मंगलवार, 24 जनवरी 2017

रामगोपाल परदेसी
(कँवल भारती)

1974 में मेरे मित्र वाचस्पति मिश्र ‘अशेष’ ने मुझे प्रगति प्रकाशन, आगरा में नौकरी दिलवा दी थी. उसके संचालक रामगोपाल परदेसी से उनके अच्छे संबंध थे. एक बार जब वह मार्च के किसी दिन रामपुर उनसे मिलने आये, तो उसी समय उन्होंने उनसे मेरा जिक्र किया और बात बन गयी. उस समय उनके प्रकाशन की किताबों के बिल बहुत से कालेजों और पुस्तकालयों में सालों से लम्वित पड़े थे, जिसकी वसूली के लिए उन्हें एक प्रतिनिधि की जरूरत थी. इसलिए उन्होंने अशेष जी के कहने से मुझे प्रतिनिधि की नौकरी देने का वायदा कर लिया था. एक हफ्ते बाद अशेष जी ने परदेसी जी के नाम एक पत्र लिखकर दिया और कहा, तुरंत आगरा इस पते पर चले जाओ, यहाँ प्रकाशन में काम करना है और इन्हीं के यहाँ रहना है. मैंने एक अटैची में कुछ जरूरी कपडे और लिखने-पढ़ने का सामान रखा, जिसमें चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की किताबें, मुझे लिखे गए उनके खत और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित अपनी कविताओं की कतरनें, जो एक मोटी कापी में मैंने चिपकाकर रखीं थीं, शामिल था. और मुरादाबाद स्टेशन से, क्योंकि रामपुर से आज भी आगरा के लिए कोई ट्रेन नहीं जाती है, मैं आगरा पैसेंजर में बैठ गया. टिकट और रास्ते के खर्च के पैसे भी अशेष जी ने दिए थे. सुबह छह-सात बजे के करीब ट्रेन आगरा सिटी पहुंची, और मैं वहीँ उतर गया. लोगों से पूछते हुए दिए गए पते पर मैं परदेसी जी के घर पहुंचा. उस मुहल्ले का नाम मैं भूल चुका हूँ, पर इतना याद है कि घर दो मंजिला था. मुझे जो कमरा सोने के लिए दिया गया था, वह ऊपर था, खाना भी मैं ऊपर ही बैठकर खाता था. शुरू में तो मुझसे नौकरों वाले काम कराये गए, जिसे मैं यहाँ उल्लेख करना उचित नहीं समझता. शाम को बीयर और शराब की बोतल भी परदेसी जी मुझसे ही मंगवाते थे, जिसके लिए मुझे लगभग आधा किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था. उन दिनों मुझे शराब की गंध भी बुरी लगती थी. पर वहाँ शराब की दूकान से लेकर आना पड़ता था. मजबूरी जो न करा ले! मुझे अभी आगरा आये हुए एक हफ्ता ही बीता था कि यूनिवर्सिटी के किसी काम से अशेष जी का आगरा आना हुआ. उन दिनों रामपुर-मुरादाबाद के सभी कालेज आगरा यूनिवर्सिटी से ही जुड़े हुए थे. रूहेलखंड यूनिवर्सिटी उस समय तक अस्तित्व में नहीं आई थी. अशेष जी परदेसी जी के घर पर ही ठहरे. रात को फिर बोतल मंगाई गयी. मैं अशेष जी को पहली बार बीयर पीते हुए देख रहा था. मैं खड़ा हुआ उनकी सेवा कर रहा था, कभी पानी लाता, कभी सोडा तो कभी अंदर से पकोडे लेकर आता. नशे की पिनक में मैं अब परदेसी जी का बेटा हो गया था. नशे में अशेष जी से बोले जा रहे थे, ‘यह तो मेरा बेटा है...बहुत मेहनती है....अब तो सब यही संभालेगा...मैंने इसे मालिक बना दिया..’ यह कहते हुए उन्होंने जो हाथ उठाया, तो वह मेज पर रखे उनके गिलास पर लगा, और गिलास मय शराब के फर्श पर गिरकर चूर-चूर. पर फर्श पर बिखरे कांच और शराब को भी इस बंदे को ही उठाकर साफ़ करना पड़ा था.
