1927 में
प्रकाशित कैथरीन मेयो की बहुचर्चित पुस्तक “मदर इंडिया” से उसका ‘परिचय’
यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. यह वह पुस्तक है, जिसने पहली बार भारत में दासप्रथा का
खुलासा किया गया था. भारतीय राजनीति में इस किताब ने इतनी जबरदस्त दस्तक दी थी कि
लालपत राय को इसके जवाब में “अनहैप्पी इंडिया” के नाम से किताब लिखनी पड़ गयी थी. डा. आंबेडकर
ने इस किताब का जिक्र अपने कई लेखों में किया है. यह किताब की प्रस्तावना का
अनुवाद है,
कलकत्ता का काली घाट
(कैथरीन मेयो)
कलकत्ता, ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा बड़ा शहर, जो बंगाल की खाड़ी के शिखर पर हुगली कही जाने
वाली गंगा तक फैला हुआ है। कलकत्ता, विशाल, पश्चिमी, आधुनिक इमारतों से भरापूरा, राष्ट्रीय स्मारक, पार्क, बगीचे, अस्पताल, संग्रहालय, विश्वविद्यालय,
न्यायालय, होटल, कार्यालय,
दुकानें, और वह सब कुछ, जो एक समृद्ध अमेरिकी शहर में होता है; और उसके उलट यह भारतीय नगर, मन्दिरों, मस्जिदों,
बाजारों तथा उलझे हुए आंगनों और गलियारों से
भरपूर, जो किसी तरह अपने आप बनने
के बावजूद नक्शे में आयताकार दिखाई देते हैं। चौराहों और गलियों तथा बाजारों में
छोटे-छोटे बुकस्टाल्स हैं, जहाँ सुस्त चाल
वाले, कमजोर नजर वाले और बीमार
कदकाठी के नौजवान भारतीय छात्र अपनी देशज पोशाक में किताबों में डूबे हुए, ऐसे
दिखाई दे रहे हैं, जैसे लोग रूसी साहित्य पढ़ते हुए खो जाते हैं.
समृद्ध कलकत्ता, विश्व व्यापार के लिए भारत का विशाल मुक्त द्वार, सोने-चाँदी का व्यापार, जूट का व्यापार, काटन का व्यापार, और उन सब चीजों का व्यापार, जिसकी जरूरत भारत और विश्व को एक-दूसरे से रहती है।
सुरुचिपूर्ण, कृत्रिम कलकत्ता,
जहाँ सभी धर्मों, सभी वर्णों और सभी प्रथाओं के सुरुचिपूर्ण और बनावटी लोग
गवर्नमेंट हाउस की गार्डेन पार्टीज में जाते हैं, अपने महामहिमों को फर्शी सलाम बजाते हैं, और उन्हें प्रसन्न करने के लिए अच्छी अंग्रेजी
बोलते हैं, जबकि वे अपनी चाय और बर्फ
लेते हैं और सेना के बैंड को सुनते हैं।
आप गवर्नमेंट हाउस गार्डेन से सड़क नहीं देख
सकते, क्योंकि दीवालें काफी
ऊॅंची हैं। किन्तु यदि आप देख सकते हैं, तो आप देखेंगे कि वह सड़क मोटर यातायात, खासकर कारों, टैक्सियों और प्राइवेट मशीनों से भरी पड़ी हैं। और कभी-कभी उनमें अकेले ही एक ‘फिफ्थ एवेन्यू’ बस घूमती हुई दिखती है, जिस पर बड़े अक्षरों में लिखा होता है, ‘काली घाट’।
यदि आपने ध्यान दिया हो, तो अकेली यही बस इम्पायर थिएटर के पीछे पार्क, अनेकों क्लबों, सेंट पौल केथेड्रल, बिशप हाउस के पीछे, सामान्य
चिकित्सालय, और लंदन मिशन
सोसाइटी संस्थान से गुजरकर चलती है, और अब वर्तमान में यह एक घनी बस्ती तक भी आकर रुकती है, जैसाकि इसके स्टापेज का विज्ञापन किया गया है।
‘काली घाट’ अर्थात् ‘काली का स्थान’
, यह कलकत्ता का उद्गम
शब्द है। हिन्दू देवी ‘काली’ विनाश के महान देवता शिव की पत्नी है, जिसकी पिपासा जीवों की बलि चढ़ाकर उनके रक्त से
शान्त होती है। विश्व में उसका आध्यात्मिक शासन पिछले लगभग पांच हजार वर्षों से
आरम्भ होता है, और लगभग चार सौ
बत्तिस हजार साल के बाद तक रहेगा, ऐसा माना जाता है.
