15 नवम्बर 2014 को ‘कथाक्रम-2014’ लखनऊ में मेरे जिस वक्तव्य पर बवाल मचा था, मैं उसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. मेरे आलेख का
शीर्षक था--
वे हमें जातिवादी कहते हैं
(कॅंवल भारती)
एक लम्बे अरसे के बाद मैं ‘कथाक्रम-2014’ में आया हूॅं। जब पहली बार सम्भवतः सन् 2000 में मैं इस मंच से बोला था, तो मुझे अभी तक याद है, मेरे एक मित्र ने दिल्ली में मुझसे कहा था, ‘कथाक्रम’ में तो आप दहाड़ रहे थे। अब जब हमारा बोलना भी लोगों को
दहाड़ना लगता है, तो इससे आप समझ सकते हैं कि हमारी आलोचना को
किस रूप में लिया जाता है। इसलिए मैं ऐसी संगोष्ठियों में जाने से बचने की कोशिश
करता हूॅं। मैंने बहुत से सेमीनारों में भाग लिया है और इस नतीजे पर पहुॅंचा हॅंू
कि एक-दो दलित लेखकों को सिर्फ सन्तुलन के लिए बुला लिया जाता है, बाकी तो उद्घाटन से लेकर समापन तक का सारा
अनुष्ठान दूसरे ही लोग सम्पन्न करते हैं। इसका साफ मतलब है कि गैर-दलित लेखकों की
नजर में हम सिर्फ सन्तुलन के लिए हैं। वे दलित आलोचना को हिन्दी आलोचना के विकास
के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। हम जब दलित के पक्ष की बात करते हैं, या डा. आंबेडकर की बात करते हैं, या ज्योतिबा फूले की बात करते हैं, तो वे हमें जातिवादी कहते हैं और सीधे हमें
साहित्य से उठाकर राजनीति में पटक देते हैं। और तब हमारी आलोचना उनकी नजर में एक
विमर्श से ज्यादा अहमियत नहीं रखती। हम बताना चाहते हैं कि हमारी आलोचना विमर्श
नहीं है, बल्कि आलोचना की तीसरी
धारा है, जैसे दूसरी धारा
प्रगतिवादी या माक्र्सवादी है। दरअसल, अभी तक हिन्दी साहित्य में जितनी भी धाराएॅं चली हैं- जैसे नई कविता, नई कहानी, छायावाद, प्रयोगवाद,
प्रगतिवाद, जनवाद, माक्र्सवाद आदि,
वे सब की सब ब्राह्मणों के बीच से ही निकली
हैं। इसलिए उन्होंने उन सारी धाराओं को स्वीकार किया। पर उन्होंने कभी यह सपने में
भी नहीं सोचा था कि साहित्य की कोई धारा उनके बाहर से भी फूट सकती है। इसलिए वे
दलित साहित्य की धारा को साहित्य की धारा नहीं मानते हैं। भले ही वे न मानें,
पर मैं बताना चाहता हूॅं कि दलित आलोचना हिन्दी
आलोचना को हिन्दुत्व के फोल्ड से बाहर निकालने की कोशिश कर रही है, जिसमें प्रगतिशील आलोचना भी फॅंसी हुई है।
दलित चिन्तन की दृष्टि में हिन्दी साहित्य का इतिहास और हिन्दी आलोचना दोनों
ही जातिवादी हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में सिर्फ तीन कहानियाॅं लिखने वाले
ब्राह्मण लेखक का नाम मिल जाएगा। लेकिन दर्जनों पुस्तकें लिखने वाले किसी भी दलित
लेखक का नाम नहीं मिलेगा। मैं हीरा डोम की बात नहीं करता, जिन पर एक दूसरी ही बहस छेड़ दी गई है। पर, मैं स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ की बात जरूर
करुॅंगा, जो कवि और नाटककार के
साथ-साथ एक मासिक पत्र के सम्पादक भी थे। पर, हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका कोई जिक्र नहीं है।
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ अपनी किताब में उनको नकली स्वामी कहकर उनका
गन्दा मजाक उड़ा सकते हैं, गणेश शंकर
विद्यार्थी ‘प्रताप’ में उनके विरोध में लेख लिख सकते हैं, पर हिन्दी साहित्य के इतिहासकार उन्हें इतिहास
