शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

दलित अस्मिता का अर्थ
(कॅंवल भारती)
सब जानते हैं कि भारत की राजनीति जाति-आधारित हैं। फिर भी सोशल मीडिया पर कुछ नासमझों द्वारा यह प्रचार किया जा रहा है कि ‘दलित’ शब्द हम जैसे दलित चिंतकों की वजह से चल रहा है. यानि, वे लोग  दलितवाद और दलित पहिचान की राजनीति के लिए हमें जिम्मेवार मानते हैं. क्या यह सच है? क्या दलित पहिचान हमने बनाई और हम इसे कायम रखना चाहते हैं?
सच जानने के लिए पहले इस सवाल पर विचार कर लिया जाय कि भारत में ऐसे लोगों के अस्तित्व के बारे में चर्चा क्यों नहीं होती, जिन्हें अछूतहोने की पहिचान दी गई? एक विशाल मानव समाज को, अछूत बनाने की नीति कब और किसने बनाई? वे सामान्य मनुष्यों की तरह ही मनुष्य थे। फिर उन्हें अन्य मनुष्यों से भिन्न करने की पहचान किसने बनाई? बाकायदा इस भिन्न पहिचान के लिए एक संहिता किसने गढ़ी गई? उनके आवासों की दक्षिण दिशा किसने तय की गई, जिसके कारण वे दक्षिण में रहने वाले अछूत कहलाये गये? जाहिर है कि पहली पहिचान उनकी आवास की बनाई गई। अकेली इसी एक पहिचान ने मनुष्यों-मनुष्यों के बीच अलगाव पैदा कर दिया। एक विशाल आबादी दक्षिण टोले की अछूत आबादी बन गई। यह पहिचान यहीं खत्म नहीं हुई। इसके बाद,  हर युग में उनकी नई-नई पहिचान दी गईं। उनके घरों की पहिचान भी दी गई कि वे छत नहीं डालेंगे। उनके रहन-सहन की भी पहिचान बनाई गई, जैसे, वे अपने बच्चों को पढ़ाएंगे नहीं, साफ कपड़े नहीं पहिनेंगे, घुटनों से नीचे धोती नहीं पहिनेंगे, उनकी स्त्रियां आभूषण नहीं पहिनेंगी, बारात में उनका दूल्हा घोड़ी पर नहीं चढ़ेगा। खाने-पीने की पहिचान बनाई गई- घी नहीं खायेंगे, सिर्फ मोटा अनाज खायेंगे और जूठन खायेंगे। चलने-फिरने की पहिचान बनाई गई- नंगे पैर चलेंगे, गले में हाँडी और कमर में झाड़ू बांधकर चलेंगे और हो-हो करके आवाज लगाते हुए चलेंगे। जीविका की भी पहिचान बनाई गई कि गन्दे काम करेंगे, मरे हुए जानवर उठाकर फेंकेंगे। इन तमाम प्रतिबन्धों से इस देश के करोड़ों मनुष्यों की पहिचान एक अछूत और अपवित्र वर्ग के रूप में बना दी गई। पहिचान की यह राज-नीति किसने खेली? इसका इतिहास कितना पुराना है। अफसोस! इन सवालों पर कोई बात करना नहीं चाहता, क्योंकि यह इतिहास उनकी चिन्ता का विषय ही नहीं है।
इसी अछूत पहिचान ने शेष समाज में उनके प्रति घृणा और तिरस्कार की भावना पैदा की. इसी बिना पर उन्हें भद्र समाज के बीच रहने योग्य नहीं समझा गया। स्वतन्त्र भारत के संविधान ने जब उन पर लादी गई अस्पृश्यता समाप्त कर उन्हें समान मानवाधिकार प्रदान किए, तो सवर्ण मानसिकता उसे अपनी धर्म-संहिता में हस्तक्षेप मानकर उसे आज भी समाज में स्वीकार नहीं करती। इसीलिए, स्कूलों में उनके बच्चों के साथ बदसलूकी, उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार और उनकी स्वतन्त्रता को कुचलने के लिए उन पर हर तरह के जुल्म किये जाते,  जहाँ  तक कि उन्हें मौत के घाट उतारने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता है। इस सबके मूल में वही जातीय पहिचान है, जो इस तरह गढ़ी गई है कि मनुष्य के रूप में उनका कोई मूल्य ही नहीं है।
