महेश राही : एक परिचय
कंवल भारती
बदायूँ
से, पाँच लोगों ने रामपुर में आकर, हिन्दी साहित्य
में दस्तक दी थी। ये लोग यहाँ अपनी पहली नौकरी पर आए थे। ये थे- (1) रमेश
शेखर, जो पूर्ति विभाग में निरीक्षक बनकर आए थे, (2) छोटेलाल शर्मा ‘नागेन्द्र’,
(3) वाचस्पति
मिश्र ‘अशेष’, (4) नरेन्द्रस्वरूप सक्सेना ‘विमल’,
इन
तीनों ने जैन इण्टर कालेज में क्रमशः अंग्रेजी और हिन्दी के प्रवक्ता पद पर योगदान
दिया था, और (5) महेश राही ने कलेक्ट्रेट में लिपिक की नौकरी
पाई थी। आज ये पाँचों लोग इस संसार में नहीं है। रमेश शेखर कुछ वर्ष रामपुर में
रहकर बिजनौर स्थानान्तरित हो गए थे, और शायद कुछी साल बाद उनका निधन हो गया
था। छोटेलाल शर्मा ‘नागेन्द्र’ की मृत्यु,
उनकी
सेवा-निवृत्ति के बाद, बरेली में, उनकी बेटी के घर
पर हुई थी। वाचस्पति मिश्र ‘अशेष’ का निधन,
रामपुर
में ही, राजद्वारा के उस घर में हुआ, जिसमें वह किराए पर रहते थे।
नरेन्द्रस्वरूप सक्सेना ‘विमल’ सेवा-निवृत्ति
के बाद, नोएडा में, अपने बेटे के पास चले गए थे, और
सम्भवतः वहीं पर उनका देहान्त हुआ। महेश राही ने रामपुर में ही एकता विहार में,
अपना
मकान बनवा लिया था और इसी मकान में उन्होंने 14 नवम्बर 2015 को
अन्तिम सांस ली।
मैं
1970 के दशक की बात कर रहा हूँ। अभी नई कविता का दौर शुरु नहीं हुआ था।
मैं उस समय हाई स्कूल का विद्यार्थी था, और तुकबन्दी की कविता लिखना सीख रहा
था। रामपुर में, हिन्दी में कविवर कल्याणकुमार जैन ‘शशि’
की
कविता की धूम थी। वे पेशे से वैद्य थे, पर कविता का पूरा स्कूल थे, जिसमें
अनेक शिष्य उनसे कविता लिखना सीखते थे। उन्हीं दिनों रमेश शेखर ने दस्तक दी और
रामपुर में कविता का वातावरण गरम हो गया। वह मुक्तक विधा में सिद्धहस्त थे। 1961
में उनका खण्डकाव्य ‘रूपमती’ छप चुका था,
जिसमें उसकी प्रशंसा में, मैथिलीशरण गुप्त,
सोहनलाल
द्विवेदी, डा. रामकुमार वर्मा, द्विजेन्द्रनाथ मिश्र ‘निर्गुण’
जैसे
अनेक बड़े लेखकों की टिप्पणियाँ थीं। 1977 में बिजनौर से उनका गीतसंग्रह ‘लिखा
तुम्हारे लिए’ प्रकाशित हुआ था। अभी तक कल्याणकुमार जैन ‘शशि’
को
छोड़कर इस स्तर का कोई कवि रामपुर में नहीं था, तथापि, रमेश
शेखर की चुनौती शशिजी के लिए भारी थी। शायद यह चुनौती ही थी, जो
शशिजी ने मुक्तक विधा में सृजन आरम्भ किया, और परिणामतः कई
साल बाद ‘खराद’ शीर्षक से उनका मुक्तक संग्रह हमें मिला। बकौल
रमेश शेखर इस संग्रह के बहुत से मुक्तकों में उन्होंने संशोधन किया था।
छोटेलाल
शर्मा ‘नागेन्द्र’ अनियतकालीन पत्रिका ‘विश्वास’
निकालते
थे, पर वह मुलतः कवि थे। कविता में उनकी एक दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें
प्रकाशित हुईं। प्रकाशक भी वह स्वयं ही थे। नरेन्द्रस्वरूप सक्सेना ‘विमल’
भी
