सोमवार, 8 दिसंबर 2014

क्या जनता जागरूक हो रही है?
(कॅंवल भारती)
एक तन्त्र के रूप में पिछले पचास सालों में धर्म का दायरा जितना अधिक बढ़ा है, उतना ही अधिक उस तन्त्र से लोगों का मोह भंग भी हुआ है। सबसे पहले बात उन तन्त्रों पर, जो दलित वर्गों के बीच तेजी से विकसित हुए। अतीत में जितने भी सन्त दलितों में हुए, उन सभी के नाम से नए-नए सन्त पैदा हो गए और रातों-रात उनके विशाल काय आश्रम भी खड़े हो गए। मेहनत कश गरीब लोग अपनी गरीबी और अशिक्षा वश मुक्ति के लिए उनके आश्रमों में जाते हैं और शोषण के जाल में फॅंस जाते हैं। वे तथाकथित स्वयंभू सन्त उनकी अशिक्षा और गरीबी का फायदा उठाते हैं, जिससे उन्हें श्रद्धा और चढ़ावा के साथ-साथ भोग के लिए सुन्दर औरतें भी मिलती हैं। वे इस ब्रह्मजाल से इतना अकूत धन इकट्ठा करते हैं कि उनकी कई पीढि़याॅं तर जाती हैं। फिर वे अपनी जान, अपने माल और अपने ब्रह्मजाल की सुरक्षा के लिए हथियार खरीदते हैं और अपनी सेना खड़ी करते हैं। वे लक्जरी गाडि़यों में चलते हैं और विलासिता का जीवन जीते हैं। सुरक्षा ऐसी कड़ी बनाते हैं कि परिन्दा भी सीधे उन तक नहीं पहुॅंच सकता। उनके अपार अंधभक्त श्रद्धालुओं की भीड़ को देखकर राजनीतिक दलों के नेता भी चुनावों में उनका ‘आशीर्वाद’ लेने पहुॅंचते हैं, और यहीं से शुरु होता है उन्हें ‘मानवेत्तर प्राणी का ‘विशेष’ दर्जा मिलने का सिलसिला। फिर उनके गन्दे पाॅव जमीन पर नहीं पड़ते। जब प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री और मन्त्रियों से लेकर बड़े-बड़े उच्च अधिकारियों तक उनके आश्रम में शीश नवा रहे हैं, तो स्वम्भू सन्त का भी फायदा और नेताओं का भी फायदा; और अंधभक्त श्रद्धालु तब और भी उनके मुरीद हो जाते हैं। वे समझते हैं, जब इतने बड़े-बड़े लोग बाबाजी के आगे नतमस्तक हैं, तो बाबा सचमुच बड़े पहुॅंचे हुए सन्त हैं। पर, इस हकीकत को सिर्फ नेता ही जानता है कि वे कोई सन्त-वन्त नहीं हैं, सब धर्मभीरुता का खेल है। लेकिन कानून पता नहीं, कहाॅं से बीच में आ गया, जो उन्हें दो कौड़ी का भी नहीं समझता। वह उन्हें और आम आदमी दोनों को एक ही नजर से देखता है। बेचारे जेल में बन्द आसाराम और अब सन्त रामपाल, मुझे पक्का यकीन है, कानून को ही कोस रहे होंगे।
स्वम्भू रामपाल की गिरफ्तारी पर हरियाणा में उनके भक्तों ने कोई उपद्रव नहीं किया, जैसाकि प्रायः स्वम्भुओं के भक्तों द्वारा होता रहा है। आसाराम की गिरफ्तारी के विरोध में भी देश के किसी कोने में कोई धरना-प्रदर्शन नहीं हुआ था। हालांकि, उनके खड़े किए हुए तन्त्र ने जरूर कुछ शक्ति-प्रदर्शन किया थां। इसका क्या मतलब है? क्या लोग जागरूक हो रहे हैं? हाॅं, यह कहा जा सकता है कि लोग जागरूक हो रहे हैं। पर यह जागरूकता लोकतन्त्र के दो स्तम्भों से आई है। वे हैं एक न्यायपालिका और दूसरी मीडिया। न्यायपालिका के डंडे ने इन तथाकथित सन्तों की सारी सन्तई निकाल दी और मीडिया ने असलियत दिखाकर उनको ऐसा नंगा किया कि जो जनता उन पर श्रद्धा करती थी, वह उन पर थूकने लगी। रामपाल की गिरफ्तारी के बाद, उनके सतलोक आश्रम के भीतर की, जो सूचनाएॅं मीडिया ने उपलब्ध कराईं, वे बेहद चैंका देने वाली हैं। बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश तक से लोग अपने दुखों के निवारण के लिए वहाॅं आए हुए थे। कई औरतों के साथ दुराचार तक वहाॅं हुआ था।
सवाल यह है कि इतनी दूर-दराज से लोग सतलोक आश्रम में कैसे पहुॅंचे? ऐसा भी नहीं है कि रेडियो, टेलीविजन और अखबारों में उन्हें बुलाने का कोई विज्ञापन निकला हो। फिर इतनी बड़ी संख्या में लोग वहाॅं कैसे पहुॅंच गए? इसी तन्त्र को जनता को समझना है, क्योंकि इसी तन्त्र से इतनी बड़ी संख्या में लोग इन सन्तों के आश्रमों में पहुॅंचते हैं या पहुॅंचाए जाते हैं। इस काम के लिए ये सन्त अपने एजेण्ट नियुक्त करते हैं, जो गरीब और पिछड़े इलाकों में परेशान लोगों को बाबा के चमत्कारी किस्से सुनाकर उन्हें ऐसा बाॅंधते हैं कि वे गरीब उनके जाल में फॅंस जाते हैं। ऐसे ही फॅंसे हुए लोग तथाकथित सन्त रामपाल के सतलोक आश्रम में बन्द थे, जो पुलिस के आपरेशन से मुक्त होकर अपने घर पहुॅंचे थे। अब वे समझ गए कि ये कैसा भगवान कि पुलिस पकड़ कर ले गई? अगर उनमें कुछ भी भगवान का सत् होता, तो पुलिस भस्म नहीं हो जाती?
क्या जनता का शोषण करने वाले इन तथाकथित सन्तों से छुटकारा सम्भव है? शायद नहीं। जब तक धर्मभीरुता रहेगी, नए-नए भगवान पैदा होते ही रहेंगे। अगर देश में गरीबी और अशिक्षा बनी रहेगी, तो धर्मभीरुता भी बनी रहेगी। और पॅंूजीवाद से संचालित धर्मतन्त्र यही चाहता है कि भारत में गरीबी और अशिक्षा हमेशा बनी रहे।
(24 नवम्बर 2014)


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