शनिवार, 1 नवंबर 2014

हुनर को खत्म करने की साजिश
(कॅंवल भारती)
जिन्होंने भी दलित लेखक श्योराजसिंह बेचैन की आत्मकथा मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ पढ़ी हैवे जानते होंगे कि किस तरह लेखक ने मृतक पशुओं को उठाने और उनकी खाल उतारने से लेकर खेत-खलिहानों तक में मजदूरी करके अपना और अपने भाई-बहनों का पेट पाला था। मेरा सवाल यहाँ यह है कि अगर बालश्रम कानून के तहत उस बालक को मजदूरी करने से रोक दिया गया होतातो उसका और उसके परिवार का क्या हुआ होता?निश्चित रूप से वे भूखे मरते। क्योंकि जिस समाज-व्यवस्था में हम जी रहे हैंवह इतनी निर्दयी है कि किसी के प्रति भी अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझती है। आज भी करोड़ों घरों में तभी चूल्हा जलता हैजब उनके सदस्य दिनभर मजदूरी करके शाम को पैसा लेकर घर लौटते हैं। जिस दिन उन्हें काम नहीं मिलता हैउस दिन उन्हें भूखे ही सोना पड़ता है। औरहाँ, यह भी बता दॅं कि सिर्फ घर के बड़े लोग ही काम पर नहीं जाते हैंबल्कि बच्चे और महिलायें भी मजदूरी पर जाते हैं। गरीब लोग आगे की  सोचते हैं। इसलिए वे अपने बच्चों को किसी हुनर में डालने की सोचते हैं। वे उन्हें छोटी उमर से ही जरीचिकनटेलरिंगबिजली-मरम्मतस्कूटर-कार मरम्मतड्राइविंगराजमिस्त्रीपिलम्बरबढ़ईलोहारजूता और बीड़ी बनाने आदि के काम में डाल देते हैं। दो-चार साल में ही वह बच्चा इतना काम सीख जाता है कि उसे कुछ पैसे भी मिलने लगते हैंऔर घर को भी एक बड़ी राहत मिलती है। अब बालश्रम कानून बन जाने से 16 साल से कम उमर के बच्चे को कोई काम नहीं सिखाताउन्हें मजदूरी भी नहीं मिलती। जो भी उन्हें काम सिखाएगा या काम पर रखेगाउसे जेल जाना पड़ेगा। फिर क्यों कोई मास्टर उन्हें काम सिखाएगा या काम पर रखेगा?
निश्चित रूप से इन बच्चों का बचपन उनके कंधों पर ही बीतता है। अब सवाल यह है कि भारत में ऐसे करोड़ों बच्चे हैंजो अपना बचपन अपने कंधों पर ढो रहे हैं। समाज उनके लिए क्या करता हैचलो समाज की छोडि़एसरकार भी उनके लिए क्या कर रही हैसरकार ने तो एनजीओज के दबाव में कानून बनाकर 16 वर्ष से कम उमर के बच्चों को काम पर रखने को अपराध घोषित कर दिया। सरकार और एनजीओज कहते हैं कि बच्चों को खेलने-कूदने की उमर में काम नहीं करना चाहिएउन्हें खेलना-कूदना चाहिए और स्कूल जाना चाहिए। सुनने में ये बातें बहुत अच्छी लगती हैं। परवे कैसे खेलेंगे-कूदेंगे और स्कूल जाएंगेजबकि बुनियादी सुविधाएं तक उनके पास नहीं हैंदो जून की रोटी तक उन्हें ठीक से नसीब हो नहीं रही हैठीक-ठाक घर तक उनके पास है नहींऐसे में वे पढ़ने जाएंगेचलो यहाँ यह भी मान लेते हैं कि सरकारी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा दी जा रही है,और यह भी मान लेते हैं कि सरकार उन्हें खाना-कपड़ा भी मुफ्त दे रही हैलेकिन क्या यह भी मान लें कि पढ़ने-लिखने के बाद सरकार उन्हें नौकरी भी दे रही हैकिसी को विश्वास हो तो वह मान सकता हैपर मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि सरकार ने उन्हें नौकरी देने की भी गारन्टी दी है। अगर सरकार ने नौकरी की गारन्टी दी होतीतो मनरेगा’ लाने की जरूरत नहीं पड़ती। मतलब साफ है कि सरकार मिट्टी खोदने वाले मजदूर तो चाहती हैपर बाल मजदूर नहीं चाहती है। अतःजब सरकारी स्कूलों में पढ़ने-लिखने के बाद उन्हें नौकरी मिलने वाली नहीं है, (क्योंकि हमारे देश में तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में जो सिस्टम काम करता हैउसमें लाखों रुपयों की रिश्वत चलती हैजिसकी व्यवस्था वे गरीब लोग नहीं कर सकते,) तो क्या उनके लिए बचपन में ही किसी हुनर को सीख कर अपने पैरों पर खड़े होना बेहतर नहीं है?