भारत में काली के छोटे-बड़े हजारों मन्दिर हैं।
कलकत्ता का काली मन्दिर ब्राह्मणों के एक परिवार की निजी सम्पत्ति है, जो तीन शताब्दियों से उनके पास है। जिनके कब्जे
में आज यह है, वे सौ के करीब एक
ही पिता के पुत्र हैं। उन सौ में से एक ने मुझे एक ब्राह्मण मित्र के साथ मन्दिर
परिसर दिखाने की कृपा की है। मैं उसे मि. हलदार कहूँगी, क्योंकि यह उसका पारिवारिक नाम है।
किन्तु सफेद तहमद और सफेद चोगे की वजह से,
जो आम बंगाली पहिनावा है, मि. हलदार एक सुन्दर सजधज के साथ उत्तरी
इटैलियन सज्जन ज्यादा लग रहे थे। उसकी अंग्रेजी परिमार्जित है और उसका आचरण पूरी
तरह पसन्द आने वाला।
उसने मुझे बताया, यह मन्दिर 590 एकड़ में फैला हुआ है. यहाँ नजदीक और दूर सब जगह से श्रद्धालु आते हैं, जिससे
यहाँ हमेशा भीड़ रहती है. वे यहाँ पूजा करते हैं, पैसा चढ़ाते हैं। यहाँ पुरोहित
को भी दक्षिणा दी जाती है। यहाँ बहुत-सारे मण्डप हैं, जो एक-दूसरे के समीप और
ऊपर-नीचे हैं. इनमें मिठाईयां, प्रतिमायें, गेंदा के फूल, तावीज, और मन्नत का चढ़ावा बेचा
जाता है। इससे भारी आय होती है।
आते-जाते श्रद्धालुओं की भीड़ को तेजी से चीर
कर आगे बढ़ते हुए मि. हलदार हमें पूरा मन्दिर दिखाते हैं। एक ऊॅंचा चबूतरा,
उसकी लम्बाई और चैड़ाई को तीन तरफ से घेरते छत
और स्तम्भ। एक छोर पर, एक गहरा, आधा-घेरा हुआ समाधि-स्थल, जिसमें, देवियों की धुंधली, आधी नजर आने वाली, अस्पष्ट मूर्ति। वह है, काला चेहरा, बाहर को निकली
हुई जीभ और टपकता हुआ खून। उसके चार हाथों में से, एक हाथ में खून से टपकते हुए आदमी का सिर है, दूसरे हाथ में
खड्ग, तीसरे में रक्त
से भरा पात्र और चौथा धमकाने में उठा हुआ, खाली है। उसके पैरों की परछाईं के पास एक पुरोहित खड़ा है।
देवी के सामने वाले एक लम्बे चबूतरे पर,
स्त्री और पुरुष लेटे हुए जोर-जोर से प्रार्थना
कर रहे हैं। उनमें मटरगश्ती करते हुए और लोलीपाप चूसते हुए लड़के हैं। एक सफेद
बछड़ा भी भ्रमण कर रहा है, जबकि इस सबके बीच
में एक श्रद्धालु वृद्ध पालथी मारकर बैठा हुआ एक मोटी किताब के आगे जोर-जोर से बुदबुदा
रहा है।
‘वह’, मि. हलदार ने कहा, ‘हमारे हिन्दू
पुराण से श्लोक पढ़ रहा है। काली का इतिहास।’
अचानक, एक कर्णभेदी मिमियाने की मार्मिक चीख जैसी आवाज आई। हम मन्दिर के छोर के पीछे
की तरफ खुले बरामदे की ओर गए। वहाँ दो पुरोहित खड़े हैं, एक के हाथ में तलवार है, और दूसरा एक युवा बकरे को पकड़े हुए है। बकरे की चीख से अभी
भी हवा में सिहरन भरी है। देवी के सामने बजते हुए ढोल-नगाड़े। पुरोहित ने बकरे को पकड़कर
उसकी गर्दन को (अंग्रेजी के ‘V’ आकार में बने) एक खूंटे में फॅंसा दिया है। दूसरा
पुरोहित अपनी तेज धार की तलवार से उस नन्ही जान का सिर काट देता है। खून की धार
जैसे ही फर्श पर गिरी, देवी की मूर्ति