कवि थे और अच्छे कवियों में शुमार थे। उन्होंने रावण पर खण्ड काव्य ‘लंकेश’
और
जयप्रकाश नारायण के जीवन पर महाकाव्य ‘लोकनायक’ लिखा था।
वाचस्पति मिश्र ‘अशेष’ भी कवि थे, पर वह नए मिजाज
और नई कविता के सर्जक थे। उनका एक मात्र कविता संकलन ‘बहुत देर बाद’
का
विमोचन रामपुर में ही 2005 में नामवर सिंह ने किया था। महेश राही
कवि होने के साथ-साथ कहानीकार और उपन्यासकार भी थे। उनका एक कविता-संग्रह, एक
कहानी-संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुका है। वे ‘परिवेश’ पत्रिका के सह-सम्पादक भी थे।
लेकिन
इन पाँचों लेखकों का यह दुर्भाग्य रहा कि इनमें से किसी के भी लेखन ने रामपुर की
सीमा नहीं तोड़ी। इनकी सारी ख्याति रामपुर की सीमा में ही रही। हिन्दी साहित्य की
व्यापक धारा में इनमें से कोई हलचल नहीं कर सका। इनकी एक भी कृति की मुख्यधारा के
साहित्य में चर्चा नहीं हुई।
महेश
राही ने आखों से कम दिखने के कारण कई सालों से लिखना और पढ़ना लगभग दोनों काम पूरी
तरह बन्द कर दिए थे। हालांकि 1978 में वह तब चर्चा में आए थे, जब ‘परिवेश-9’
में
प्रकाशित उनकी कहानी ‘आखिरी जवाब’ पर धारा 153 के
तहत उन्हें रामपुर में गिरफ्तार किया गया था। उन दिनों ‘परिवेश’ के
सम्पादक काशीनाथ सिंह और कुमार सम्भव थे। आजकल मूलचन्द गौतम हैं। उस कहानी में
वाल्मीकि समुदाय की सलौनी की माँ के मुंह से कहलवाया गया है कि हमारी औरतें इस शहर
में जमाने से ही मुसलमानों की टांगों के नीचे रही हैं। यह पत्रिका किसी तरह रामपुर
के दलित नेता रामजी लाल के हाथ में आई और उन्होंने उस कहानी को पढ़कर वाल्मीकि
समुदाय के कुछ लोगों के साथ बैठक की। बैठक में कहानी के लेखक और पत्रिका के
सम्पादकों के विरुद्ध पुलिस स्टेशन में एफआईआर
दर्ज कराने का निर्णय लिया गया। लोगों ने यह जिम्मेदारी रामजी लाल और रमेश प्रभाकर
को सौंपी। रामजी लाल जाटव जाति से थे, जो जुझारू नेता होने के साथ-साथ
पत्रकार भी थे- साप्ताहिक अखबार ‘दुर्बल की आवाज’ निकालते थे।
रमेश प्रभाकर और मैं गहरे दोस्त थे। रामजी लाल ने एफआईआर में गवाह के रूप में हम
दोनों का ही नाम लिखा दिया। हमने दस्तखत भी कर दिए थे। शहर में वाल्मीकियों का एक
लम्बा जुलूस निकला, जिसका नेतृत्व रामजी लाल, हरिसेवक
विशारद और बांके लाल जी के हाथों में था। इस जुलूस में शहर के कुछ मुस्लिम नेता भी
शामिल हो गए थे। इससे मामला और भी ज्यादा सम्वेदनशील हो गया था। उस वक्त शहर
कोतवाल कोई त्यागी था। उसने रामजीलाल, रमेश प्रभाकर और मुझे कोतवाली बुलाकर
सूचना दी कि महेश राही को गिरफ्तार कर लिया गया है। हमने देखा, महेश
राही हवालात के कमरे में फर्श पर नीचे बैठे हुए थे। उन्हें वहाँ देखकर मुझे बहुत
बेचैनी हुई, मेरा कलेजा मुंह को आ गया था। मुझे और प्रभाकर
