गुरुवार, 14 नवंबर 2013

संघ परिवार का झूठा प्रचार
(कँवल भारती)
     संघ परिवार के पम्फलेट में एक और बात यह कही गयी है कि ‘हमें पढ़ाया जाता है कि भारत की खोज वास्कोडिगामा ने की थी, तो क्या वास्कोडिगामा से पूर्व भारत देश का कोई अस्तित्व नहीं था?’ अब उनकी इस समझ को क्या कहा जाय, मुझे कोई शब्द नहीं सूझ रहा है. इन्हें कौन समझाये कि कोलम्बस ने अमेरिका की खोज की थी, तो क्या अमेरिका पहले से मौजूद नहीं था? अंग्रेजों ने नैनीताल की खोज की थी, तो क्या नैनीताल पहले से मौजूद नहीं था? संघ परिवार के हिन्दू मानस के मस्तिष्क में इतनी साधारण सी बात नहीं आती कि खोज उसी की होती है, जो अस्तित्व में होता है, जो मौजूद ही नहीं है, उसे कोई क्या पकड़ेगा?  शून्य या दशमलव का सिद्धांत भारत की जनजातियों में पहले से प्रचलित था, तभी न आर्यभट्ट ने उसे पकड़ा. विवेकानन्द इसीलिए न शून्य पर बोले थे कि बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन उनसे शताब्दियों पहले शून्यवाद को विकसित कर चुके थे. वे जिस संस्कृत को यूरोपीय भाषाओँ की जननी कहते हैं, वह सबसे बड़ा झूठ है. यूरोपीय देशों में कहीं भी संस्कृत नहीं बोली जाती. सवाल यह है कि उन्होंने अपनी जननी को उन्होंने क्यों भुला दिया?
      यूनान और भारत में दर्शन का आरम्भ लगभग एक ही समय हुआ है, और यह समय ईसापूर्व छठी सदी का है. तब कैसे कहा जा सकता है कि भारत का ज्ञान सबसे प्राचीन है? सच तो यह है कि जहाँ यूनानी दर्शन 600-300 ई.पू. तक आगे बढ़ता है, वहां हिन्दू दर्शन का विकास 400 ई.पू. के बाद दिखाई ही नहीं देता. यह भी सच है यूरोप में दर्शन 300 ई.पू. में ही ठहर सा जाता और पूरी 19 शताब्दियों के बाद ही यूरोप में पुनर्जागरण होता है. पर इस बीच में दर्शन का विकास मुस्लिम दार्शनिकों के द्वारा होता है और बहुत अच्छी तरह होता है. उसी मुस्लिम दर्शन से यूरोप में नवजागरण होता है. नौवीं से बारहवीं सदी तक भारतीय दर्शन इस्लामी दर्शन के समकक्ष ही रहता है. उसके बाद भारतीय दर्शन आज तक अपने पैरों पर खड़ा नहीं हुआ है. यह भारतीय ज्ञान-दर्शन का वह यथार्थ है, जिसे पढ़ कर उन लोगों की आँखें अवश्य खुल जानी चाहिए, जो यह कहते हुए नहीं थकते कि भारत जगतगुरु रहा है.

(14 नवम्बर 2013)    

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