में स्थान नहीं देते। क्योंकि उनकी नजर में वे जातिवादी थे, दलित की बात करते थे, दलितों पर लिखते थे। पर, दलितों पर लिखने वाले उन्हीं के समकालीन प्रेमचन्द उनके लिए
महान लेखक थे, वे उनके लिए
जातिवादी नहीं हैं, वे इतिहास में
प्रगतिशील लेखक के रूप में दर्ज हैं। चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, जिन्होंने 40, 50 और 60 के दशकों में 100 से भी ज्यादा पुस्तकें लिखकर हिन्दी बेल्ट में
ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलित वर्गों में क्रान्ति का बिगुल बजाया था, उनका नाम हिन्दी साहित्य के इतिहास में नहीं
मिलेगा। पर उन्हीं के समकालीन वेद-विरोधी राहुल सांकृत्यायन का नाम मिल जाएगा,
क्योंकि वे ब्राह्मण थे। जिस तरह वैदिकी हिन्सा
हिन्सा नहीं कहलाती है, उसी तरह ब्राह्मण
का ब्राह्मण-विरोध भी विरोध नहीं कहलाता है। उन्हें राहुल सांकृत्यायन स्वीकार्य
हैं, पर चन्द्रिकाप्रसाद
जिज्ञासु स्वीकार्य नहीं हैं, क्योंकि वे
ब्राह्मण नहीं हैं। इसलिए मैं कहता हूॅं कि हिन्दी साहित्य का इतिहास और आलोचना
दोनों ही जातिवादी हैं।
अभी मैं मैनेजर पाण्डेय का एक इण्टरव्यू पढ़
रहा था ‘लहक’ में। धर्मवीर यादव और संजीव चंदन ने उनसे
बातचीत की है। मैनेजर पाण्डेय कहते हैं कि दलित दृष्टि असहमति को बर्दाश्त नहीं कर
सकती। पर, मैं बताना चाहता हूॅं कि
ब्राह्मण दृष्टि असहमति को बर्दाश्त नहीं करती है। दलित बेचारों की हैसियत ही क्या
है, जो असहमति को बर्दाश्त
नहीं करेंगे? उनके हाथ में है
क्या, जो वे कुछ कर लेंगे?
अभी तक तो सारा व्यवस्था और नियामन ब्राह्मणों
के ही हाथों में है। विश्वविद्यालयों में भी अभी उन्हीं का बोलबाला है। अब
संघपरिवार की सरकार है, तो यह वर्चस्व और
भी बढ़ेगा। काॅंग्रेस सरकार में यूजीसी पैसा देती थी, तो विश्वविद्यालय दलित साहित्य पर सेमिनार करा लेते थे। अब
वह सब बन्द हो जाएॅंगे। अब देखते हैं, कितने विश्वविद्यालय दलित साहित्य पर सेमिनार कराते हैं? दलित साहित्य और दलितों के अब बहुत बुरे दिन
आने वाले हैं। ओबीसी के लिए फिर भी दरवाजे खुले हुए हैं, हिन्दी के सरकारी संस्थान उन्हें सम्मान-पुरुस्कार दे देते
हैं। पर दलितों के लिए वहाॅं भी दरवाजे बन्द होते जा रहे हैं। इसका कारण है कि
ओबीसी ब्राह्मणवाद के लिए उतना बड़ा खतरा नहीं है, जितना बड़ा खतरा दलित वर्ग है। मोदी खुद पिछड़े वर्ग से आते
हैं, पर परम हिन्दू-भक्त हैं।
मैनेजर पाण्डेय कहते हैं कि ‘दलित दृष्टि की सीमा यह है कि वह अपने प्रति
असहमति को बर्दाश्त नहीं कर सकती।’ लेकिन वे इसी
इण्टरव्यू में दलित लेखक डा. धर्मवीर के बारे में कहते हैं कि जब धर्मवीर ने उनके
बारे में कुछ लिखा, तो उन्होंने
धर्मवीर को पढ़ना छोड़ दिया। अब बताइए कि असहमति कौन बर्दाश्त नहीं कर रहा है?
मैनेजर पाण्डेय के इसी साक्षात्कार से असहमति
का एक और उदाहरण लेते हैं। वे कहते हैं, उन्होंने धर्मवीर की पुस्तक ‘कबीर के आलोचक’
को दलित विमर्श की पुस्तक कहा था, इस पर धर्मवीर नाराज हो गए और कुछ दिन बाद
राष्ट्रीय सहारा में श्यौराजसिंह बेचैन ने लेख लिखकर कहा कि आखिर मैनेजर पाण्डेय
का पांडित्य प्रगट हो ही गया। अब क्या इसके बाद संवाद की कोई गुंजाइश बचती है क्या?’