दोनों को ही इससे कोई खुशी नहीं हो रही थी, पर हम विवश थे,
वाल्मीकि
समाज में बहुत रोष था, मारपीट आदि का कोई मामला होता, तो
देखा जाता, लेकिन यह उनकी अस्मिता पर आघात का मामला था।
उसे शान्त करना कम-से-कम मेरे और प्रभाकर के लिए तो मुश्किल ही था।
इस
घटना ने हिन्दी के साहित्कारों और पत्र-पत्रिकाओं के बीच महेश राही को चर्चित कर
दिया था। चूँकि ‘परिवेश’ के सम्पादक
काशीनाथ सिंह और कुमार सम्भव भी मुकदमें में प्रतिपक्षी थे, जिन्हें रामपुर
में जमानतें करानी पड़ी थीं, और काशीनाथ सिंह का नाम हिन्दी जगत में
सुप्रसिद्ध था, इसलिए, इस घटना की व्यापक निन्दा होनी ही थी।
सर्वप्रथम ‘दिनमान’ ने 1-7
अक्टूबर 1978 के अंक में ‘चरचे और चरखे’
स्तम्भ
के अन्तर्गत ‘अश्लीलता कहाँ है’ शीर्षक से
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की टिप्पणी प्रकाशित की, जिसके क्रम में
कई और लेखकों की टिप्पणियाँ और जिलों से
लेखकों के संयुक्त हस्ताक्षर वाले पत्र प्रकाशित हुए। महेश राही ने भी अपनी आपबीती
लिखकर अनेक लेखकों को भेजी थी, जिसें प्रयुत्तर में उपेन्द्रनाथ अश्क,
विष्णु
प्रभाकर, श्रीलाल शुक्ल, लक्ष्मीधर मालवीय, अमृतलाल
नागर, बच्चन, भीष्म साहनी, आलम शाह खान,
माधव
मधुकर और सुरेन्द्र सुकुमार आदि लेखकों ने अपनी सम्वेदना के पत्र उन्हे भेजे थे।
बहरहाल, यह मुकदमा लम्बा नहीं चला था, शासन द्वारा
मुकदमा चलाए जाने की स्वीकृति नहीं मिलने और रमेश प्रभाकर और मेरी गवाहियाँ महेश
राही और कुमार सम्भव के समर्थन में होने के कारण मुख्य जुडिशियल मजिस्ट्रेट,
रामपुर
ने 16 जनवरी 1979 को महेश राही को आरोपों से मुक्त कर
दिया था।
लेकिन
इस एक घटना ने महेश राही और मेरे बीच तल्ख्यियाँ और दूरियाँ दोनों पैदा कर दी थीं। बाद में दूरियाॅ ंतो काफी
हद तक समाप्त हो गईं थीं, मिलना-जुलना, बातचीत और
एक-दूसरे के घर आना-जाना आरम्भ हो गया था; वह मेरे बड़े बेटे की शादी में भी आए
थे और रस-रंजन भी हम एक-दूसरे के घर जाकर कर लेते थे। रामपुर में कई साहित्यिक योजनाएं
भी हमने साथ-साथ बनाई थीं। ‘परिवेश’ के रामपुर में
आयोजित कई कार्यक्रमों में भी उन्होंने मुझे बुलाया था। जब रामपुर के निराला कहे
जाने वाले सुप्रसिद्ध कवि मुन्नूलाल शर्मा का 16 जून 2004 को
निधन हुआ, तो उनकी स्मृति में एक पुस्तिका का प्रकाशन और सभा का आयोजन भी हम
दोनों ने अपने संयुक्त प्रयास से ही किया था। जब रामपुर में प्रगतिशील लेखक संघ की
स्थापना हुई, तो वह सर्वसम्मति से उसके अध्यक्ष चुने गए थे।
बाद में महेश राही ने मुझे भी उसका सचिव नियुक्त कर दिया था।
15
जुलाई 2010 को रामपुर में प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सचिव, कवि,
महेश
राही के हमशहरी और मेरे अभिन्न मित्र और पारिवारिक सदस्य वाचस्पति मिश्र ‘अशेष’