‘प्रगति प्रकाशन’ बैतुल बिल्डिंग में था. जगह काफी बड़ी थी. एक दिन परदेसी जी मुझे बिल्डिंग के ऊपर ले गए. ऊपर मीटिंग हाल था, जिसकी दीवालों पर चारो ओर हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकारों के चित्र लगे हुए थे. पर बिल्डिंग खस्ता थी. पूरे फर्श पर दरियां बिछी थीं, और सब तरफ धूल ही धूल थी. उन्होंने मुझे झाडू लेकर पूरे हाल को साफ़ करने का हुक्म दे दिया. मरता क्या नहीं करता. पूरे हाल को साफ़ करते हुए, मैं धूल से लथपथ हो गया था और कई दिन तक मेरी साँस फूलती रही थी.
रामगोपाल परदेसी के यहाँ रहते हुए भी मुझे कभी उनसे व्यक्तिगत रूप से बोलने-बतियाने का अवसर नहीं मिला था. हालाँकि वह एक अच्छे गीतकार थे. उसी महीने उनका एक गीत ‘सरिता’ में प्रकाशित हुआ था, जिसका अंक उन्होंने मेरे साथ ही आगरा कैंट रेलवे स्टेशन से, जब वह मुझे जलगाँव के लिए विदा करने गए थे, खरीदा था. एक कविता संग्रह भी उनका प्रकाशित हो चुका था. उनके द्वारा सम्पादित और प्रकाशित ‘भारतीय लेखक कोश’ भी उन दिनों बहुत चर्चित था. लेकिन जो साहित्यिक चर्चाएँ और विमर्श दो लेखकों के बीच होते हैं, वह हम दोनों के बीच कभी नहीं हुआ.
 जिस काम के लिए परदेसी जी ने मुझे रखा था, वह दिन भी आया. अप्रेल 1974 की किसी तारीख को उन्होंने मुझे भिंड, ललितपुर, टीकमगढ़, झाँसी, कानपुर, फ़ैजाबाद, गाजीपुर, इलाहाबाद, बलिया, गोरखपुर, देवरिया और बस्ती आदि जिलों के कालेजों और पुस्तकालयों से उनके लम्वित बिलों का भुगतान लाने के लिए लगभग दो महीने का एक टूर बनाकर भेज दिया. कुछ कालेजों में किताबें भी देनी थीं. सो किताबों का एक बड़ा गट्ठर भी उन्होंने थमा दिया था. रास्ते के खर्च के लिए दो सौ रूपये दिए, और कहा कि, जहाँ भी ठहरो, वहाँ का फोन नम्बर देना, मैं बात करता रहूँगा, और पैसे खत्म हो जाएँ, तो बता देना. पर उन्होंने सिर्फ एक बार मुझे कानपुर शहर में ‘केयर आफ पोस्टमास्टर’ मनीआर्डर भेजा था. मुझे कुछ जिलों में कई-कई दिन तक रहना पड़ा था. इन सभी जिलों में मैं अक्सर धर्मशालाओं में ही ठहरता था, और खाना बाहर खाता था. उन दिनों लगभग हर जिले में मारवाड़ी भोजनालय होते थे, जहां रुपए-दो रूपये  में पेट भर जाता था.
इस टूर में मुझे बहुत सारे अच्छे अनुभव भी हुए और खराब भी. सबसे ज्यादा खराब अनुभव मुझे बलिया में हुआ था. वहाँ मुझे गाँव के एक ऐसे स्कूल में जाना था, जहाँ जाने का कोई साधन मुझे नहीं मिला था, और मुझे लगभग पन्द्रह किलोमीटर पैदल चलना पड़ा था. मैं गर्मी से बेहाल था, प्यास से हलक सूख रहा था, पर रास्ते भर कोई नल नहीं मिला था. स्कूल से वापस भी पैदल ही आना हुआ था. उस दिन मुझे इतनी थकावट हो गयी थी कि सीधे धर्मशाला में जाकर सो ही गया था.
