गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

 

मुस्लिम आरक्षण और प्रेमचन्द

(कँवल भारती)

          1934 में पहली बार भारत सरकार ने मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों में 25 प्रतिशत आरक्षण की विज्ञप्ति जारी की थी। बस क्या था, प्रेमचंद का हिंदू मन आहत हो गया. जिस राष्ट्रवादी सोच के तहत प्रेमचन्द ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचन के अध्किार का विरोध् किया, उसी सोच के तहत उन्होंने मुसलमानों के आरक्षण का भी विरोध् किया। उन्होंने जुलाई 1934 के हंसमें लिखा: साम्प्रदायिकता के नाम पर, मुसलमानों के लिए पच्चीस प्रति}ात स्थान सुरक्षित कर दिए गए हैं। हमारी समझ में इसका अर्थ यही है कि सरकार हमारी राष्ट्रीय प्रगति को कुचलने का प्रयत्न कर रही है। वह नहीं चाहती कि हममें जीवन आ जाए। इस प्रकार साम्प्रदायिकता का पोषण करके वह हमारी राष्ट्रीयता को हवा में उड़ा देना चाहती है। सरकार का यह रुख बड़ा भयावह है। राष्ट्र के लिए यह कितना खतरनाक सि( होगा, इसकी कल्पना करते ही महान खेद होता है। लेकिन सरकार को इसकी क्या परवाह है? उसे तो राष्ट्रीयता छिÂ-भिÂ करनी है। प्रत्येक समझदार व्यक्ति ने स्पष्ट }ाब्दों में नौकरियों के साम्प्रदायिक विभाजन का विरोध् किया है।

          नौकरियों के साम्प्रदायिक विभाजन का विरोध् करने वाले समझदार राष्ट्रवादी हिन्दू आज भी हैं, जो नौकरियों के जातीय विभाजन का विरोध् कर रहे हैं। और ये समझदार राष्ट्रवादी भला ब्राह्मण के सिवा कौन हो सकते हैं? प्रेमचन्द कितने तुच्छ दिमाग के थे कि मुसलमानों को भारत-राष्ट्र का अंग ही नहीं मान रहे थे! जैसे आज हिन्दुत्ववादी दलितों को भारत-राष्ट्र का अंग नहीं मानते, वरना सुप्रीम कोर्ट पूछता कि उन्हें कितनी पीढ़ियों तक आरक्षण चाहिए? सवाल है कि वह राष्ट्र नीचे कैसे गिर सकता है, जिसके कमजोर वर्ग को वि}ोष प्रावधन से उफपर उठाने की व्यवस्था की जाती है? मुसलमानों के लिए नौकरियों में आरक्षण की विज्ञप्ति 1934 में जारी हुई थी। उस समय तक भारत का विभाजन नहीं हुआ था। मुसलमान भारत-राष्ट्र के ही अंग थे। इसका मतलब यह हुआ कि 1934 तक सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को प्रतिनिध्त्वि प्राप्त नहीं था। दलित और पिछड़ी जातियों को तो }िाक्षित ही नहीं किया गया था। पिफर सरकारी नौकरियों में किनकी इजारेदारी थी। जाहिर है कि ब्राह्मणों, और कुछ कायस्थों की। इसलिए मुसलमानों को 25 प्रति}ात नौकरियाॅं देने से इसी हिन्दू राष्ट्र को खतरा महसूस कर रहा था।

आगे प्रेमचन्द का निहायत बचकाना तर्क देते हैं, जैसे आज भी कुछ छद्म प्रगति}ाील लोग दलितों के आरक्षण के सम्बन्ध् में देते हैंµइसका यह अर्थ नहीं कि हम मुसलमानों की उÂति के विरोध्ी हैं। हमें उनके लिए 25 प्रति}ात स्थानों के सुरक्षित होने पर भी खेद नहीं है, खेद है इस साम्प्रदायिक मनोवृत्ति पर, जिससे राष्ट्रीयता का गला घुट रहा है।  वाह रे, प्रेमचन्द, मुस्लिम-विरोध्ी भी हैं, पर नहीं हैं, बस खेद है कि मुसलमानों को नौकरियाॅं देने से राष्ट्रीयता का गला घुट रहा है। कौन मूर्ख कहेगा कि यह प्रेमचन्द का  मुस्लिम-विरोध्ी वक्तव्य नहीं है? छद्म प्रगति}ाील ऐसे ही बोलते हैं कि हम दलितों के विरोध्ी नहीं हैं, हम दलितों की तरक्की चाहते हैं। पर उनको आरक्षण देने से राष्ट्रीयता का गला घुट रहा है।

 मुसलमानों के सवाल पर प्रेमचन्द आगे और भी घोर सनातनी हिन्दूवादी दृष्टिकोण से लिखते हैंµनौकरियों के इस प्रकार विभाजन से क्या होगा? साम्प्रदायिक द्वेष की मनोवृत्ति पनपनेगी, ध्र्मान्ध्ता बढ़ेगी, हृदय ईष्र्यालु होंगे, योग्यता का मूल्य गिर जायगा। मूल्य रहेगा साम्प्रदायिकता का। उसी का भयानक ताण्डव दृष्टिगोचर होगा, और यह राष्ट्र के लिए कितना घातक हो सकता है, यह किसी भी समझदार व्यक्ति की समझ से बाहर की बात नहीं है। प्रत्येक समझदार व्यक्ति इस दृष्टिकोण का विरोध् करेगा और चाहेगा कि नौकरियाॅं सम्प्रदाय के नाम पर नहीं, योग्यता के नाम पर दी जाएॅं। 

ये ठीक वही तर्क हैं, जो सनातनी हिन्दू और छद्म प्रगति}ाील हिन्दू दलितों के आरक्षण के बारे में आज भी देते हैं। इन तर्को में सबसे बेहूदा तर्क योग्यता का है। यह तर्क इसलिए दिया जाता है, क्योंकि द्विज हिन्दू अपने सिवा किसी अन्य को योग्य मानते ही नहीं, और दलितों को तो बिल्कुल भी नहीं। जब मुलायम सिंह यादव पहली बार उत्तरप्रदे}ा में मुख्यमंत्राी बने थे, तो इन्हीं योग्यहिन्दुओं ने दीवालों पर नारा लिखा थाµअहीर का काम भैंस चराना है, }ाासन करना नहीं।असल में द्विज हिन्दू और खास तौर से ब्राह्मण समझते हैं कि वे योग्य हैं, इसलिए }ाासन-प्र}ाासन और न्यायपालिका में मुख्य हैं। पर यह सच नहीं है, सच यह है कि सत्ता उनको चाहती है, इसलिए वे हर जगह हैं। चूॅंकि सत्ता उन्हीं के हाथों में है, इसलिए योग्य-अयोग्य का पैमाना भी उन्हीं के हाथों में है। 

 

 

 

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