हिन्दू समाज में दलितों की इस अत्यन्त घृणास्पद अछूत-पहिचान को पहली बार डा. आंबेडकर ने विश्व-मंच पर प्रदर्शित किया था, जिसने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन को हिला दिया था। उन्होंने अछूतों को डिप्रेस्ड क्लास कहा था, जो हिंदी में दलित वर्ग बना. भारत के राजनीतिक मंच पर यह वह महाविस्फोट था, जिसकी कल्पना भी हिन्दू नेताओं और धर्मध्वजियों ने नहीं की थी। इसी महाविस्फोट ने भारत की राजनीति में दलित वर्गों को तीसरा पक्ष माना गया था और उनके सम्मान तथा अधिकारों की सुरक्षा की गारन्टी दी गई थी। यहीं से भारत में दलित वर्गों की राजनीति का आरम्भ हुआ, जिसे दलित अस्मिता की राजनीति भी कहा जाता है। स्वतन्त्रता के बाद, जिस तरह भारत की शासन सत्ता हिन्दुओं के हाथों में आई, क्या उससे यह कल्पना की जा सकती थी कि अगर दलित अस्मिता का राजनीतिक दबाव नहीं होता, तो वे दलित वर्गों के लिए उन अधिकारों को स्वीकार करते, जिनके वे मनुष्य होने के नाते हकदार थे, और नहीं दिए गये थे? लेकिन, इसे हम क्या कहें, कि हिन्दुओं की आज की पीढ़ी दलितों को संविधान द्वारा दिए गए आरक्षण का विरोध कर रही है। क्यों? क्या इसका कारण यही नहीं है कि वे दलित जातियों को उसी अछूत पहिचान में देखना चाहते हैं, जो उन्हें उनके पूर्वजों ने बनाई थी। 
दलित वर्गों की यह यह राजनीति 1970 के दशक तक चली, और अगर भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के नेता कांग्रेस के जाल में नहीं फॅंसते, तो वह भारतीय राजनीति में न केवल मजबूत होती, बल्कि आज  निर्णायक स्थिति में भी होती। रिपब्लिकन पार्टी के विघटन के बाद कांशीराम का उदय हुआ, और उन्होंने वर्ग की राजनीति को जाति की राजनीति में बदल दिया।
उनकी चिन्ता का विषय यह है कि भारत के अछूत और अपवित्र बना दिए गए वंचित लोग दलित वर्ग के रूप में अपनी पहिचान क्यों बना रहे हैं? आज अगर वे अपनी अछूत पहिचान से निकल कर, जिसने उनकी मानवीयता, नैसर्गिक स्वतन्त्रता और स्वाभाविक प्रगति रोक दी थी, अपने विकास के लिए संगठित होकर संघर्ष कर रहे हैं, तो अब उन्हें यह जाति की राजनीति क्यों लग रही है?
यह बात जरूर मानी जा सकती है कि दलित-राजनीति में अलग-अलग जातियों की भागीदारी वाली राजनीति ने दलित राजनीति को भटकाने का काम किया है और उसके लक्ष्य को संकुचित बना दिया है। परन्तु, इसका मतलब सिर्फ इतना है कि दलित राजनीति कुछ विचारहीन अवसरवादी दलित नेताओं की महत्वांकांक्षाओं की भेंट चढ़ गई है। इसलिए, दलित राजनीति का मूल्यांकन कुछ पथ-भ्रष्ट दलित नेताओं को देखकर नहीं किया जा सकता। इसे दलित अस्मिता के नजरिए से देखा जाना चाहिए।
(18 सितम्बर 2015)


1 टिप्पणी:

Rajhans ने कहा…

विश्व साहित्य में आजकल केवल दो ही चेतनाओं की बात प्रमुख रूप से कहीं और लिखी जाती है ।
नारी चेतना और दलित चेतना ।
आपको
खूब खूब अभिनन्दन ।