गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

राष्ट्र निर्माण का आधार और हिन्दी
(कँवल भारती)
डा. आंबेडकर का मत था कि भारत एक राष्ट्र नहीं है, पर वह एक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है. लेकिन काश ऐसा होता! सच यह है कि अभी तक यह प्रक्रिया अमल में ही नहीं आ पाई है. भारत के लोगों को जिस एक सूत्र से बांधा जा सकता है, वह भारतीयता है. पर लोगों के जहनों में भारतीयता का नम्बर तीसरा है. पहला नम्बर उनकी जाति का है, और दूसरा नम्बर उनके धर्म का है. देश इसके बाद में आता है. किसी से भी यह पूछ कर देखिये कि आप कौन लोग हैं? उसका जवाब होगा—हम अग्रवाल हैं, ठाकुर हैं, ब्राह्मण हैं. वह यह भी नहीं कहेगा कि हम हिन्दू हैं. भारतीय कहने का तो खैर उसमें अभी भाव ही विकसित नहीं हो पाया है. वह अपने को पंजाबी कहेगा, बंगाली कहेगा, मराठा कहेगा, बिहारी कहेगा, तमिल, उड़िया, मलियाली और जाने क्या-क्या कहेगा, पर भारतीय नहीं कहेगा. इसलिए एक राष्ट्र के निर्माण में जो भूमिका भारतीयता की हो सकती थी, वह भी नहीं है. भारत के लोगों को जोड़ने की दूसरी प्रक्रिया एक समान भाषा और संस्कृति की है. पर सच यह है कि भारत में एक संस्कृति नहीं है, अनेक संस्कृतियाँ हैं. अनेक पोशाकें हैं, अनेक धर्म हैं और अनेक पर्सोनल कानून हैं. इसलिए संस्कृति के आधार पर भी भारत एक राष्ट्र नहीं है. क्या यह आधार जाति बन सकती है? बन सकती है. पर क्या भारत में एक जाति के लोग हैं? हजारों जातियों और कबीलों में बंटा हुआ भारत क्या एक राष्ट्र हो सकता है? फिर पता नहीं, किस आधार पर राष्ट्रवाद की धुन गाई जा रही है?
इस संबंध में भाषाई राज्यों के सवाल पर विचार करते हुए डा. आंबेडकर ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही थी, जो भारत को एक राष्ट्र बनाने की एक सरल प्रक्रिया हो सकती है. उन्होंने कहा था— “एक भाषा ही लोगों को जोड़ सकती है, जबकि दो भाषाएँ निश्चित रूप से लोगों को विभाजित करती हैं. यह एक अटल नियम है. भाषा ही संस्कृति को सुरक्षित रखती है. चूँकि, भारतीय एक समान संस्कृति से जुड़ना और विकसित होना चाहते हैं, इसलिए सभी भारतीयों का परम कर्तव्य है कि वे हिन्दी को ही अपनी भाषा के रूप में स्वीकार करें.”
संविधान सभा में बहुमत से संस्कृत का प्रस्ताव गिरने के बाद डा. आंबेडकर ने हिन्दी को सम्पूर्ण देश की राजभाषा बनाने पर जोर दिया था. उन्होंने अंग्रेजी को केवल पन्द्रह सालों की अवधि तक ही बनाए रखने की वकालत की थी, जिसे भारत के हिन्दू शासक अभी तक बनाए हुए हैं. लेकिन डा. अम्बेडकर का मत था कि “राष्ट्रीय एकता के लिए जिस एक भाषा की जरूरत है, वह हिन्दी ही हो सकती है.” उन्होंने कहा था, “जो हिन्दी का विरोध करता है, वह असल में भारतीय ही नहीं है. वह शतप्रतिशत महाराष्ट्रियन हो सकता है, शतप्रतिशत तमिल हो सकता है, शतप्रतिशत गुजराती हो सकता है, किन्तु वह भौगोलिक आधार को छोड़कर सही अर्थों में भारतीय नहीं हो सकता.”
1049 और 50 के समय में भारत की राजनैतिक स्थिति यह थी कि पूरा वातावरण ही हिन्दी को राजभाषा बनाये जाने के विरुद्ध था. यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी में भी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार करने के प्रश्न पर भारत के संविधान के प्रारूप पर विचार करते समय पूर्ण सहमति नहीं थी और सभी 78 सदस्यों ने हिन्दी के विरोध में मतदान किया था. उसके काफी लम्बे अरसे के बाद जब भाषा के प्रश्न पर पुनः कांग्रेस की बैठक में मतदान हुआ था, तो 78 में से 77 सदस्यों ने हिन्दी के विरुद्ध मतदान किया था. इसका कारण इसके सिवा और क्या हो सकता है कि कांग्रेस के वे इलीट नेता अपने वर्चस्व के लिए हिन्दी को खतरा मानते थे? सी. राजगोपालाचारी ने तो डा. आंबेडकर से यहाँ तक कह दिया था कि “आप एक संघ बनाकर बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं. इससे तो भारत का राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हमेशा हिन्दी भाषी क्षेत्रों से ही बनता रहेगा. आपको दो संघ बनाने चाहिए—एक उत्तर के लिए और दूसरा दक्षिण के लिए.”
किन्तु डा. आंबेडकर राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से दो संघों के सिद्धांत को खतरनाक मानते थे. उनके अनुसार, एक संघ और एक भाषा का सिद्धांत ही भारत को एक राष्ट्र बनाने की श्रेष्ठ प्रक्रिया हो सकता है. उन्होंने कहा था, “संविधान में यह व्यवस्था होनी चाहिए कि हर राज्य की सरकारी भाषा वही हो, जो केन्द्र सरकार की हो, और यह भाषा हिन्दी होनी चाहिए.”
लेकिन भारत के इलीट शासकों ने भारत को एक राष्ट्र बनाने की इस प्रक्रिया को भी नष्ट कर दिया.

(यह लेख मेरी किताब “डा. आंबेडकर : एक पुनर्मूल्यांकन”, (1997) में देखा जा सकता है)

1 टिप्पणी:

Yogendra Dhirhe ने कहा…

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