के आगे घण्टे-घडि़याल बजने लगे और सारे पुरोहित और भक्त साथ-साथ चिल्लाए- ‘काली! काली! काली!’ कुछ तो मन्दिर के फर्श पर अपने सिर पटकने लगे।
इसी समय, एक औरत, जो बकरी की हत्या
करने वाले पुरोहित के पीछे खड़ी प्रतीक्षा कर रही थी, आकर फर्श पर लेट गई और अपनी जीभ से नीचे गिरे हुए उस खून को
‘बच्चा पैदा होने की आस में’ चाटने लगी, तो दूसरी औरत
झपट्टा मार कर उस खून पर अपना कपड़ा डाल देती है और उसे खून में सानकर अपने वक्ष में घुसेड़ लेती है,
जबकि अनजान रोगों से ग्रस्त आधा दर्जन बीमार,
भयंकर कुरूप और जख्मी कुत्ते, जो अपनी भूख सहते हुए निर्जीव हो गए हैं,
फर्श पर जमे हुए खून में जीवन तलाश रहे हैं।
‘हम यहाँ इसी तरीके से प्रतिदिन 150 से 200 तक शिशु बकरों को मारते हैं’, मि. हलदार ने कुछ
गर्व के साथ कहा, ‘बलि के लिए इन
शिशुओं को पूजा करने वाले लोग ही यहाँ लाते हैं।’
अब वह हमें कुछ छोटी देवियों के मन्दिरों में
ले जाता है- उन छोटी देवियों में एक लाल देवी है, जो चेचक की देवी है, वह लाल जोड़े में है. यह चेचक से
छुटकारा दिलाती है या नहीं, पर अफवाह है;
एक अन्य प्रतिमा पांच सिरों वाले काले कोबरा
सांप की है, जिसकी ठोढ़ी के
नीचे पुरोहित की नन्हीं आकृति है, इसकी पूजा वे लोग
करते हैं, जो सर्प-दंश से डरते हैं. आगे एक और
प्रतिमा लाल कपीश है, जिसकी पूजा
पहलवान करते हैं, जब अखाड़े में
जाते हैं. धनी व्यापारी और
विश्वविद्यालय के छात्र भी इस देवता से परीक्षा में पास होने या व्यापार में घाटा
न होने के लिए प्रार्थना करते हैं, आगे एक ‘सार्वभौम देवता’ का चेहरा है,
Alaskan totem की तरह। और उसके बाद अंत में सर्वत्र विद्यमान काली के पति शिव का लिंग चिह्न
है। उन सबसे पहले, गेंदे के फूलों
या टोकरियों में भरकर लाई गई लाल रंग की किसी चीज का छोटा चढ़ावा, ये दोनों चीजें मन्दिर की दूकानों पर, खरीदने के लिए उपलब्ध थीं, उसके साथ ही मन्दिर के वृषभों के गोबर से बनी
पवित्र टिक्की भी बिक रही थी।
मि. हलदार हमें एक गली में ले गए, जहाँ पंक्तियों में लगभग नंगे साधु और भिखारी
बैठे थे, ज्यादातर मोटे-मुस्टन्डे
और बड़े केशों वाले, और पूरे शरीर पर
राख लपेटे हुए, भीख मांगते हुए।
वे सभी फोटो खिंचवाने के लिए आतुर हैं। उन साधुओं ने उठ खड़े होकर फोटो खिंचवाए।
एक, पागल तो एक लड़की को बुरी
तरह डराते हुए, खुद हम पर ही गिर
गया. उस लड़की को एक युवक खींच कर ले गया, जिसकी कलाई पर बंधा
स्कार्फ का दूसरा सिरा लड़की की नन्हीं कलाई से बंधा है। ‘ये पति- पत्नी है’, मि. हलदार बताता है, ‘ये यहाँ पुत्र के लिए प्रार्थना करने आए हैं।‘
अब हम मन्दिर के
श्मशान घाट पहुँचते हैं। एक चिता की तैयारी चल रही है। एक खुली जगह के बीच में एक
आयताकार गड्ढा है। गड्ढा अभी लकडि़यों से आधा भरा है। पास में ही जमीन पर, एक खूबसूरत जवान भारतीय स्त्री लेटी हुई है,