इससे क्या जाहिर होता है? क्या मैनेजर पाण्डेय अपनी ही सीमा नहीं बता रहे
हैं? आखिर संवाद की गुंजाइश
खत्म होने का मतलब क्या है? आप संवाद कहाॅं
कर रहे हैं? आप तो फैसला सुना
रहे हैं? आप आलोचना की पुस्तक को
विमर्श की पुस्तक कहकर फैसला ही दे रहे हैं। श्यौराजसिंह क्या गलत कह रहे थे?
यह मैनेजर पाण्डेय का पांडित्य ही तो है,
जो उन्होंने आलोचना को विमर्श बता दिया?
यह कौन सा सिद्धान्त है कि मैनेजर पाण्डेय जो
व्याख्या करें, वह आलोचना है और
जो व्याख्या दलित लेखक करे, वह विमर्श है?
अगर मैं कहूॅं कि मैनेजर पाण्डेय का सारा
आलोचनात्मक साहित्य विमर्श का साहित्य है, वह आलोचना है ही नहीं, तो तो क्या वे
मानेंगे? धर्मवीर यादव और संजीव चंदन ने डा. मैनेजर
पाण्डेय से एक सवाल हजारीप्रसाद द्विवेदी पर पूछा था। उन्होंने पूछा था कि ‘क्या हजारीप्रसाद द्विवेदी की कबीर पर जो
आलोचना है, उसे इस तरह देखा जाए कि
आचार्य शुक्ल पर उनका ब्राह्मणवाद अधिक हावी था, कबीर द्विवेदी जी की आलोचना-दृष्टि का एक शिफ्ट है?’
इस सवाल के उत्तर में डा. पाण्डेय कहते हैं- ‘रामचन्द्र शुक्ल को ब्राह्मणवादी कहना दलित
दृष्टि से साहित्य पर विचार करना है। अगर आचार्य शुक्ल ब्राह्मणवादी थे, तो जिस जायसी का हिन्दी में कहीं नाम नहीं था,
उसकी सम्पूर्ण ग्रन्थावली को 200 पृष्ठों की भूमिका के साथ क्यों प्रकाशित
करवाते? इसलिए यह कहना मुझे उचित
नहीं जान पड़ता कि शुक्ल जी ब्राह्मणवादी थे।’ यह है वर्गीय आलोचना का फर्क। ब्राह्मण आलोचक को आचार्य
शुक्ल ब्राह्मणवादी नजर नहीं आते हैं, पर दलित आलोचकों को वे ब्राह्मणवादी ही नजर आते हैं। हिन्दी आलोचना
किन्तु-परन्तु से आगे नहीं बढ़ी है। वह सवाल नहीं उठाती है। वह खण्डन नहीं करती
है। वह इतिहास की गहराई में नहीं जाती है, क्योंकि इतिहास से अनभिज्ञ है। इसीलिए उन्हें शुक्ल जी ब्राह्मणवादी नजर नहीं
आते हैं। शुक्ल जी जब ब्राह्मणवादी नहीं थे तो जाहिर है कि वह पाण्डेय जी की नजर
में मानववादी या प्रगतिवादी थे। वे इसका प्रमाण भी देते हंै कि उन्होंने जायसी
ग्रन्थावली का सम्पादन किया था। लेकिन हकीकत यह है कि रामचन्द्र शुक्ल को जायसी
इसलिए पसन्द थे, क्योंकि जायसी ने
तुलसीदास की तरह ही राजा-रानियों के मिथकों पर काव्य-रचना की है और वेद-ब्राह्मण
के चरणों में शीश नवाया है। शुक्ल जी ने खुद अपनी भूमिका में लिखा है कि जो वेद के
मार्ग पर नहीं चलता है, उसे जायसी अच्छा
नहीं समझते। जायसी की वेदों में आस्था थी, इसलिए वह शुक्ल जी को प्रिय थे। पर उन्हें कबीर प्रिय नहीं थे, क्योंकि वह वेद, पुराण और ब्राह्मण तीनों को नकारते थे। अगर मैनेजर पाण्डेय
को शुक्ल जी का यह ब्राह्मणवाद दिखाई नहीं देता, तो इसीलिए कि वर्गीय चेतना से वे ग्रस्त हैं।
मैं हिन्दी के मूर्धन्य आलोचकों से, चाहे वे नामवर सिंह हों, मैनेजर पाण्डेय हों, पूछना चाहता हूॅं कि जब वे आलोचना की दूसरी परम्परा चला
सकते हैं, तो हम तीसरी परम्परा
क्यों नहीं चला सकते? हमारी पहली-दूसरी