देवरिया में मेरी मुलाकात बन्धुप्रसाद मौर्या से हुई थी, जो वहां के चर्चित बहुजन नेता थे. मैं वहाँ जिस धर्मशाला में ठहरा था, उसके आसपास ही एक सिनेमाहॉल था. मुझे पिक्चर देखने का शौक था. मैं जब वहाँ गया, तो गेट में घुसते ही सीधे हाथ को मुझे एक किताबों का खोखा नजर आया. खोखे में डा. आंबेडकर का चित्र लगा था, जिसने मुझे प्रभावित किया. पर मैंने पिक्चर देखने के बाद खोखे पर जाने का मन बनाया. उस दिन शायद रविवार था. उसमें ‘सात हिन्दुस्तानी’ फिल्म लगी हुई थी. तीन बजे पिक्चर छूटने के बाद जब मैं खोखे पर गया, तो वहाँ धोती-कुरता पहिने और टोपी लगाये एक सज्जन बैठे हुए थे. मैंने उनको नमस्कार किया और अपना परिचय दिया. बातचीत शुरू की, तो पता चला कि वह बन्धुप्रसाद मौर्य थे, और आंबेडकर आन्दोलन से जुड़े थे. उस समय तक मेरी एक किताब ‘बुद्ध की दृष्टि में ईश्वर, ब्रह्म और आत्मा’ छप चुकी थी. उसकी कुछ प्रतियाँ रामपुर से साथ लाया था, जो इस टूर में भी मेरे साथ थीं. दूसरे दिन मैंने उसकी एक प्रति उन्हें भेंट की. उस दिन संयोग से वह मुझे अपने घर ले गए, जो सदर क्षेत्र में ही एक गाँव में था. घर पक्का बना हुआ था और मुझे यह देखकर खुशी हुई थी कि उस दौर में गाँव में भी बहुजन समाज का कोई व्यक्ति इतनी शान से रह रहा था. रात का खाना मैंने उनके घर पर ही खाया था. मैं देवरिया किस तारीख को पहुंचा था और कब तक रहा था, इसका विवरण जिस डायरी में दर्ज था, वह फिलहाल मिल नहीं रही है. जब भी मिलेगी, मैं उसका विवरण जरूर दूँगा.
इस टूर में मुझे हिन्दी के कुछ साहित्यकारों से भी मिलने का अवसर मिला था, जो मेरे लिए उस समय एक बड़ी उपलब्धि थी. इससे सम्बंधित मेरा एक लेख रामपुर के साप्ताहिक ‘सहकारी युग’ के 5 फरवरी 1977 के अंक में छपा था. उसके अनुसार, मैं 4 अप्रेल 1974 को फ़ैजाबाद में साकेत महाविद्यालय के विभागाध्यक्ष एवं रीडर डा. राजनारायण मिश्र से मिला था. दामोदर धर्मशाला में मैंने अपने ठहरने का प्रबंध कर लिया था और एक अलमारी में अपना सामान रखकर ताला भी मार आया था. किन्तु डाक्टर साहब के स्नेह ने मुझे धर्मशाला नहीं जाने दिया. उस रात उन्होंने मुझे अपने घर पर ही रोक लिया. किसी ब्राह्मण के घर ठहरने का मेरे जीवन का यह पहला अवसर था. प्रेम से उन्होंने मुझे भोजन कराया, आंवले का मुरब्बा खिलाया, जिसे मैं गुलाबजामुन समझने की भूल कर रहा था. मुझे उनके और उनके घर के किसी भी सदस्य से जातीय व्यवहार की अनुभूति नहीं हो रही थी, जबकि उन्हें मेरी जाति के बारे में मालूम था. रात्रि के भोजन के बाद उन्होंने मुझे अपने ही कमरे में सुलाया. अचानक वह मुझसे बोले, ‘तुम टूर पर हो और लिखते भी हो, कभी सोचा है, यह टूर तुम्हारे लेखन में सोने में सुगंध ला सकता है.’ मैंने मौन रहकर अपनी अनभिज्ञता का संकेत दिया, तो उन्होंने कहा, ‘आजकल नया साहित्य चर्चा का विषय बना हुआ है. किन्तु आज का विद्यार्थी वर्ग इसके सैद्धांतिक पक्ष से कितना परिचित है? यह ऐसा विषय है, जो नए साहित्य के यथार्थ को प्रकाश में ला सकता है. इस विषय पर तुम एक परिचर्चा आयोजित करो और जहां-जहां जाओ, वहाँ के कुछ विद्वानों से मिलकर उनके विचारों को लिपिबद्ध कर लो.’
डा. मिश्र का एक अच्छे विषय पर यह बहुत ही अच्छा सुझाव था. उनके सहयोग से एक प्रश्नावली भी तैयार हो गयी, जिसमें छह प्रश्न थे, जो इस तरह थे—
1.      आधुनिक नयी कविता में सम्प्रेषण की क्या स्थिति है?
2.      रूपवादी आलोचना साहित्यिक मूल्यांकन की कहाँ तक उचित कसौटी है?
3.      आज के साहित्य में नग्नता का अधिक चित्रण क्यों है?
4.      आज का विद्यार्थी वर्ग नए युगबोध और सौन्दर्यबोध से परिचित क्यों नहीं हो पाता?