शान्त जैसे अचेत हो, उसके लम्बे काले बाल उसके चारों ओर बिखरे हुए हैं, कुछ फूल भी उनमें थे। उसका माथा, उसके हाथ और उसके पैरों के लाल रंग से पुते
तलवे बताते थे कि वह सौभाग्यवती स्त्रियों में थी, यानी वह विधवा होने से बच गई थी, उसका पति जीवित था। उसके दो-तीन सम्बन्धी और एक दस वर्ष का
बालक पास में ही खड़े थे, जो उदास लग रहे
थे। कुछ दूरी पर एक बूढ़ी स्त्री बैठी रो रही थी। पांच या छह घुड़मक्खियों जैसे
भिखारी भी वहां थे।
अब उन्होंने लाश को उठाया और गड्ढे में लकड़ियों
पर रख दिया। स्त्री का सिर घूमता है और एक हाथ लटक जाता है, जैसे उसने सोते में करवट बदली हो। लगता है, वह कुछ ही घण्टे पहले उसकी मृत्यु हुई है।
उन्होंने उस पर ऊपर तक लकड़ियों का ढेर लगा दिया है। अब वह छोटा बालक, जो शायद उसका बेटा है, हाथ में जलती आग लेकर चिता के सात चक्कर लगाता है। उसके बाद
वह उस आग को लकड़ियों पर फेंक देता है, लकड़ियों सुलगती हैं और धुंआ उठने लगता है. इस तरह अन्तिम
संस्कार सम्पन्न होता है।
‘अच्छी आग से सब कुछ जल जाता है’, मि. हलदार समझाता है, ‘मन्दिर के चाकरों
द्वारा चुनी गई चिता की राख को, सोने के सिक्के के
साथ, जो मृतक के परिवार द्वारा
दिया जाता है, मिट्टी के एक
गोले में रखकर गंगा में बहा दिया जाता़ है। अब हम गंगा दिखायेंगे।’
वह पुनः हमें मन्दिर से नीचे की ओर ले गया, जहाँ एक कींचड़-युक्त छोटी नदी थी, जो उसमें नहाने वाले लोगों से भरी हुई थी। मि. हलदार ने कहा,
‘यह अत्यन्त प्राचीन गंगा का अवशेष द्वार है।
इसलिए यह बहुत गुणवान मानी जाती है। यहाँ हर वर्ष हजारों बीमार लोग स्नान करने आते
हैं और अपनी बीमारियों से मुक्ति पाते हैं, जैसा कि अब आप यहाँ देख रही हैं। कुछ लोग अपने पापों से
मुक्ति के लिए भी देवी की शरण में आते हैं और इसमें स्नान करके उनके पाप धुल जाते
हैं।’
जो लोग उसमें नहा रहे थे, उन्होंने
अपना स्नान खत्म करने के बाद उस पानी को न सिर्फ पिया, बल्कि अपने घुटनों पर भी मला। उसके बाद उनमें से बहुतों ने
उसकी तलहटी में से अपने हाथों से गन्दगी तलाशी, और मुट्ठीभर कीचड़ निकालकर उसे सावधानी से अपनी हथेली पर
रखकर उसमें कुछ ढूँढने लगे। मि. हलदार ने बताया, ‘वे चिता की इस राख में से सोने का सिक्का ढूंढ रहे हैं।
उन्हें सिक्का मिलने की उम्मीद रहती है।’
इसी वक्त, नदी के पुश्ते पर
आगे-पीछे कुछ पुरोहित आए, हरेक तीन या चार
बकरी के बच्चे लिए हुए थे, जिन्हें उन्होंने
उसी नदी में स्नान कराकर उन्हें खींचते हुए वापिस मन्दिर के अहाते में ले गए,
वे चीखते और छटपटाते रहे. इसी बीच उस नदी में
से पानी भरकर ले जाने वाले स्त्री-पुरुषों का आना-जाना बदस्तूर जारी रहा, जो जिस
रास्ते से आते थे, उसी रास्ते से गायब हो जाते थे.