का
जब लम्बी बीमारी के बाद निधन हुआ, तो उनकी स्मृति में भी श्रृद्धांजलि
पुस्तिका के सम्पादन और मुद्रण की सारी जिम्मेदारी भी मैंने और महेश राही ने ही
मिलकर निभाई थी।
किन्तु,
6
अगस्त 2013 को जब मेरे फेसबुक कमेण्ट पर मेरी गिरफ्तारी हुई, तो
यह मेरे साथ वैसा ही हादसा था, जैसाकि 1978 में महेश राही
के साथ हुआ था। मेरी गिरफ्तारी भी उतनी ही अपमानजनक थी, जितनी 35
वर्ष पूर्व उनकी गिरफ्तारी थी। इस घटना से उन्हें अपनी गिरफ्तारी, और
उसमें मेरी भूमिका याद आ गई थी, और वह पीड़ा, जो उनके भीतर
दबी हुई थी, उभर आई थी। उसके बाद से ही उनका व्यवहार मेरे
प्रति बदल-सा गया था। इस बीच जितने भी साहित्य के कार्यक्रम रामपुर में उनके
द्वारा आयोजित किए गए, उनमें किसी में भी उन्होंने मुझे नहीं बुलाया
था। शैलेन्द्र सागर की आख्यान-पुस्तक ‘रहगुजर’ के
विमोचन-कार्यक्रम में भी, जो रामपुर में उन्हीं के सहयोग से हुआ
था, मुझे नहीं बुलाया गया। उस कार्यक्रम की खबर अखबार में पढ़कर, मैंने
शैलेन्द्रजी को फोन किया। यह जानकर उन्हें बहुत हैरानी हुई कि मुझे उनकी किताब
नहीं मिली। उन्होंने बताया कि किताब उन्होंने मुझे देने के लिए महेश राही को दे दी
थी। उसी समय मैंने महेश राही को फोन किया और किताब के बारे में बात की। वह बिल्कुल
भी नहीं घबराए, वरन् आराम से बोले, ‘किताब रखी हुई
है, मेरा आना नहीं हो पा रहा है। तुम जब चाहो आकर ले जाना। कार्यक्रम में
इसलिए नहीं बुलाया, क्योंकि कुछ लोग तुम्हें बुलाना नहीं चाहते थे।’
मैंने
पूछा, वे कुछ लोग कौन हैं? कहीं तुम खुद तो नहीं हो?’ बोले,
‘अरे
नहीं। जब तुम घर आओगे, तो बताऊंगा।’ इसके एकाध महीने
बाद, कवि, कथाकार और उपन्यासकार, वयोवृद्ध ईश्वर
शरण सिंहल का निधन हो गया। उसकी सूचना भी उन्होंनें मुझे नहीं दी। मृत्यु के दूसरे
दिन, अखबार में खबर पढ़कर, जब मै शोक व्यक्त करने उनके निवास पर
गया, तो महेश राही मुझे वहीं मिल गए। शोक के बाद जब मैं उठा, तो
वह भी खड़े हो गए, बोले, चलो, ‘मैं तुम्हें
किताब दे दूॅं।’ उसी कालोनी में एक छोर पर उनका मकान था। एक
सज्जन और थे, वह भी हमारे साथ चलने लगे। रास्ते में उन्होंने
मुझे सफाई देनी शुरु की- ‘प्रलेस की ओर से हम तुम्हारी गिरफ्तारी
के विरोध में बयान देना चाहते थे, पर लोग तैयार नहीं हुए, कहने
लगे कि 1978 में इसी ने तुम्हें गिरफ्तार करवाया था,
अब
उसका पक्ष क्यों ले रहे हो?‘ मैं जानता था कि यह लोग नहीं, बल्कि
खुद महेश राही बोल रहे थे। फिर भी मैंने कहा, ठीक ही तो है।
कुछ ही देर में उनका घर आ गया। घर पर उन्होंने नमकीन के साथ चाय पिलवाई, इसी
बीच उन्होंने मुझे शैलेन्द्र सागर की किताब दी, और उसी समय
नमस्कार करके मैं चला आया।
ईश्वर शरण सिंहल के डाक्टर पुत्र आलोक