मैं यहाँ अपने दो संस्मरण ( मैं इन्हें संस्मरण ही कहूँगा ) आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ. पहला संस्मरण अपने एक टेलर का हैजहाँ से मैं पिछले तीस सालों से अपने कपड़े सिलवाता आ रहा हूँ । एक दिन मैंने उससे कहा, ‘भईक्या बात हैकाम कुछ ढीला-ढाला लग रहा है?’ उसने जो जवाब दियावह बेहद गौरतलब है। उसका जवाब था-कारीगर कहाँ हैंअब चाइना से कारीगर मंगाने पड़ेंगे।’ मैंने इसका मतलब जानना चाहातो उसने बताया-यहाँ 16 साल से नीचे के बच्चों को काम सिखाने पर पाबन्दी है। उन्हें काम पर रखकर कौन जेल जाएगा इसलिए नए कारीगर अब कहाँ आ रहे हैंजो कारीगर हैंउन्हीं के भरोसे चल रहे हैं।’ भारत के शिल्प-कौशल के लिए यह गम्भीर चिन्ता है। यह सिर्फ टेलरिंग के क्षेत्र की ही समस्या नहीं हैबल्कि दूसरे तकनीकी कामों की भी यही स्थिति है। लग रहा है जैसे विदेशों की बड़ी कम्पनियों के माल के लिए भारत के हुनर को खत्म किया जा रहा है। यह कहा जा सकता है कि 16 साल के लड़कों पर तो पाबन्दी नहीं हैउन्हें सिखाइए काम। पर सच यह है कि हुनर छोटी उमर से सीखा जाता है, 16 साल की उमर सीखने की नहीं होती। अगर किसी गरीब घर के बच्चे ने 16 साल की उमर तक कोई काम नहीं सीखा है,तो वह मजदूरी ही करेगा या शहरों में रिक्शा चलाएगा।
दूसरा संस्मरण एक ऐसे शहरी नवयुवक का हैजिसने दो लाख रुपये रिश्वत देकर कचहरी में चपरासी की नौकरी हासिल की है। यह मेरे ही शहर का वाकया है। अब वह इस नौकरी से परेशान है। उसकी परेशानी का कारण वह काम हैजो उसे सुबह 7 बजे से रात के 9 बजे तक करना पड़ता है। वह सुबह 7 बजे साहब के बंगले पर पहुँचता हैसाफ-सफाई करता हैवाशिंग मशीन में उनके कपड़े धोता हैफिर सबको नाश्ता कराता हैऔर साहब के बच्चों को स्कूल की बस तक छोड़ता हैजिसमें सवा दस बज जाते हैं। उसके बाद वह आफिस जाता है। वहाँ साहब केबिन में बैठे रहते हैं और वह साहब और स्टाफ को चाय-पानी लाने का काम करता रहता है। पांच बजे जब आफिस बन्द होता हैतो उसे फिर साहब के बंगले पर जाना पड़ता है। वहाँ साहब उसे खाने-पीने का सामान और सब्जी लाने के लिए मार्कीट भेजते हैं। यह सब सामान लाने के बाद वह रसोई में काम करता है और साहब को डिनर कराने के बाद जब वह अपने घर पहुँचता हैतो रात के नौ बज जाते हैं। वह अपने परिवार को नहीं देख पाता और घर में सब्जी न बनने पर अपनी सारी भड़ास अपनी बीबी पर उतारता है। वह नवयुवक इस नौकरी को छोड़ना चाहता हैपर जो मोटी रकम उसने कर्ज लेकर दी है,उसकी वजह से वह फॅंसा हुआ है। अगर इस युवक ने कोई हुनर सीख लिया होतातो क्या वह यह जलील’ नौकरी करताठाठ से अपना व्यवसाय चला रहा होता और कुछ दूसरे लोगों को भी काम सिखाकर उन्हें रोजगार दे रहा होता।
इसलिएकैलाश सत्यार्थी जी इस गरीब-विरोधी बालश्रम कानून को खत्म कराइए या फिर यह बताइए कि आप किस का भला कर रहे हैं? गरीबों का भला तो इस कानून से कतई नहीं हो रहा है. इससे भला तो कारपोरेट का ही हो रहा है. वे ही अपने संस्थानों में लाखों रूपये लेकर हुनर सिखायेंगे. आपको तो नोबेल पुरस्कार मिल गयापर इन बाल मजदूरों को क्या मिलाआपको पुरस्कार में कई करोड़ रुपये मिल गए,  आप जैसा चाहें इन रुपयों का इस्तेमाल कर सकते हैं। अगर कैलाश जीपुरस्कार में मिली इस सारी धनराशि को भी इन बालश्रमिकों में बाँट देंगेतब भी समस्या को हल नहीं कर पाएंगे। यह है वह यथार्थ जिसे वे देखना नहीं चाहते।
कैलाश के समर्थक चिल्ला-चिल्लाकर कह सकते हैं कि उन्होंने बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराया है। वे अपने मिशन में ठीक हो सकते हैं, पर क्या उन्होंने इस यथार्थ पर विचार किया? काश, उन्होंने शोषक वर्ग को कुचलने के लिए आन्दोलन चलाया होता, बड़े जमीदारोंभूमाफियाओं और कारपोरेट के खिलाफ आन्दोलन चलाया होता। काश उन्होंने जरूरत से ज्यादा जमीन हथियाने वालों के खिलाफ आन्दोलन चलाया होता। और काश उन्होंने गरीबों की बुनियादी सुविधाओं को भकोसने वाली सरकारी नीतियों के खिलाफ आन्दोलन चलाया होता। लेकिनतब उनको नोबेल नहीं मिलता।
(30 अक्टूबर 2014)   

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Kanwal Bharti
C - 260\6, Aavas Vikas Colony,
Gangapur Road, Civil Lines, Rampur 244901 

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