‘हरेक बच्चा’, मि. हलदार ने
कहना जारी रखा, ‘बलि देने से पहले
पवित्र नदी में स्नान कराकर शुद्ध किया जाता है। जहां तक पानी लाने की बात है,
वे पानी प्रसाद के रूप में लाते हैं। उसे काली
के चरणों पर और उसके बाद पुराहितों के चरणों पर प्रवाहित किया जाता है।’
जैसे ही मि. हलदार ने हमें मन्दिर के बाहर दीवार तक छोड़ा, मेरा ध्यान आदमी के हाथ के आकार के बराबर एक
गटर जैसे होल पर गया, जो जमीन की सतह
पर था। इस होल से, एक छोटे सपाट
पत्थर पर, कुछ गेंदे के फूल,
कुछ गुलाब-दल और कुछ सिक्के गिराए गए थे। उसे
देखते ही, अचानक होल में से बहुत
तेजी से गन्दा पानी बाहर आया, और एक औरत भागती
हुई आई, और उसमें से एक कप से पानी लेकर पी गई।
मि. हालदार ने
बताया--‘वह हमारी गंगा का पवित्र
जल है, जो काली और पुरोहितों के
चरणों पर से बहकर और ज्यादा पवित्र हो गया है। मन्दिर के फर्श से यह इसी तरह इस
प्राचीन नाली से यहाँ आता है। यह आंव और आँतों के बुखार में बहुत बढि़या फायदा
करता है। बीमार लोग ही यहाँ आकर पहले गंगा में स्नान करते हैं, फिर इस जल को पीते हैं। इस जल को वे अपने
परिचित बीमार लोगों के लिए भी बर्तनों में भर कर ले जाते हैं।’
खैर, अब हमें अपनी
प्रतीक्षित मोटर मिल गई और हमने जनरल अस्पताल, बिशप हाउस, अनेक क्लबों,
इम्पायर थिएटर होते हुए, कुछ ही मिनटों में कलकत्ता के हृदय का भ्रमण कर लिया।
‘तुम काली घाट क्यों गईं थीं? वह भारत नहीं है।
केवल नीच, अज्ञानी और अनपढ़ भारतीय
ही काली की पूजा करते हैं’, एक अंग्रेज
थियोसोफिस्ट ने दुखी होकर अगले दिन मुझसे कहा।
मैंने एक प्रकाण्ड विद्वान और प्रख्यात बंगाली ब्राह्मण के शब्दों को दुहरा
दिया। उन्होंने कहा था-
‘तुम्हारे अंग्रेज मित्र गलत हैं। यह सही है कि नीची जातियों में काली को पूजने
वालों का प्रतिशत ज्यादा है और विष्णु को पूजने वालों का प्रतिशत कम है, शायद इसलिए कि वे आत्मसंयमी हैं, जैसे वे मांस-मदिरा से परहेज करते हैं। किन्तु
हजारों ब्राह्मण, हर जगह काली की
पूजा करते हैं, और काली घाट पर
आने वाले श्रद्धालुओं में सभी जातियों के हिन्दू शामिल होते हैं, जिनमें बहुत से अत्यन्त उच्च शिक्षित और इस शहर
व भारत के महत्वपूर्ण गणमान्य व्यक्ति होते हैं।’
(30 अप्रैल 2015)
अनुवाद : कँवल भारती
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