उनकी स्मृति में एक स्मारिका निकालना चाहते थे, जिसका काम,
जाहिर
है, महेश राही को ही करना था। स्मारिका के लिए लेख लिखने के लिए डा. आलोक भी मुझसे कह चुके थे। पर महेश राही ने
मुझसे बिल्कुल नहीं कहा, जबकि ईश्वर शरण सिंहल के साथ मेरे
सम्बन्ध महेश राही से भी ज्यादा आत्मीय और पुराने थे। वे मेरे गुरु भी थे, और
एक समय मैं और वे सुबह की सैर साथ-साथ करते थे, मेलों में
साथ-साथ जाते थे और सिनेमा साथ-साथ देखते थे। उस दौर में हमारी तिकड़ी मशहूर थी,
जिसमें
तीसरे राधाकृष्ण सक्सेना ‘सुमन’ होते थे। खैर,
एक
दिन, महेश राही मुझे सड़क पर मिल गए। मैंने पूछा, ‘कहाँ’ से आ रहे
हो?’ कहने लगे, ‘शंकर प्रेस से स्मारिका के प्रूफ लेकर
आ रहा हूँ।’ मैंने कहा, ‘स्मारिका का काम
शुरु हो गया? और मुझे तुमने बताया भी नहीं।’ अ
बवह फॅंस गए थे। बोले, ‘मैंने तुम्हें कई फोन किए, तुम्हारा
फोन ही नहीं उठा।’ ‘तब तुम घर आ जाते’, मैंने कहा। फिर बोले,
‘बिना
तुम्हारे स्मारिका नहीं छपेगी। तुम दो-चार दिन में लिख कर दे दो, या
प्रेस में पहुंचा दो।’ खैर, मैंने अपना लेख लिखकर उन्हें घर पर
जाकर सुनाया। सुनकर बोले, ’यार, यह तो नई
जानकारी वाला लेख है, बहुत अच्छा है।’ इस
तरह, स्मारिका में मेरा यह लेख अन्त में
छपा।
ईश्वर
शरण सिंहल के निवास पर तीन लोग शाम को नित्य नियम से बैठकी करते थे- बी. एस.
भटनागर, ऋषिकुमार चतुर्वेदी और महेश राही। कभी-कभार मैं भी शामिल हो जाता था,
लेकिन
बहुत कम। बाद में बी. एस. भटनागर के बाद ऋषिकुमार चतुर्वेदी का जाना भी अस्वस्थता
के कारण कम हो गया था। परन्तु महेश राही का क्रम नहीं टूटा था। वह रोज ही शाम को वहाँ
जाते और एक घण्टा बैठकर आते थे। यह उनके
रोज का नियम बन गया था और एक तरह से उनके लिए भी वह उनके अनिवार्य सदस्य थे। यही
कारण था कि ईश्वर शरण सिंहल के सुपुत्र, जानेमाने हृदयरोग विशेषज्ञ डा. आलोक
सिंहल उन्हें चाचाजी कहते थे, और वह ही उनका इलाज भी कर रहे थे।
मार्च 2014 में उनके साहित्यकार पिता की मृत्यु के बाद से महेश राही अकेले पड़
गए थे, क्योंकि उनकी पत्नी सरला उनसे पहले ही जा चुकी थीं। उनका बड़ा पुत्र
सम्भवतः अहमदाबाद में बैंक में अधिकारी है। वह उसके पास जाने को कह भी रहे थे,
पर
नियति को यह कहाँ स्वीकार था? और
डा. आलोक को भी यह कहाॅं पता था कि डेढ़ साल के भीतर ही वह अपने चाचा से भी वंचित
हो जाएंगे।
महेश
राही का यूँ अचानक जाना मेरे लिए भी एक व्यक्तिगत क्षति है। उनके साथ वाद-विवाद-सम्वाद
पर हमेशा के लिए विराम लग गया है। रामपुर में ले-देकर एक वही लेखक थे, जो
प्रगतिशील लेखक संघ सूत्रधार बने हुए थे। अब यह सूत्रधार भी नहीं रहा। सचमुच
रामपुर के हिन्दी जगत के लिए यह बहुत बड़ा आघात है।
(18 नवम्बर 2015)
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