5.      आज का विद्यार्थी सृजनात्मक साहित्य में अधिक रूचि क्यों नहीं ले पाता? और,
6.      विद्यार्थी और साहित्यकार के मध्य आज असम्पृक्ति की स्थिति क्यों है?
इन प्रश्नों पर मैंने बस्ती, गोरखपुर, कुशीनगर और गाजीपुर के साहित्यकारों से भेंट की थी और उनके विचारों को मैंने लिपिबध्द किया था. इनमें डा. राजकुमार पाण्डेय, डा. गोपीनाथ तिवारी, डा. जयप्रकाश नारायण त्रिपाठी, डा. विवेकी राय और डा. मोती सिंह शामिल थे. डा. राजनारायण मिश्र ने भी अपने जवाब लिखवाये थे. पर मैं इनमें से सिर्फ डा. राजकुमार पाण्डेय और डा. मोती सिंह के विचारों को ही सुरक्षित रख सका, शेष सब सारे जवाब आगरा-कांड में स्वाहा हो गए. उसमें परिचर्चा के सूत्रधार और प्रेरक डा. राजनारायण मिश्र के विचार भी थे.
28 मई 1974 को मेरा टूर समाप्त हो गया था. और जैसा कि मैंने डा. मिश्र को आश्वासन दिया था, एक-दो महीने में परिचर्चा को कहीं छप जाना चाहिए था. पर ऐसा नहीं हो सका. इसके दो कारण थे, एक तो मैं उस परिचर्चा को लेखबद्ध नहीं कर सका था, और दूसरे, मैं अपना सारा सामान आगरा में ही छोड़कर रामगोपाल परदेसी की जेल से भाग आया था. बहुत थोड़ा सामान अपने साथ लाया था, जिसमें संयोग से डा. राजकुमार पाण्डेय और डा. मोती सिंह के जवाब भी मेरे साथ चले आये थे. इसलिए मैं केवल उन दोनों के ही विचारों को छपवा पाया.

      असल में इस टूर में मैं रामगोपाल परदेसी के व्यवहार से बहुत दुखी हो गया था. मैं किस तरह अपना खर्चा चलाता था, यह मैं ही जानता था. बहुत बार तो मैं रात को बिना खाना खाए ही सो जाता था. उनको फोन करता था, तो उसमें भी पैसे खर्च होते थे. उन दिनों PCO तो थे नहीं, मुझे डाकखाने से ही फोन करना होता था. फिर सफर में तमाम तरह के खर्च होते थे, कपड़े धोने के लिए साबुन का खर्च, प्रेस कराने का खर्च, रिक्शे का खर्च, चाय-नाश्ते और दोनों समय के खाने का खर्च और धर्मशाला का किराया, मरी सी बात को इस सब के लिए उन दिनों बीस रूपये रोज तो चाहिए थे. वह चाहते थे कि उनका कोई पैसा खर्च न हो और मै हवा सूंघकर उनका सारा काम कर के आ जाऊं. जब मैं टूर से वापिस आया, तो उसके दूसरे दिन ही उन्होंने मुझे एक नक्शा देकर महाराष्ट्र के दौरे पर भेज दिया. मैं तुरंत ही टूर के लिए तैयार नहीं था, क्योंकि एक तो मेरी तबियत खराब हो गयी थी, और दूसरे तीन महीने हो गए थे, मुझे अपनी माँ की बहुत याद आ रही थी. मैंने उनसे कहा कि मैं दो-चार दिन के लिए घर जाना चाहता हूँ. पर वह नहीं माने. और उन्होंने मुझे वेतन बढ़ाने का प्रलोभन देकर, जो मुझे कभी मिला ही नहीं था, जबरन टूर पर भेज दिया. आगरा केंट रेलवे स्टेशन पर वह मुझे खुद छोड़ने आये थे. उन्होंने मुझे जनरल क्लास का टिकट खरीद कर दे दिया था. ट्रेन कौन सी थी, यह याद नहीं है. पर मेरे अंदर तो कुछ और ही उबल रहा था. जैसे ही वह मुझे सब कुछ सौंपकर विदा हुए, मैंने तुरंत अपना विचार बदला और जलगांव की ट्रेन छोड़कर, मुरादाबाद जाने वाली ट्रेन में बैठ गया. अपना सारा सामान परदेसी जी के घर पर ही छोड़ दिया, जिसमें जिज्ञासु जी की किताबों, और उनके खतों के साथ-साथ मेरे लिखने-पढ़ने का भी सामान था, मैं रामपुर आ गया, बहुत सारा पाने के लिए बहुत सारा खोकर.

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