ‘क्या विषय है?’ उस आर्य समाजी पंडित ने कहा, ‘विषय यह है कि बुद्ध और उनके धर्म की वजह से भारत गुलाम हुआ है और देश में यौनाचार बढ़ा है।’ जिज्ञासु जी ने उस पंडित को जवाब दिया, ‘आपका दोषारोपण निराधार है। बहुजन कल्याण प्रकाशन से ऐसी किताबें नहीं छापी जाती हैं। इस घटना का उल्लेख उन्होंने अपनी एक किताब में भी किया है। यह घटना मुझे ‘फारवर्ड प्रेस’ के साहित्य वार्षिकी अंक-2015 को देखकर याद आ गई। ‘फारवर्ड प्रेस’ की बहुजन वैचारिकी को देखते हुए उसमें कबीर पर कमलेश वर्मा का लेख नहीं छपना चाहिए था। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अपनी जगह सही हो सकती है, पर ‘फारवर्ड प्रेस’ अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का मंच नहीं है। वह एक खास वैचारिकी की पत्रिका है, जिसकी स्थापना उसका मिशन भी है।
मुझे कमलेश वर्मा के लेख ‘कबीर की जाति’ में भी तथ्यात्मक अपरिपक्वता दिखाई दे रही है। बहुजन वैचारिकी की दृष्टि से तो यह लेख लेखक की समझ पर प्रश्न चिह्न लगाता ही है, प्रत्युत दलित विमर्श की दृष्टि से भी कबीर का उन्होंने गलत अध्ययन किया है। वे दलित को अछूत के अर्थ में लेते हुए कहते हैं कि कबीर अछूत नहीं थे। उनके अनुसार, ‘कबीर ने स्वयं को कहीं भी अछूत नहीं कहा है। यदि कबीर में ब्राह्मण रक्त था, तब भी, यदि वे जुलाहा परिवार में जन्मे थे, तब भी- वे अछूत नहीं थे।’
कमलेश वर्मा दलित और अछूत के शब्दजाल में उलझकर कबीर की उस पूरी विचारधारा के विरोध में चले गए हैं, जिसने भक्तिकाल में ब्राह्मणवाद के खिलाफ सबसे निर्णायक लड़ाई लड़ी थी। कबीर ने स्वयं को अछूत नहीं कहा है, तो दलित भी नहीं कहा है। इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता है, फर्क इस बात से पड़ता है कि ब्राह्मण समाज की नजर में कबीर क्या थे? क्या ब्राह्मण समाज उनसे छूतछात करता था कि नहीं? अगर करता था, तो वे अछूत थे कि नहीं? अब अगर कोई यह कहे कि ब्राह्मण समाज कबीर से छूतछात नहीं करता था, तो वह हद दर्जे का अज्ञानी है, तब छूतछात के खण्डन वाले कबीर के पद भी कोई मायने नहीं रखते, क्योंकि जब कबीर ने छूतछात को अनुभव ही नहीं किया, तो वे कैसे कह सकते थे-‘काहे को कीजै पाण्डे छोति बिचार, छोति ही तैं उपजा सब संसार।’
कमलेश वर्मा यह सामान्य बात नहीं जान सके कि ‘दलित’ शब्द सातवें दशक में हिन्दी में आया और ‘अछूत’ शब्द दलितों का दिया हुआ नहीं है। किसी दलित ने अपने को अछूत नहीं कहा है, और कहेगा भी क्यों, जबकि वह अछूत है ही नहीं। कबीर स्वयं को क्यों ‘अछूत’ कहेंगे? यह तो ब्राह्मण समाज था, जो उन्हें अछूत मानता था। इसका प्रमाण हमें ‘भक्तकल्पद्रुम’ में मिलता है। उसमें लिखा है- ‘इस बात की पुकार, कि कबीर अपने को रामानन्द का चेला कहता है, रामानन्दजी तक पहुॅंची, रामानन्दजी ने आज्ञा दी कि कबीर को पकड़ लाओ। हमने कब उनको चेला किया है? कबीरजी गए, रामानन्दजी ने परदा डलवा कर वृतान्त पूछा।’ (पृष्ठ 316) अगर कबीर को अछूत नहीं समझा जा रहा था या बकौल कमलेश वर्मा कबीर अछूत नहीं थे, तो परदा डलवाकर बात करने का क्या मतलब है? इतनी बात तो वह जानते ही होंगे कि जिसे देखना नहीं होता है, परदा वहीं डलवाया जाता है।
कमलेश वर्मा का कहना है कि पिछड़ी जातियाॅं अस्पृश्य नहीं रही हैं, इसलिए कबीर दलित नहीं थे। यह अस्पृश्यता का वैज्ञानिक सिद्धान्त नहीं है और न यह अनुसूचित जातियों का वैज्ञानिक मापदण्ड है। इधर कई नई जातियाॅं अनुसूचित जातियों में शामिल की गई हैं, जो अस्पृश्यता की शिकार जातियाॅं नहीं हैं, लेकिन वे ब्राह्मणवाद से पीडि़त जातियाॅं जरूर हैं। ब्राह्मणों ने सिर्फ दलितों का ही मन्दिर-प्रवेश वर्जित नहीं किया था, बल्कि यह प्रतिबन्ध शूद्र पर भी लागू किया था, जिन्हें पिछड़ी जाति कहा जाता है। आज भी कुछ मन्दिरों में ‘शूद्रों का प्रवेश निषेध’ का बोर्ड लगा मिल जायगा। अगर यह अस्पुश्यता नहीं है, तो फिर क्या है? हिन्दू समाज में चमार-कोरी अछूत जातियाॅं मानी जाती हैं। कोरी और जुलाहा एक ही जाति है, कोरी हिन्दू धर्म में है और जुलाहा मुस्लिम समाज में आता है। जुलाहा आज भी मुसलमानों में अछूत माना जाता है। कमलेश वर्मा का यह कथन सही है कि इस्लाम में अस्पृश्यता की अवधारणा नहीं है। लेकिन मुस्लिम समाज में मौजूद अस्पृश्यता को वे क्यों नहीं देख सके? अगर वे इससे इन्कार करते हैं, तो बहुत बड़े भ्रम में हैं। मुस्लिम समाज में सवर्ण मुस्लिम ‘अशराफ’ और दलित मुस्लिम ‘अजलाफ’ कहलाता है। मुसलमानों में जुलाहा को निम्न जाति का मुसलमान माना जाता है। अगर कमलेश वर्मा भारत में धर्मान्तरण के इतिहास पर एक नजर डाल लेते, तो उन्हें इस सवाल का भी जवाब मिल जाता कि कबीर का परिवार हिन्दू से इस्लाम में धर्मान्तरित हुआ था और उनके पूर्वज कोरी थे, जो अनुसूचित जाति में आती है। उनके पूर्वजों ने चाहे जिन परिस्थिति में धर्मान्तरण किया हो, पर उनकी सामाजिक हैसियत में कोई बदलाव नहीं आया था। वे मुस्लिम की हैसियत से भी ब्राह्मण और मुस्लिम दोनों समाजों में इज्जत से नहीं देखे जाते थे। ब्राह्मण और मुल्ला से उनकी लड़ाई यों ही नहीं थी, वरन् उसके पीछे उन्हे सदियों से दबाकर रखने का दर्द था। कमलेश वर्मा यह सब जानते हुए भी अनजान बने हुए हैं और केवल यह साबित करने के लिए निरर्थक जाति-प्रश्न में उलझ गए हैं कि गैर दलित भी दलित साहित्य लिख सकता है, जैसे कि उनके अनुसार, कबीर ने लिखा, जो दलित नहीं थे। इसीलिए वे कहते हैं, ‘दलित विमर्श का सिद्धान्त कबीर की चैखट पर टूट जाता है कि दलित साहित्य केवल दलित ही रच सकता है।’ यह बकवास का सवाल है। जिस गैर दलित को लिखना होता है, वह लिखता है और जिसे नहीं लिखना होता है, वह सिर्फ गाल बजाता है।
कमलेश वर्मा कहते हैं कि ‘दलित विमर्श को जातिवादी वर्चस्व का घुन लग गया है’, लेकिन दूसरी ओर वे स्वयं कबीर को एक दूसरे जातिवादी वर्चस्व का घुन लगा रहे हैं, कि कबीर को पिछड़ी जाति जुलाहा घोषित करके उनकी दलितवादी व्याख्याएॅं खारिज कर देनी चाहिए। क्या खारिज करने से विमर्श बदल जाएगा? क्या दलित विमर्श की वैचारिकी पिछड़ी जाति के विमर्श की वैचारिकी से भिन्न है? अगर भिन्न है, तो किस मायने में भिन्न है? दलित और पिछड़े वर्ग को यदि मिलाकर बात करें, जो जरूरी भी है, तो वह बहुजन-विमर्श और बहुजन-साहित्य ही हो सकता है, जिसकी एक ही वैचारिकी है- वर्णव्यवस्था और जातिभेद का विरोध और समतामूलक समाज की स्थापना पर जोर। किसने कबीर को किस निगाह से देखा है, यह छोडि़ए। रामचन्द्र शुक्ल से लेकर हजारीप्रसाद द्विवेदी और पुरुषोत्तम अग्रवाल तक के कबीर वैष्णववादी हैं। इन लोगों ने एक तरह से कबीर को उनकी मौलिकता में स्थापित करने का नहीं, बल्कि उन्हें, ओशो के शब्दों में, ठोकपीट कर ठिकाने लगाने का ‘प्रायेजित काम’ किया है। धर्मवीर के कबीर भी दलित विमर्श में पूरी तरह स्वीकार्य नहीं हैं। कबीर का वर्णव्यवस्था और जातिभेद के विरोध का काव्य प्रथम रचना-कर्म नहीं है। वह पूर्ववर्ती कई शताब्दियों से चली आ रही परम्परा का अंग है, जिसकी जड़ें बौद्धधर्म में मिलती हैं। वेद, शास्त्र, कतेब, ब्राह्मणवाद, वर्णव्यवस्था और परलोकवाद के खण्डन की यह धारा आजीवकों, बुद्ध, अश्वघोष, सिद्धों और नाथों से होती हुई कबीर तक पहुॅंची थी। कबीर इसी परम्परा आते हैं। इस पूरी परम्परा को एक ही नाम दिया जा सकता है- ‘बहुजन-चिन्तन-परम्परा’। यह न जातिवादी है, न वर्णवादी, और न हिन्दूवादी है, मुस्लिमवादी। इसलिए क्षत्रिय बुद्ध भी इसी परम्परा में हैं और अश्वघोष ब्राह्मण भी। इसीलिए कबीर ने अपने को ‘न हिन्दू-न मुसलमान’ कहा है। और, मेरी दृष्टि में बहुजन अवधारणा भी यही होनी चाहिए।