दोनों परम्परा की आलोचना से तमाम असहमतियाॅं हैं, जिन्हें हमने अपनी आलोचना में बाकायदा दर्ज किया है,
हमने अपनी आलोचना को इतिहास से जोड़ा है,
जबकि पहली-दूसरी परम्परा के आलोचक इतिहास की
तरफ पीठ किए हुए खड़े हैं। मैं इसका उदाहरण कबीर की आलोचना से देता हूॅं।
हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने कबीर को वेदान्ती, वैष्णवी और रामानन्द का शिष्य सिद्ध करने में हर साधन
अपनाया है, जो इतिहास से परे है।
इसलिए दलित आलोचक उनसे सहमत नहीं हंै। मेरी जानकारी में रामानन्द को कबीर का गुरु
बताए जाने का पहला खण्डन 1942 में डा. राकेश
गुप्त ने ‘सम्मेलन पत्रिका’ में लेख लिखकर किया था। उन्होंने आचार्य शुक्ल
और अयोध्या सिंह हरिऔध की मान्यताओं का जोरदार खण्डन इस लेख में किया था। उस समय
तक द्विवेदी जी की कबीर नहीं आई थी। तब किसी हिन्दी आलोचक ने न उसे विमर्श कहा था
और न उसका विरोध किया था। शायद वह आलोचना उनके वर्ग के भीतर से आई थी। पर जब दलित
आलोचक डा. धर्मवीर ने इस पर विस्तार से काम किया और कबीर के ब्राह्मण आलोचकों की
इतिहास-विरोधी एवं तथ्य-विरोधी आलोचना की चिन्दी-चिन्दी कर दी, तो हल्ला मच गया। उन्हें ब्राह्मणवाद का किला,
जिसे बड़े परिश्रम से द्विवेदी जी ने बनाकर
खड़ा किया था, ढहता हुआ नजर आने
लगा। तब साहित्य की ब्राह्मणवादी लाबी ने दो काम किए। पहला दलित आलोचना को दलित
विमर्श कहना शुरु किया और दूसरा, उस लाबी ने मोटी
रकम देकर द्विवेदी जीे के मण्डन में और धर्मवीर के खण्डन में काम करने के लिए डा.
पुरुषोत्तम अग्रवाल को तैयार किया। उन्होंने डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल को इसलिए यह
काम सौंपा, क्योंकि वह ब्राह्मण नहीं
हैं। जब डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने मिथकीय और अर्नगल प्रलाप के साथ ‘अकथ कहानी प्रेम की’ लिखकर हजारीप्रसाद द्विवेदी की ही लाइन पर, बल्कि उससे भी बढ़कर कबीर को वेदान्ती, वैष्णवभक्त और रामानन्द का शिष्य घोषित कर दिया,
तो तुरन्त ब्राह्मणवादी लाबी ने उसे
विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में लगा दिया। एक सीधा सा तर्क इन आलोचकों की समझ में
नहीं आता कि जो कबीर वेदविरोधी थे, पुराणविरोधी थे,
ब्राह्मणविरोधी थे और सगुणविरोधी थे, वे वेदान्ती, वैष्णवी और रामानन्दी कैसे हो सकते हैं? वे रामानन्द के ऐसे शिष्य को, जो रामानन्द की वेद-वेदान्त, वर्णव्यवस्था और वैष्णवी आस्थाओं का खण्डन कर
रहा था, रामानन्द का जबरदस्ती
शिष्य क्यों बनाने पर तुले हैं?
मैं बहुत ज्यादा न कहकर, अन्त में हिन्दी आलोचकों से कहना चाहता हूॅं कि दलित आलोचना
के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण मत अपनाइए। ये दोहरे-तीहरे मापदण्ड साहित्य का विकास
रोक रहे हैं। यह कहना कि दलित लेखकों के साथ संवाद की गुंजाइश नहीं है, आपके अहंकार को दर्शाता है। आप कहना चाहते हैं
कि साहित्य में सिर्फ आप ही नियामक-नियन्ता हैं, हम केवल आपको फालो करें, तो यह अब नहीं चलेगा।
(13 नवम्बर 2014)
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