(11-5-2015)

4 टिप्‍पणियां:

subodh kumar singh ने कहा…

कमलेश वर्मा का आलेख इस तथ्य कि आलोचनात्मक पड़ताल है कि कबीर किस जातिय समुदाय से आते थे.कबीर के समय भी हिन्दू समाज अगड़ी, पिछड़ी और अछूत जाति वर्ग में विभक्त था. इसी सामजिक पृष्ठ भूमि पर आधुनिक भारत विकसित हुआ. संविधान बना. दलित को आरक्षण मिला. इससे वंचित वर्ग सशक्त हुआ जिसकी परिणति साहित्य एवं अन्य क्षेत्रों मे दलित विमर्श का आना है. इसके बाद पिछड़ों को आरक्षण मिला.कमलेश वर्मा का आलेख पिछड़ा विमर्श कि आहट है इसे स्वीकारना होगा. आपकी इस टिपण्णी पढ़ने से ऐसा प्रतित होता है कि कबीर के समय दलित और पिछड़ा वर्ग मे कोई खास अंतर नहीं था. दोनों ही अछूत थे. जुलाहा जाति के समाजशास्त्रिय विश्लेष्ण पर आपका मौन आश्चर्यजनक है. कमलेश वर्मा का आलेख साहित्य के लिए कितना महत्पूर्ण है मै नहीं जनता पर इतिहास के समाजशास्त्रिय अध्ययन के लिए अहम सामग्री है.

Koli kshatriya ने कहा…

Kori dalit nahi hai kisi bhi prakar se na to karm se na hi dharm se our na hi itihash se koli samaj ke logo ko arthik stithi ke karan sc category main daal diya thha kyo ki jab angrejo se ghamasan yuddh hua tab kori samaj ka listening kaam band kar diya our criminal act laga diya is liye kori samaj sc main hi nahi sabhi category main daal diya thha kori koli samaj kshatriy jaati hai dalit nahi category mai. Jane koi dalit nahi ho jata our koli samaj mai. To raja maharaja hua bhagwan mandhata suryavanshi koli they tana ji malusare koli they mata jhalkari bai koli thhi raja nag nayak koli they raja yashwant rao mukne koli they goutam buddh koli vanshaj they rajA maver koli they bhagwan belnath ji koli they our bhi bahut hai koli samaj ke raja maharaja our shurvir hai 1948 se pahle koli kori kshatriy hi they itihash utha kar dekhlo jis kisi ko sak ho to dalit sabit kar ke dikhaye kisi bhi prakar se category chhod kar jai kshatriy koli mandhata maharaj

Koli kshatriya ने कहा…

Koli jaati ne kabhi achhuto wala kaam nahi kiya koli kori samj ka pusteni kaam kapas se suth banana our kapda banana our janehu banana thaa jis kori samaj ne desh ke logon ko badan dakne ke liye kapde diye wah jaati achhut kaise ho sakti hai our to our kori samaj mai .To raja maharaja hua to ve dalit kaise ho sakte

Koli kshatriya ने कहा…

Kisi ki arthik stithi ke karan kisi jaati ko dalit kahna galat hai kori kisi bhi prakar se dalit nahi hai kori raja hote hai our wah khabar to suni hi hogi ki jaise kori ke devta dudh bhat khat hoye bhagwan shakya koli ek hote hai